प्रगति एवं उत्कर्ष का आधार नैतिकता

February 1992

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किसी भी देश की प्रगति एवं समृद्धि इस बात पर निर्भर करती है कि वहाँ के नागरिकों का स्तर कैसा है। राष्ट्रीय विकास के लिए बनने वाली योजनाओं की अपनी उपयोगिता है पर उनकी सफलता नागरिकों की चरित्र निष्ठ के ऊपर निर्भर करती है। योजनाएँ कितनी भी सशक्त एवं समर्थ क्यों न हों, उनकी सफलता तब तक संदिग्ध बनी रहेगी जब तक व्यक्तियों का नैतिक स्तर गिरा हुआ है। अतः व्यक्तित्व की, समाज एवं देश की स्थायी प्रगति एवं समृद्धि के लिए सर्व प्रथम नैतिक आधारों को सुदृढ़ बनाना आवश्यक हो जाता है। नैतिकता के अंतर्गत वे सारे तत्व समाहित हैं जो व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में योगदान देते हैं। व्यक्तित्व विकास का मूल आधार यही है।

कोई व्यक्ति अपने काम के प्रति ईमानदार है, पर सामाजिक एवं राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा कर रहा है तो उसे नीतिवान, चरित्रवान नहीं कहा जा सकता। नैतिकता समस्त समाज की बात सोचने, सबकी प्रगति के लिए तद्नुरूप आचरण करने का ही पर्याय है, जो व्यक्तिगत परिधि तक सीमित न रहकर सामाजिक एवं राष्ट्रीय प्रेम के रूप में प्रस्फुटित होती है, फलतः समग्र प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता है। कर्मठता, सच्चरित्रता, नैतिकता-आदर्शवादिता के आधार पर ही मनुष्य अपनी विशिष्टता-वरिष्ठता सिद्ध करता है। औसत नागरिक की तरह सादगी भरा निर्वाह करना, उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श चरित्र की गौरव गरिमा बनाये रखना, पवित्रता एवं प्रखरता पर आधारित व्यक्तित्व को समर्थ बनाये रखना तथा ऐसी योजना बना कर चलना, जिसका अनुकरण करने वाले ऊँचे उठते आगे बढ़ते रहें यही है मनुष्य की नीति-मर्यादा का सार संक्षेप। इसका जो जितना परिपालन करता है वह उतना ही नीतिवान है।

इस मर्यादा को जो जितना तोड़ता है, काम के प्रति अवमानना बरतता है, सामाजिक दायित्वों की उपेक्षा करता है। कामचोरी-हरामखोरी की प्रवृत्ति एवं अहमन्यता-अन्यमनस्कता से ग्रस्त है। जिसे वासना-तृष्णा के अतिरिक्त कुछ सूझता ही नहीं जिसे संकीर्ण स्वार्थपरता से आगे की लोक मंगल के उत्तरदायित्व निभाने की बात सोचने की फुरसत ही नहीं उसे अनैतिक ही कहना चाहिए। उद्धत अपराधों की तरह संकीर्ण स्वार्थपरता भी तत्त्वदर्शियों द्वारा अनीति ही मानी गई है। अनैतिकता ने आज व्यक्तिगत रुझान एवं सामुदायिक प्रचलन में कितनी गहरी जड़ें जमाई हुई हैं यह तथ्य किसी से भी नहीं छुपा है। इसे उखाड़ने के लिए उतनी ही गहरी खुदाई करने की आवश्यकता पड़ेगी एवं उसके स्थान पर आदर्शवादी मान्यताओं की प्रतिष्ठापना करनी होगी। तभी व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में सुख समृद्धि का मार्ग प्रशस्त होगा, राष्ट्रीय चरित्र का विकास होगा।

नैतिकता मनुष्य के व्यक्तिगत आचरण का, राष्ट्रीय चरित्र का अभिन्न अंग कैसे बने? नैतिक अवमूल्यन की खाई कैसे पटे व इस संबंध में मनीषियों नीति शास्त्रियों ने अपने-अपने मत प्रकट किये हैं। “द गेन ऑफ पर्सनालिटी” नामक अपनी पुस्तक में प्रसिद्ध नीति शास्त्री डब्ल्यू .सी. लूसमोर ने लिखा है कि चिन्तन-मनन की उत्कृष्टता के बिना कोई मनुष्य अपने लिए स्थिर नैतिक सिद्धान्त का निर्धारण नहीं कर पाता और समाज की दिशाधारा के प्रवाह में बह जाता है। नैतिक सिद्धान्तों के निश्चय, निर्धारण के लिए ज्ञानार्जन अति आवश्यक है। ज्ञानार्जन के लिए व्यक्ति को चिंतनशील-विवेकशील होना चाहिए। परन्तु चिन्तन जीवन का मात्र सैद्धान्तिक पक्ष है उसका व्यावहारिक पक्ष है-श्रेष्ठ कार्यों के रूप में परिलक्षित होना। विचार मन्थन से जो सिद्धान्त निर्धारित हों उनको सत्यता की कसौटी के लिए व्यवहारिक क्षेत्र में उतारना होता है। उच्च आदर्शों एवं नैतिक सिद्धान्तों का व्यवहार में आना ही नैतिक जीवन है।

सिद्धान्तों के कार्यान्वयन के लिए क्रियाशीलता गतिशीलता नैतिक जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है। क्रिया और विचार नैतिक जीवन के व्यायाम और संगीत है। संसार के सभी महापुरुष जीवनभर क्रियाशील रहे और अनवरत श्रम साधना करते रहे हैं। कर्मठता, चरित्र निष्ठ, देश प्रेम आदि की भावना उनके जीवन में कूट-कूट कर भरी थी। व्यक्तिवादी संकीर्ण स्वार्थपरतायुक्त एकांगी चिन्तन से सर्वथा ऊँचे उठकर समाज के लोगों से सहानुभूति रखने और उन्हें अपने उत्कृष्ट विचारों एवं श्रेष्ठ व्यवहारों से निरन्तर ऊँचा उठाने का प्रयास करने वाले महामानव ही अपने नैतिक जीवन और आदर्श चरित्र को चरितार्थ करते हैं।

प्रसिद्ध दार्शनिक इमेनुअल काण्ट ने नैतिकता का आधार अन्तः अनुभूति को माना है और इसे ‘अनिवार्य आज्ञा’ की संज्ञा दी है। यह व्यक्ति को उसकी अन्तरात्मा से प्राप्त होती है। अपनी पुस्तक “दि क्रिटिक आफ प्योर रीजन “ में उन्होंने लिखा है कि प्रत्येक व्यक्ति में सदाचरण के लिए तार्किक विचारों से नहीं, वरन् उसके अन्तस्तल से प्रेरणा मिलती है। त्याग-बलिदान के लिए भाव संवेदनाएँ अन्दर से उछलती हैं। मानव स्वभाव दो प्रकार के तत्वों से विनिर्मित है- एक स्वार्थ प्रधान रागात्मक, दूसरा विवेक परक, जो व्यक्ति को नैतिक एवं परमार्थी बनाता है। स्वार्थ प्रधान रागात्मक वृत्ति मनुष्य को विषय-भोगों की ओर ले जाती है, जो अनैतिक आचरण को जन्म देती है। विवेकात्मक तत्व न्यायप्रियता एवं आत्मविकास की ओर अग्रसर करता है। वस्तुतः अन्तरात्मा की ‘अनिवार्य आज्ञा’ अथवा ‘विवेक’ ही मनुष्य की नैतिक उन्नति कराता है। यही वह तत्व है जिससे अनुप्राणित होकर मनुष्य त्याग बलिदान भरे उच्चस्तरीय उदाहरण प्रस्तुत करता और न्याय रक्षा के लिए निजी स्वार्थ न होने पर भी कष्ट झेलने का साहस करता देखा गया है। अन्तरात्मा ही मनुष्य में विराजमान् परमात्मा का प्रतीक प्रतिनिधि है। नैतिक आचरण से उत्पन्न प्रखर मनोबल एवं संकल्प शक्ति के सहारे ही उसकी अनुभूति की जा सकती है। दार्शनिक काण्ट ने वैयक्तिक एवं सामुदायिक जीवन में नैतिक नियमों का, नीति मर्यादाओं का, पालन अनिवार्य माना है। उनके अनुसार नैतिक नियमों में तीन प्रकार की विशेषताएँ है-(1) स्वतंत्र इच्छा शक्ति जो अन्तरात्मा की आवाज पर निर्भर है (2) सभी के लिए समान रूप से उपयोगी सबके द्वारा आचरण में लाने योग्य व्यापक दर्शन एवं (3) मानव मात्र के हित का लक्ष्य। महानता इसी आधार पर अर्जित की जाती है। नैतिक नियमों का निर्धारण विवेकशीलता के आधार पर ही कर सकना संभव होता है उचित-अनुचित नीति-अनीति सत् असत् धर्म-अधर्म आदि का निर्णय कर सकना इसी आधार पर संभव होता है।

प्रायः व्यक्ति की अन्तरात्मा यही प्रेरणा देती है कि वह मात्र अपने हित के लिए ही नहीं, वरन् मानव मात्र के कल्याण के लिए कार्य करे। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए सबसे प्रथम और बड़ी नैतिकता वही है, जिससे लोक-कल्याण और लोकमंगल सधे। बुद्ध, गाँधी, विवेकानन्द एवं अन्य भारतीय ऋषियों ने इसी को सर्वोत्तम नैतिक नियम बताया है और कहा है कि महानता का राजमार्ग यही है। इंग्लैण्ड के प्रख्यात नीतिशास्त्री ब्रेडले के शब्दों में-मनुष्य अपने उदात्त व्यक्तित्व को समाज में जितना अधिक घुला-मिला लेता है, उतना ही अधिक उसको नैतिक रूप से विकसित मानना चाहिए।” यथार्थ में सामाजिक एवं राष्ट्रीय हित से पृथक् मनुष्य की नैतिकता का मूल्य एवं उपयोगिता नगण्य है।


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