सज्जनों का संगठित प्रतिरोध भी अनिवार्य

February 1992

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मानवी गरिमा के अनुरूप जिनकी अन्तःचेतना ढल चुकी होती है वे देव मानव अपनी महानता बढ़ाने और दूसरों को ऊँचा उठाने की बात सदा सोचते रहते हैं । इसी आधार पर वे अपना व्यवहार एवं क्रियाकलाप विनिर्मित करते हैं । शालीनता अपनाते और सज्जनता बरतते हैं । अधिकार की उपेक्षा करते और कर्तव्य पालन में जागरूक रहते हैं । ऐसों से किन्हीं का अनहित बन नहीं पड़ता । भ्रमवश ऐसा कुछ बन पड़े तो अपनी भूल सुधार लेते हैं । किसी की कुछ क्षति बन पड़ी हो तो उसकी प्रकारान्तर से भरपाई कर देते हैं । देवमानवों की यही रीति-नीति रहती है ।

किन्तु सभी लोग ऐसे नहीं होते । अधिकाँश लोग इससे भिन्न प्रकृति के होते हैं । कुछ तो ऐसे होते हैं जो संकीर्णता की मनोभूमि में अपने मतलब से मतलब रखते ही देखे जाते हैं । उन्हें किसी के सुख-सुख से कुछ लेना देना नहीं होता अपना स्वार्थ जहाँ से जिस प्रकार भी सिद्ध ही उनका इष्ट होता है । जिससे लाभ मिलता है उसी से मैत्री करते हैं और जब उसमें कमी पड़ने लगती है तो तोते की तरह आँखें फेर लेते हैं । इनका न कोई मित्र होता है न शत्रु । स्वार्थ के लिए शत्रु के सामने भी गिड़गिड़ाकर उस से मैत्री बनाने का स्वाँग रचते हैं । मित्र जब छूँछ हो जाता है और उससे लाभ की आशा नहीं रहती है तो फिर उसकी उपेक्षा ही नहीं करते गिरे में दो लात लगाने से भी नहीं चूकते । किसी समय के मित्र के साथ शत्रुता बरतने लगते हैं । इस श्रेणी के लोगों को नर पशुओं की गणना में गिना जा सकता है ।

ऐसे लोगों से सतर्क तो रहना चाहिए पर किसी बड़े अनिष्ट की आशंका नहीं करनी चाहिए । उन्हें लाभ का लालच दिखाकर कभी अनुकूल बनाया जा सकता है । विरोधी तो तभी बनते हैं। जब आक्रमण की, प्रतिद्वंद्विता की या अवरोध उत्पन्न करने की आशंका होती है । ऐसी लोगों से सतर्क तो रहना चाहिए, पर बहुत डरना नहीं चाहिए क्योंकि वे आगे बढ़कर आक्रमण करने की मनःस्थिति में नहीं होते । लड़ाई-झगड़े में वे झंझट भी सोचते हैं और घाटा भी देखते हैं, इसलिए जोंक की तरह जब जहाँ से और कुछ मिलने की संभावना नहीं रहती तो फिर पल्ला झाड़कर अलग हो जाते हैं, रुखाई दिखाने लगते हैं । जमाना ऐसे स्वार्थियों से ही भरा पड़ा है । उनके साथ फूँक-फूँक कर व्यवहार करना और सोच समझ कर मैत्री के लिए हाथ बढ़ाना चाहिए ।

सज्जनों के साथ मैत्री बढ़ानी चाहिए ताकि उनके सद्गुणों की ऊर्जा अपने को प्रभावित करे और ऊँचा उठाने में सहायक बनें । जो पिछड़े है असमर्थ हैं । साधनों की दृष्टि से अभावग्रस्त हैं, दूरदर्शिता जिनका साथ नहीं देती, उनके साथ करुणा बरती जाय और कठिन परिस्थितियों से उबारने के लिए यथासंभव सहायता की जाय । उदारचेता सहृदय होते हैं और सदा यह देखते रहते हैं कि निजी वैभव बढ़ाने की अपेक्षा जो गये गुजरे हैं उन्हें अपनी स्थिति तक लाने के लिए प्रयत्न किया जाय । अपना “स्व” यदि “पर” के साथ आत्मीयता के बंधन में बँधने लगे तो उसका परिणाम समता की स्थिति उत्पन्न करता है । ऊँचे धरातल वाला तालाब यदि नीचे धरातल वाले के साथ किसी नाली द्वारा मिला दिया जाय तो सहज ही ऊँचे वाले का पानी नीचे की ओर तब तक बहने लगता है जब तक कि दोनों की सतह बराबर नहीं हो जाती है । यही है जियो और जीने दो का सिद्धान्त ।”हिलमिल कर रहना और मिल बाँट कर खाना इसी को कहते हैं । सुविकसित, सुसंस्कृत लोगों की यही रीति-नीति रहती है । वे किसी को भी, किसी भी क्षेत्र में अपने से किसी प्रकार हीन देखते हैं तो उसे पूरा करने कि लिए परामर्श , सहयोग , आग्रह या अनुदान भी उदारतापूर्वक प्रदान करते हैं । यह सब बिना बदले की आशा से विशुद्ध कर्तव्य पालन मानकर किया जाता है । बालक अभिभावकों को उपकार का बदला चुकाने की स्थिति में कहाँ होता है ? उसका भरण-पोषण तो आत्मीयता जन्य उदारता के आधार पर ही होता है ।

सज्जन संसार में कम हैं तो भी सज्जनता का प्रकाश किसी न किसी रूप में हर जगह देखा पाया जाता है । उसे जहाँ भी जिस भी मात्रा में देखा पाया जाय, मोद मनाया जाय, प्रसन्न हुआ जाय । प्रशंसा की जाय और प्रोत्साहित करने के लिए उत्साह दिखाया जाय।

अब बारी तीसरे वर्ग की आती है जिनका अन्तराल प्रधान दुष्टता से सराबोर होता है । दया, धर्म उनके पास तक नहीं फटकते । हर समय शिकार ढूँढ़ते और घात चलाते रहते हैं । बगुला उस आकार की मछली पकड़ता है जो उसकी चोंच में समा सके और गले के नीचे उतर सके । जो इससे बड़ी होती है उसे वह नहीं छेड़ता दुरात्माओं की भी यही नीति होती है । वे अपने से कमजोर पड़ने वालों पर हमला बोलते हैं । सीधे आक्रमण महंगा पड़ता दीखे तो छल-छद्म की कुटिलता बरतते हैं । विरोधियों को आपस में लड़ाकर कमजोर करते हैं और फिर दोनों को ही एक-एक करके निगल लेते हैं ।

चोर-चोर आपस में लड़ते नहीं, वरन् मतलब की दोस्ती गाँठते और मौसेरे भाई बन जाते हैं । दुरात्माओं के गिरोह इसी आधार पर बनते हैं । अनाचारों में एक दूसरे का सहयोग देते और लाभ में हिस्सा बँटाते हैं । शिकार ढूँढ़ते समय वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि दुर्बल या सज्जन पर ही हमला बोला जाय दुर्बल कमजोरी के कारण और सज्जनता-अहिंसा जैसे किसी सिद्धान्त की आड़ लेकर प्रतिरोध से जी चुराता है । इस प्रकार वे मन को समझाते रहते हैं और आये दिन एक के बाद दूसरे आक्रमण का शिकार होते रहते हैं । दुरात्मा दो ही प्रकार के शिकारों को बिना प्रतिरोध के दबोचते रहते हैं और अपनी सफलता पर मूँछें मरोड़ते रहते हैं साथ ही उनके अनाचार और भी तीव्र होते जाते हैं । सरल सफलता को देखकर ऐसे ही अन्य लोग भी इसी खल-मण्डली में शामिल होते जाते हैं । उन्हें यह व्यवसाय बिना घाटे का और प्रचुर नफे को दीख पड़ता है । इन्हें नर पिशाच वर्ग में गिना जा सकता है । उनकी संख्या तो बहुत नहीं होती, पर आतंक सारे समाज पर छाया रहता है । सरल लोग तो आसानी से समाज या शासन की पकड़ में भी आ जाते हैं, पर यह वर्ग आँखों में धूल झोंकने और हर पकड़ से बच निकलने में भी प्रवीणता प्राप्त कर लेता है । हथकंडों के बल पर अपने को हर पकड़ से बचा लेता है । इस प्रकार उनके हौसले बढ़ते ही जाते हैं । चोर से डाकू और उठाई गिरी से बढ़कर तस्कर ऐसे ही लोग बनते हैं । इनके साथ क्या व्यवहार किया जाय ? इसके उत्तर में एक ही शब्द कहा जा सकता है कि अनीति के आगे किसी भी कीमत पर सिर न झुकाया जाय । सहयोग विरोध से लेकर संघर्ष तक जिससे जितना जिस प्रकार का प्रतिरोध बन पड़े करते ही रहा जाय । साँप काटने की स्थिति में न हो तो भी उसे फुफकारना तो चाहिए ही । चुपचाप बैठे रहने, भाग्य को कोसते रहने या “भगवान देखेगा” जैसी बात कहकर मन समझा लेने से काम कुछ भी नहीं चलता । उलटे अपना मनोबल गिरता है और आक्रमणकारी का बढ़ता हुआ अहंकार दूने वेग से अनाचार करने पर उतारू होता है ।

यों शासन का , समाज का काम इन नर पिशाचों पर अंकुश लगाने का है, पर यदि वे झंझट में पड़ने से बचें तो भी सज्जनों को संगठित होकर इन तत्वों का प्रतिरोध करना ही चाहिए ।यह भी सज्जनता को सुरक्षित करने का एक कारगर कदम है ।


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