कौन सा त्याग श्रेष्ठ

February 1992

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शुद्धोधन का बनवाया हुआ राजप्रासाद सूना पड़ा अपनी नीरवता पर शोकमग्न दीख पड़ता था। युवराज सिद्धार्थ के चक्रवर्ती सम्राट अथवा महायोगी होने की भविष्यवाणी सुनकर महाराज ने अपने एक मात्र पुत्र को राज्याधिकारी घोषित कर महल को सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं से पाट दिया था। ऋतु अनुकूल राग-रंग साज सज्जा और आमोद-प्रमोद के किसी साधन की कमी न थी।

परन्तु फिर भी सिद्धार्थ ने सब-कुछ विलास के साधनों को तिलाञ्जलि देकर भिक्षु वेश धारण किया। आज शुद्धोधन शोकाकुल थे। जिस पुत्र से सिंहासन पर बैठकर राज संचालन की अपेक्षा की थी, वही सुबह से कपिलवस्तु में घर-घर भिक्षाटन कर रहा था।

नियमानुसार भिक्षाटन के लिए अमिताभ गौतम शुद्धोधन के गृह द्वार पर भी आए। खेद-पूर्वक पिता ने कहा-क्या यही हमारे कुल की परिपाटी है। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है सिद्धार्थ तुम इस वेश का त्याग कर दो।”

“राजन् यह आपके कुल की नहीं, बुद्ध कुल की परिपाटी है। मैं अब राज-परिवार का सदस्य नहीं आत्मकल्याण और लोक मंगल की साधना में लगे भिक्षु संघ का परिजन हूँ।”

“तो भिक्षु ! क्या तुम मेरा आतिथ्य स्वीकार करोगे।” ‘हाँ’ बुद्ध ने कहा-अपने भिक्षु संघ सहित मैं मध्याह्न पुनः आऊँगा।” इतना कह वे चले गए।

स्वागत सत्कार की बड़ी जोर-शोर से तैयारियाँ की गई। विश्व मानव की सेवा साधना में निरत साधक का आतिथ्य करने के लिए सारा महल और सभा-कक्ष विशेष रूप से सजाया गया।

पति के चिर वियोग का विषपान किए निराश और विह्वल यशोधरा को भी तथागत के आगमन का समाचार मिला तो हृदय प्रसन्नता से छलक उठा। सामीप्य नहीं तो क्या? लोक कल्याण के लिए उन्होंने मेरा त्याग भले ही कर दिया हो? अर्धांगिनी के रूप में न सही एक मानव पुत्री जीवित प्राण के रूप में तो मैं अभी भी उनकी प्रिया पात्र हूँ।

तथागत ने माता-पिता पत्नी, पुत्र, भ्राता-भगिनी की संकीर्ण परिधि को तोड़कर समूचे विश्व तक अपना आत्म-भाव विस्तृत कर लिया है। पति रूप में उन्हें पाकर तो धन्य थी ही। आज उनके मार्ग से हटकर उनकी साधना का मार्ग निष्कंटक किया तो और भी धन्य हूँ।

भगवान पधारे। वस्तुतः तथागत ने यशोधरा के त्याग को उपेक्षित नहीं किया था। वे उसके पास आए। अनायास वाणी प्रस्फुटित हुई “यशोधरे ! कुशल तो हो।”

“हाँ स्वामी !” चिर प्रतीक्षित अपने आराध्य को खड़ा देख हृदय गदगद हो उठा।

“स्वामी नहीं भिक्षु। मैं अपना धर्म निभाने आया हूँ। बोलो तुम कुछ भिक्षा दे सकोगी।”

यशोधरा विचारमग्न हो गई। अब क्या बचा है देने के लिए? अपने दाम्पत्य सुख और मिलन के क्षणों की स्मृति को छोड़कर क्या शेष है। परन्तु तत्क्षण ही उसके चेहरे पर निश्चय के भाव उभरे।

अपने पुत्र राहुल को पुकारा और तथागत की ओर उन्मुख होकर कहा “भन्ते। अपने पूर्व सम्बन्धों को ही दृष्टिगत रखकर आप भी कुछ प्रतिदान दे सकेंगे।”

“कहो” “तो राहुल को अपनी पितृ परम्परा निभाने देकर उसे अपना अधिकार पाने दीजिए।” जाओ राहुल बुद्ध की शरण में धर्म की संघ की शरण में जाओ। राहुल के साथ सभी के समवेत स्वरों से आकाश गूँज उठा-बुद्धं शरणं गच्छामि...। वह महीयसी अपने महात्याग का एक और परिचय देकर पीछे मुड़ चुकी थी।

बुद्ध का त्याग अधिक श्रेष्ठ था या यशोधरा का राहुल का त्याग, किन्तु भारतीय संस्कृति का गौरव अक्षुण्ण रखने वाली नारी शक्ति ने पुनः अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया।


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