सत् चित् और आनन्द

February 1992

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ईसा से एक जगह पूछा गया कि क्या आपने ईश्वर देखा है ? उनने “हाँ” में उत्तर दिया । जब पूछा गया कि हमें भी दिखा सकते हैं ? इसका उत्तर भी उन्होंने हाँ में ही दिया । फिर शुभ कार्य में विलम्ब क्यों ? उपस्थितजनों की उत्सुकता बढ़ती गयी ।

ईसा ने एक माता की गोदी से छोटा-सा शिशु उठा लिया और उसे कंधे पर बिठाकर उपस्थिति जनों से कहा कि “यही ईश्वर है । जिसमें निकृष्टता ने प्रवेश न किया हो । जो सदय, सरल और निष्पाप है, उसे ईश्वर की ही अनुकृति मानना चाहिये । आनंद वस्तुतः बच्चों में ही निहित है ।” बालक हममें से हर किसी के इर्द-गिर्द पाये जाते हैं । कइयों के तो अपने ही बच्चे कई होते हैं । फिर परिवार के पड़ोसियों के, सम्बन्धी, परिचितों और अपरिचितों के बच्चे भी खेलते हुए समीप आ पहुँचते हैं या उनकी ओर तनिक-सी दुलार भरी दृष्टि से देखते हुए अपने पास बुलाया जाता है, उन्हें अपनी सद्भावना, उपेक्षा, अज्ञान, अपमान आदि का पहली दृष्टि से ही पता चल जाता है और वे तद्नुरूप प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगते हैं ।

बच्चे आरंभ में जल्दी बोल नहीं पाते और कमजोर शरीर होने के कारण कोई बड़ा परिश्रम भी नहीं कर पाते । इतने पर भी उनकी समझ असाधारण स्तर की होती है । परिवार के लोगों द्वारा बोले जाने वाले शब्दों की नकल करना, उनका भावार्थ समझना तेजी से आरंभ करते हैं और तीन वर्ष के होते-होते वार्तालाप में समर्थ हो जाते हैं । यह बड़ों की तुलना में किसी प्रकार कम समझदारी का चिन्ह नहीं है ।

बच्चा जन्मजात सत्यवादी होता है, उसके पास कोई ऐसा दुराव नहीं होता, जिसे वह छिपाना चाहे । बच्चा अपरिग्रही होता है । पेट भर जाने पर वह शेष भोजन को जहाँ का तहाँ छोड़ देता है । उसे पीछे के लिए सुरक्षित रखने की बात नहीं सूझती चतुर-श्रमशील होता है । वह छोटी आयु में भी कुछ न कुछ हलचल किये बिना नहीं रह सकता । उसकी विभिन्न हलचलों के पीछे श्रमशीलता का उत्साह ही काम करता है । मात्र इतना नहीं समझ पाता कि क्या करने का क्या लाभ मिलता है ? फिर भी वह परिश्रम का अपने को अभ्यस्त बनाता है । वो जब तक जागता रहता है, तब तक कुछ न कुछ किये बिना रहता नहीं ।

बच्चा भेदभाव नहीं करता और न द्वेष को गाँठ बाँधता है । आपस में लड़ना और फिर दूसरे से एक हो जाना उसका स्वभाव है । जातिगत, धर्म आदि के कारण बच्चे किसी को विराना नहीं समझते बच्चा कुछ करना ही चाहता, समझना भी चाहता है । खिलौने आदि वह इसीलिये तोड़ता रहता है कि यह जान सके कि उनके भीतर क्या है ? जो काम दूसरे करते हैं उसकी नकल बनाने का प्रयत्न अपनी सामर्थ्यानुसार करता है । जानना और करना यह दोनों ही कार्य इसे इतने अधिक प्रिय हैं कि वह इसे लिये छोटी आयु में भी सामर्थ्य भर प्रयत्न करता रहता है । यह सभी गुण ऐसे हैं, जिन्हें बड़े भी बच्चों से सीख सकते हैं साथ ही उनकी कोमलता तथा निश्चलता से उत्पन्न प्रसन्नता का सान्निध्य लाभ कर सकते हैं ।

मनुष्यों के तथा अन्य जीवों, पशु-पक्षियों के बच्चे तक मनुष्य के लिये एक उच्चस्तरीय मनोरंजन का आहार बनते हैं । स्वयं भावना प्रधान होने से अपने संपर्क में आने वालों की भी भावना जगाते हैं । शाहजहाँ ने जेल में दिन गुजारते हुए भी अपने लिये इच्छित काम माँगा तो उसने “बच्चों” को पढ़ाने का श्रम सर्वोत्तम माना और वही माँगा । उस व्यवस्था के बीच दिन गुजारते हुए जेल का कठिन जीवन भी सरल बना लिया । आवश्यक नहीं कि बच्चे अपनी ही संतान हों । किन्हीं के भी बालकों को भी अच्छा लगता है । मनोरंजन का यह अच्छा-खासा माध्यम है, जिसे हर कहीं सहज ही प्राप्त किया जा सकता है ।

मित्रता के साथ जुड़ी आत्मीयता किसी को भी प्राणप्रिय बना देती है । दाम्पत्य जीवन को दो शरीर एक मन बना देने की क्षमता मात्र सघन मित्रता में ही है । यह परिवार के सदस्यों के बीच तो एक व्यवस्था के अंतर्गत रहने और एक दूसरे के साथ आदान-प्रदान होने से भी चलती रहती है, पर विचारों की समानता का और पारस्परिक आदान-प्रदान एवं सहयोग से भी उसका बड़ा सम्बन्ध है । मित्रों की समीपता कितना अधिक आकर्षक पैदा करती है, इसे सभी जानते हैं । इसी भावना को भड़काकर कई लफंगे तथाकथित मित्र का सर्वनाश तक करते देखे गये हैं, पर इतना तो निश्चित रूप से होता है कि मित्रता उस स्तर की घनिष्ठता बढ़ाती है, जिसके कारण निकटता का अवसर मिलने तक से चित्त प्रफुल्लित हो जाता है ।

कामुकता की दुष्प्रवृत्ति भी साथी को जाल में फँसाने के लिये मित्रता का ही लबादा ओढ़ती है अन्यथा उसका थोड़ा परिचय अश्लीलता की दुष्प्रवृत्ति के अतिरिक्त और कुछ रह ही नहीं जाता ।

संगीत भावनाओं को तरंगित करने वाला एक महत्वपूर्ण मनोरंजन है, किन्तु शर्त यही जुड़ी हुई है कि उसमें कुसंस्कारिता भड़काने वाला विष न घोला गया हो । भक्तिरस के आस्वादन में संगीत के साथ नृत्य भी जुड़ने से वह संकीर्तन बन जाता है । आदर्शवादिता का पक्षधर संगीत सहगान में सम्मिलित होने वाले को सरसता प्रदान करता है । यदि वाद्य यंत्रों का प्रबन्ध न हो, तो भी मात्र कण्ठ के सहारे संवेदनाओं का स्पर्श करने वाले गीत एकाकी भी गुनगुनाये जा सकते हैं ।

जिन क्षेत्रों में विकसित स्तर के मनोरंजनों की पहुँच नहीं हुई है । वहाँ भी लोकगीत और लोक नृत्य ही पुरातन परम्परा से इन प्रगति युग में भी नये-नये प्रकार के प्रयोग हो रहे हैं ।

जिस प्रकार अवसाद निराशा और खिन्नता का निमित्त कारण बनता है, उसी प्रकार उल्लास को उभारने से मनुष्य की चेतना को नवजीवन मिलता है । समुद्र में भाटा आने पर उसके जो क्षति प्रतीत होती है, उसकी पूर्ति उछलते हुए पानी के रूप में आने वाले ज्वार कर देते हैं । अस्त-व्यस्त जीवन में आने वाली खिन्नता की आपूर्ति करने में मनोरंजन का सहारा लेना पड़ता है । यह उचित ही है । कृष्ण पक्ष में बढ़ते हुए अन्धकार की भरपाई शुक्ल पक्ष में बढ़ती चन्द्र किरणों से ही होती है । रात्रि के अन्धकार में जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, उसका अन्त दिनमान के उदय होने पर हो जाता है । खिन्न, अप्रसन्न करने वाले दबावों की क्षतिपूर्ति के लिये मनोरंजन का सहारा लेना पड़ता है । उसे उपलब्ध करने में कहीं कठिनाई नहीं है । मात्र अड़चन एक ही रहती है-सहज स्वाभाविक सरसता की , जो प्रचुरता से सर्वत्र विद्यमान है । लोग उससे अपरिचित बने रहते हैं और किस प्रकार आनन्दमय परिस्थितियों में जीवनयापन किया जा सकता है, उसे भूल जाते हैं ।

परमात्मा के अनेक नामों में से एक अति महत्वपूर्ण है-सच्चिदानन्द ।” ‘सत’ अर्थात् यथार्थता । यथार्थता का बोध अर्थात् जो कुछ हमें आवश्यक है वह परिपूर्ण मात्रा में जन्मजात रूप से ही विद्यमान है । मानवी चुम्बक अपने सजातीय कणों को संसार भर में कहीं से भी अपने लिये प्रसन्नता का वातावरण बना लेने में समर्थ है । दूसरा नाम है- ‘चत्’ चेतन । मनुष्य अपने आप को जड़ शरीर मानता हो है, पर वस्तुतः वह वैसा है नहीं । चेतना ही उसका स्वरूप है और उसी के साथ कठिन और जटिल से जटिल उलझनों का उत्पादन एवं समाधान जुड़ा हुआ है । व्यक्ति अपने ऊपर लदी हुई अवांछनीयताओं से छुटकारा प्राप्त कर ले, तो मूर्छना की स्थिति में जो भूलें निरन्तर होती रहती हैं और जिसके कारण असंख्य त्रास सहने पड़ते हैं, उनमें से किसी की भी आवश्यकता न रहे ।

सत् चित्त के उपरान्त महाचेतना का तीसरा विशिष्ट गुण है - आनन्द । उसे आनन्द से रहना चाहिये और अपने संपर्क क्षेत्र को निरन्तर आनन्द से सराबोर रखना चाहिये । यह संभव भी है और सरल भी । इसके लिये खर्चीले साधन जुटाने की आवश्यकता नहीं है और न ऐसे अवलम्बन ढूँढ़ने हैं, जो क्षण भर के लिये बिजली की चमक दिखाकर घने काले बादलों के बीच विलीन हो जायेगा । खरीदे हुए उपकरण, अवलम्बन ऐसे हैं, जिनसे इतनी ही आशा की जा सकती है कि अपने को ही नहीं अपने संपर्क में आने वालों को भी प्रसन्नता से भरा दें । चन्दन जब संपर्क क्षेत्र को महका देता है, तो कोई कारण नहीं कि प्रज्ञावान मनुष्य निरन्तर आनन्द विभोर स्थिति को न बनाये रखे ।

अभाव का अन्त नहीं । इस पृथ्वी के समूचे साधन एक व्यक्ति की तृष्णा बुझाने के लिए भी अपर्याप्त है। यदि उन्हीं की ललक सँजोये रखी गयी तो समझना चाहिये कि अनाचार पर उतरना पड़ेगा और जो उपलब्ध है वह अपर्याप्त एवं नीरस लगेगा । चयन पूरी तरह अपने हाथ है । स्वयं दुखी रहना, दूसरों को दुख देना और संपर्क क्षेत्र में दुःख भरा वातावरण छोड़ जाना यह भी अपने हाथ की बात है । इस भीतरी जीवन को बाहर के स्वल्प साधनों से देर तक प्रसन्न नहीं बनाये रखा जा सकेगा । प्रसन्नता का अनन्त स्रोत तो अपने भीतर है । कस्तूरी के मृग की तरह भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये, वरन् वह जहाँ है, वहीं उसे खोजना चाहिये । अपना दृष्टिकोण, चरित्र, चिन्तन,

व्यवहार यदि बदल जाय तो संसार की व्यथा और कुरूपता को पलायन करते देर न लगेगी ।


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