वसंत पर्व पर विशेष - - गुरुतत्त्व की गरिमा एवं समर्पण की महत्ता

February 1992

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मानवी सत्त असीम सामर्थ्यों से युक्त है। संभावनाएँ अनन्त हैं, पर जब तक यह आत्मबोध न हो जाय, अन्तःशक्ति सम्पन्नता का लाभ मनुष्य को नहीं मिल पाता। अन्तः क्षेत्र में प्रतिष्ठित हुई दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्ति का समन्वय कुसंस्कार ही वह परत है जो न साधना को सिद्ध होने देती है और न उस निमित्त श्रद्धा जमने-मन लगने देती है। कुसंस्कार ही हैं जो यमदूतों की तरह पग-पग पर त्रास देते रहते हैं, व्यक्तित्व को हेय बनाते हैं। आत्मबल सम्पन्न गुरु का वरण इसीलिये किया जाता है। अपने आत्मबल द्वारा वह शिष्य में ऐसी प्रेरणाएँ भरते हैं जिससे वह सदमार्ग पर चल सके। साधनामार्ग के अवरोधों एवं विक्षोभों के निवारण में गुरु का असाधारण योगदान होता है वह शिष्य को अन्तः शक्ति से परिचित ही नहीं कराते, वरन् उसे जाग्रत एवं विकसित करने के हर संभव उपाय बताते और प्रयास करते हैं। उनके यह अनुदान शिष्य अपनी आँतरिक श्रद्धा के रूप में उठाता है। जिस शिष्य में आदर्शों एवं सिद्धान्तों के प्रति जितनी अधिक निष्ठ होगी, वह गुरु के अनुदानों से उतना ही अधिक लाभान्वित होगा।

आत्मचेतना के उत्कर्ष में सहयोग देने एवं पूर्णता प्राप्ति की दिशा में अग्रसर करने के कारण गुरु की महान महिमा महत्ता से समूचा आर्ष वांग्मय भरा पड़ा है। “जिन सद्गुरु ने मुझे इस संसार सागर से पार उतार, वे मेरे अंतःकरण में विराजमान् हैं। इसी कारण विवेक के प्रति मेरे मन में विशेष अति आदर है। जिस प्रकार नेत्रों में अंजन लगाने से दृष्टि को अपूर्व बल प्राप्त होता है और तब मनुष्य भूमि के अन्दर दबी पड़ी महानिधियों को देखने में सक्षम होता है, अथवा जिस प्रकार चिंतामणि हाथ में आने पर सभी प्रकार के मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं, उसी प्रकार मैं ज्ञानदेव कहता हूँ कि गुरुदेव श्री निवृत्तिनाथ जी की कृपा से मैं पूर्णकाम हो गया हूँ। इसीलिये कहता हूँ कि गुरु भक्ति करनी चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार वृक्ष की जड़ में पानी सींचने से शाखायें और पल्लव अपने आप हरे हो जाते हैं अथवा जिस प्रकार अमृत-रस का पान करने से समस्त रसों का आनन्द मिल जाता है, उसी प्रकार सद्गुरु वरण से साधक के समस्त इष्ट मनोरथ सिद्ध होते हैं।”

गुरु का अर्थ है अंधकार से प्रकाश की ओर, असत् से सत् की ओर ले जाने वाला मार्गदर्शक। स्कन्दपुराण-गुरुगीता प्रकरण में गुरु शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है।

गुकारस्त्वन्धकारः स्याद् रुकारस्तेत उच्यते। अज्ञान ग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः॥

अर्थात् ‘गु’ शब्द का अर्थ है-अंधकार और ‘र’ का अर्थ है-तेज अज्ञान का नाश करने वाला तेज रूप ब्रह्म गुरु ही है, इसमें संशय नहीं। उपनिषद् आदि ग्रन्थों में धर्मशास्त्रों में गुरु गरिमा का वर्णन करते हुए गुरु को अज्ञान से छुड़ाने वाला, मुक्ति प्रदाता, सन्मार्ग एवं श्रेय पथ की ओर ले जाने वाला पथ-प्रदर्शक बताया गया है। गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर है। वही परब्रह्म है। गुरुकृपा के अभाव में साधना की सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी।

विभिन्न शास्त्रों में सद्गुरु की महिमा-महत्ता असाधारण बताई गयी है। गुरुवरण की परम्परा वैदिककाल से लेकर अद्यावधि चलती रही है। जैन और बौद्धों ने हिन्दुओं की तरह गुरु परम्परा को भी स्वीकार किया। अद्वैतवादियों एवं बौद्ध मार्ग के अनुयायियों का कहना है कि मनुष्य को अपने आप पर निर्भर होना होगा, कोई दूसरा सहायता नहीं कर सकता। परन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि विशुद्ध अद्वैतवादी भी वास्तव में गुरु पर निर्भर करते हैं और बौद्धधर्म का प्रधान मंत्र तो बुद्ध के शरणागत होने पर जोर देता है। दूसरे साधना मार्गों के लिए-विशेषकर उन मार्गों के लिए जो गीता की तरह भगवान के सनातन अंश के रूप में व्यक्तिगत जीवन के सत्य को स्वीकार करते हैं अथवा जो यह विश्वास करते हैं कि भगवान और भक्त दोनों सत्य हैं, गुरु की सहायता पर उसे एक अनिवार्य साधन समझकर निर्भर किया गया है, ऐसा महर्षि अरविन्द का मत है।

प्राचीनकाल में भारतीय परम्परा में गुरु प्रायः ब्राह्मण हुआ करते थे। मनु एवं चाणक्य ने उन्हें ही गुरु पद प्रदान किया है जो ब्राह्मण हों। ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्मपरायण एक ऐसी सत्त जो उत्कृष्टताओं का, सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय हो। जिसके पदचिह्नों पर चलकर, जिसके द्वारा प्रदत्त मार्गदर्शन को अपनाकर साधक या शिष्य अपना जीवन भी वैसा ही बना सके। ब्राह्मण परम्परा में इस प्रकार के सद्गुरु प्रायः गृहस्थ ही हुआ करते थे। गौतम, भारद्वाज, वशिष्ठ, अत्रि आदि सप्तऋषियों से लेकर मध्यकाल एवं आधुनिक काल तक यह परंपरा अनवरत रूप से चली आई है। यद्यपि इस वर्ग में वानप्रस्थियों एवं संन्यासियों का भी अभाव न था। जैन और बौद्ध गुरु तो सभी संन्यासी थे। यद्यपि बुद्ध के सभी प्रमुख शिष्य प्रव्रज्या धर्म अपनाने से पूर्व ब्राह्मण थे, जैसे-सारिपुत्र मौदगलायन, पुष्कर, कश्यप आदि। इसी परम्परा में आगे नागार्जुन और अश्वघोष आदि हुए। मध्यकाल में गुरु को भगवान के समतुल्य माना जाता था। कारण था उनका उत्कृष्ट आदर्श चरित्र, उच्चस्तरीय व्यक्तित्व एवं परमार्थपरायण जीवन।

मनुस्मृति 2/142 में उल्लेख है कि यह गुरु ही है जो शिष्यों में सुसंस्कार डालता और आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर करता है। उनके चरित्र और समग्र व्यक्तित्व का निर्माण करता है। चेतना का स्तर ऊँचा उठाने और प्रतिभा, प्रखरता को आगे बढ़ाने की आवश्यकता गुरुवरण से ही पूरी होती है। गुरु केवल मार्गदर्शन ही नहीं करते, वरन् अपनी तपश्चर्या, पुण्य सम्पदा एवं प्राणऊर्जा का एक अंश देकर शिष्य की पात्रता और क्षमता बढ़ाने में योगदान करते हैं। वह समय की दीर्घा को भी कम करते हैं और उसे बहुत ही कम समय में अभीष्ट लाभ की सिद्धि में सहायक होते हैं। अंतःप्रज्ञा को जाग्रत करने एवं पूर्णता प्राप्ति के लक्ष्य तक पहुँचाने में सतगुरु की असाधारण भूमिका होती है। श्रेय पथ के निर्धारण के साथ ही असमंजसों का द्विविधाओं का निराकरण वही करते हैं। आत्मिक क्षेत्र का परिशोधन-परिष्कार कर सकने वाली गुरु गरिमा की जितनी महिमा गायी जाय, कम है।

महर्षि अरविन्द का कहना है कि सच्चे सद्गुरु भगवान की प्रतिमूर्ति हैं। जब भगवान को पथ प्रदर्शक के रूप में स्वीकार किया जाता है तब उन्हें गुरु रूप में स्वीकार किया जाता है। श्रद्धा-विश्वास की प्रगाढ़ता ही मनुष्य का सही पथ-प्रदर्शन करती और पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाती है। अपने बारे में उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि-मैं अपने आँतरिक जीवन की ओर अपने पहले निर्णायक मोड़ के लिए एक ऐसे व्यक्ति का ऋणी हूँ जो बुद्धि, शिक्षा और क्षमता में मुझसे कम थे और किसी भी प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण और श्रेष्ठ नहीं थे। परन्तु जब मैंने उनके पीछे एक शक्ति देखी और सहायता के लिए उनकी ओर मुड़ने का निर्णय किया तो मैंने संपूर्णतः अपने को उनके हाथों में छोड़ दिया और सहज स्वाभाविक निष्क्रियता के साथ उनके मार्गदर्शन का अनुसरण किया।” इस समर्पण से वे स्वयं आश्चर्यचकित थे। “इसका परिणाम हुआ कि अनेकानेक मौलिक प्रकार के रूपांतरकारी अनुभवों का ताँता बँध गया मुझ से कहा गया कि मैं भविष्य में समर्पण भाव की उसी पूर्णता के साथ अपने आपको अन्तस्थ गुरु के हाथों छोड़ दूँ जिस पूर्णता के साथ मैंने मानव प्रणाली के हाथों छोड़ा था।” आत्मिक प्रगति के लिए समर्पण वस्तुतः प्रधान तत्व है।

श्रेष्ठ गुरु के प्रति समर्पण सभी प्रकार के समर्पणों से श्रेष्ठ है। क्योंकि इसके द्वारा मनुष्य केवल निराकार को ही नहीं, वरन् साकार को, केवल अपने अन्दर विद्यमान भगवान को ही नहीं, बाहर विद्यमान विराट परमात्म चेतना को समर्पण करता है। इससे साधक को अपने आत्मा में पीछे हटकर ही नहीं जहाँ कि अहंभाव बैठा है, वरन् अपनी व्यक्तिगत प्रकृति में भी जहाँ कि वह शासन करता है, अहं का अतिक्रमण करने का सुयोग प्राप्त होता है। वह समग्र भगवान के प्रति गीतोक्तक्त “समग्रं माम् मानुषी तनुँ आश्रितम्” के प्रति भी पूर्ण समर्पण के संकल्प कर चिन्ह है। यथार्थ आध्यात्मिक समर्पण तभी संभव हो पाता है जब गुरु को सब भावों परात्पर, निर्व्यक्तिक, सव्यक्तिक में स्वीकार किया जाय। गुरु-शिष्य का गठबंधन वह श्रेष्ठतम गठबंधन है जिसके द्वारा मनुष्य भगवान से जुड़ता और सम्बन्ध स्थापित करता है। गुरु या भगवत्कृपा दोनों एक ही हैं और यह तभी चिरस्थायी बनती हैं जब शिष्य कृपा प्राप्ति की स्थिति में हो। श्रद्धासिक्त समर्पण ही इसका मूल है। इस रहस्य को समझने के लिए शास्त्रकारों ने प्रबल प्रयत्न किये हैं। यहाँ तक कि गुरु को गोविन्द से बढ़कर बताया है। उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, महेश की उपमा दी है और उनकी कृपा को मुक्ति का कारण बताया है।

बौद्ध ग्रन्थ “विशुद्धि मग्ग“ 17-119 में कहा गया है कि - “जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति हाथ पकड़ कर ले जाने वाले व्यक्ति के अभाव में कभी सही मार्ग से जाता है तो कभी कुमार्ग से। उसी प्रकार संसार में संचरण करते हुए अज्ञानी मनुष्य पथ-प्रदर्शक सद्गुरु के अभाव में कभी पुण्य करता है तो कभी पाप। गुरु गरिमा से जुड़कर ही वस्तुतः मनुष्य द्विजत्व धारण करता है और सामान्य मानव से ऊँचा उठकर महामानव, देवमानव बनता है।”

गुरुतत्त्व के सान्निध्य-अवलम्बन से कितने ही सामान्य व्यक्तियों को असाधारण महापुरुषों की श्रेणी में जा पहुँचने का अवसर मिला है, इन प्रसंगों से पुराण, इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं महात्मा बुद्ध के अनुग्रह से अनाथ पिण्डक, विशाखा, गौतमी, आनन्द बिंबिसार, अशोक, हर्षवर्धन, कुमारजीव, नागार्जुन जैसे कितने ही महानता के उच्च शिखर पर पहुँच गये। अंगुलिमाल, अंबपाली जैसे कितने ही दलित मानव कायाकल्प कर महामानव बन गये। ईसा का सान्निध्य पाकर एण्ड्रयू, पीटर, जेम्स, जॉन, मैथ्यू, साइमन, सेंटपाल जैसे नगण्य से व्यक्तित्व ईसाई धर्म के महान प्रकाश स्तम्भ बन गये। आद्यशंकराचार्य से जुड़ने पर पद्यपाद, हस्तामलक, भारती, मण्डनमिश्र जैसे व्यक्तित्व कहाँ से कहाँ जा पहुँचे, इतिहासवेत्ता इसे भली-भाँति जानते हैं। समर्थ एवं शिवाजी, प्राणनाथ और छत्रसाल, चाणक्य और चन्द्रगुप्त, चैतन्यदेव एवं जगाई-मधाई रामकृष्ण-विवेकानन्द तथा विरजानन्द एवं दयानन्द आदि की आत्मिक घनिष्ठता यदि न बन पड़ी होती, तो यह सहज की अनुमान लगाया जा सकता है कि कौन सा पक्ष घाटे में रहता। बेल, वृक्ष से लिपटकर, नाला गंगा में मिलकर, बूँद समुद्र में घुलकर क्या से क्या हो जाते हैं, इस तथ्य को प्रायः सभी जानते हैं। शिष्य का गुरु के प्रति श्रद्धा व समर्पण भाव उसे आत्मिक प्रगति के पथ पर तो प्रशस्त करता ही है, दैवी अनुदानों की वर्षा भी होने लगती है।

गुरु वरण का श्रद्धासिक्त अभ्यास ही अध्यात्म क्षेत्र में आगे बढ़ने का प्रथम सोपान है। जो गुरुतत्त्व के प्रति जितनी श्रद्धा जिस मात्रा में जगा सका, समझना चाहिए, उसके लिए आत्मिक विभूतियाँ उपलब्ध करने का स्वनिर्मित राजमार्ग मिल गया। मार्गदर्शक सत्ता गुरु ही है जो साधना संग्राम में शिष्य की सहायता करते और कृष्ण की तरह अर्जुन को महाभारत लड़ने को आग्रह करते हैं। जब वह तैयार हो जाता है, समग्र रूप से समर्पण कर देता है, तो वह उसका रथ चलाने, घोड़ा हाँकने, रास्ता बताने और विजय दिलाने के लिए वचनबद्ध हो जाते हैं। इसके लिए साधक को ही अग्रगामी बनना पड़ता है। गाण्डीव उठाने और “करिष्ये वचनं तव” का संकल्प लेने के उपरान्त ही सामान्य सा पाण्डु पुत्र भगवान का अनन्य सहचर अर्जुन बनता है। यही है गुरु के अनुदानों से लाभान्वित होने और साधना से सिद्धि की पृष्ठभूमि । चरित्र की उत्कृष्टता एवं व्यक्तित्व की समग्रता ही गुरु अनुग्रह की वास्तविक उपलब्धि है। यह जिस भी साधक में जितनी अधिक मात्रा में दीख पड़े, समझा जाना चाहिए गुरु की उतनी ही अधिक कृपा बरसी, अनुदान-वरदान मिला। स्पष्ट है कि मानव जीवन के सर्वांगीण विकास हेतु गुरुतत्त्व कितना जरूरी है। शास्त्रों में उल्लेख है कि-यदि कोई सद्गुरु न मिले तो आत्मतत्त्व को गुरु मानकर उसके माध्यम से अपनी समीक्षा करनी चाहिए व मार्गदर्शन लेना चाहिए।” प्रस्तुत वसन्तपर्व जो इस माह की 8 तारीख को आ रहा है, हमें सद्गुरु के प्रति समर्पण का स्मरण कराता है। यह परमपूज्य गुरुदेव का आध्यात्मिक जन्मदिवस माना जाता है व मिशन का वार्षिकोत्सव मनाया जाने वाला पर्व है। हर्ष व उल्लास के प्रतीक के साथ यह द्योतक है समर्पण की श्रेष्ठतम परिणति के । वही अनुदान जो हमारी गुरुसत्ता ने आजीवन पाए, हर सुपात्र के लिए सुगमतापूर्वक सुलभ हैं।


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