तुच्छ गहनों की रख वाली (Kahani)

February 1992

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पर्यवक भी शिक्षा बहुत उच्चकोटि की थी । वे ग्राम्य जीवन की अनेक समस्याओं की विशेषज्ञ भी थीं । उनकी विद्वता की धाक थी । चाहती तो कोई भी काम प्राप्त कर सकती और अच्छा वेतन कमा सकती थीं ।

पर उनसे ग्राम्य जीवन की समस्याओं को सुलझाना ही अपना लक्ष्य बनाया । वे देहात में एक छोटे खेत पर झोंपड़ी बनाकर आजीवन रहीं । ग्राम्य समस्याओं पर उनने प्रायः अस्सी पुस्तकें लिखी । वे उन विचारों का प्रचार करने ग्रामीणों के बीच जाया भी करती थीं चित्त को डुलाये बिना उनने अपना 75 वर्ष का पूरा जीवन इसी निमित्त लगा दिया । इन्हें एक मिशनरी के रूप में ही स्मरण किया जाता है ।

रामकृष्ण परमहंस के शिष्य मथुरा बाबू ने एक मन्दिर बनाया और उसमें विष्णु भगवान की मूर्ति स्थापित करा दी गई । मूर्ति बड़ी लुभावनी थी । वस्त्राभूषण से साज संवार की गई थी । कुछ ही दिन बीते होंगे कि चोर मूर्ति के कीमती आभूषणों को चुरा ले गये । प्रतिमा अब उतनी आकर्षक नहीं लगती थी । मथुरा बाबू उदास होकर बोले कि भगवान् आपके हाथ में गदा और चक्र दो-दो हथियार लगे रहे फिर भी-चोर चोरी कर ले गये । इससे तो हम मनुष्य अच्छे । कुछ तो प्रतिरोध करते ही है । पास खड़े रामकृष्ण भी यह वार्तालाप सुन रहे थे । वे बोले पड़े- “मथुरा बाबू ! भगवान को गहनों और जेवरों का तुम्हारी तरह लोभ और मोह नहीं है और फिर उनकी भण्डार में कमी किस बात की है जो रात भर जागते और तुच्छ गहनों की रख वाली करते । “


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