घट-घटवासी उस परमसत्ता के प्रति निष्ठ

February 1992

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ईश्वर निष्ठ का प्रत्यक्ष स्वरूप तो पूजा अर्चा है, पर उसका दार्शनिक रूप यह है कि ईश्वर की सत्ता पर पूर्ण विश्वास किया जाय । उसकी नियम व्यवस्था को अटूट एवं अकाट्य माना जाय । उसका सर्वव्यापी और न्यायनिष्ठ होना यदि हमारी भावनाओं की गहराई तक पहुँच सके तो उसका परिणाम यह होगा कि कोई स्वेच्छाचार अनाचार न बरत सकेगा । इससे यह विश्वास बना रहेगा कि सत्कर्मों का सत्परिणाम और दुष्कर्मों का दुःखद प्रतिफल मिल कर रहेगा ।

किसान और माली जानते हैं कि जो बोया जाता है सो काटा जाता है । करनी अपना प्रतिफल देकर रहती है । लोगों की आस्था प्रायः इसलिए डगमगा मिलता । उसमें विलम्ब हो जाता है । अधीर व्यक्ति समझने लगते हैं कि यह तो अबूझ राजा की अँधेर नगरी है । कर्मफल से विश्वास उठ जाने का यही कारण है कि लोग अनाचार में प्रवृत्त होते, कुकर्म करते पाए जाते हैं । यदि यह विश्वास दृढ़तर हो कि नियन्ता विधान सुनिश्चित है तो लोग पाप करम करते हुए डरें । पुण्य के सत्परिणामों को समझें, सन्मार्ग पर चलें और पुण्य परमार्थ की दिशा अपनाएँ । क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न होने में कुछ देर अवश्य लगती है । खाया हुआ अन्न का रक्त बनने में कुछ समय लगता है । किसान की कोई फसल पकने में कई महीने लगते हैं । आज का जमाया दूध कल दही बनता है । बरगद के अंकुर की सामर्थ्य वृक्ष बनने में लम्बा समय लग जाता है । इतने पर भी कोई अविश्वास नहीं करता कि जो किया है उसका प्रतिफल न मिलेगा । यदि ऐसा होता तो कोई भी किसान कृषि न करता कोई माली बगीचा न लगता , कोई विद्यार्थी कालेज की पढ़ाई तक पढ़ने में न लगा रहता क्योंकि इन कृत्यों का तत्काल फल तो मिलता नहीं । उनकी परिणति उत्पन्न होने में देर लग जाती है ।

इस अधीरताजन्य अंधविश्वास को दूर करने के लिए ईश्वर की न्यायशीलता पर गहरा विश्वास होना आवश्यक है । जीवन , मरने के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता । वह बाद में भी विद्यमान रहता है ।कर्मफल परलोक में भी भुगते जा सकते हैं और पुनर्जन्म के रूप में भी । इसलिए ईश्वर की सर्वव्यापकता न्यायनिष्ठ , कर्मफल प्रक्रिया तीनों ही ऐसे हैं, जिन्हें हर आस्तिक को मानना चाहिए । मानना ही नहीं उन पर विश्वास भी करना चाहिए । इतने भर से व्यक्ति के निजी जीवन में तथा समाज की सत्परम्पराओं में नीति और न्याय का प्रचलन बना रहता है । इसके फलस्वरूप यह हो सकता है कि लोग कुकर्मों से डरें और सन्मार्ग पर चलने में ही अपना हित अनुभव करें ।

एक अनर्थमूलक मान्यता ईश्वर के संबंध में यह बन चली है कि जो उसका स्तवन करता है , पूजा के साथ-साथ भोग-प्रसाद अर्पण करता है उससे ईश्वर प्रसन्न होता है और उसकी मनोकामनाएँ पूर्ण करता है । यह एक प्रकार से ईश्वर को बदनाम करना है । उसे प्रशंसा की मनुहार और भेंट पूजा के उपहारों से अहंकारियों, रिश्वतखोरों की तरह प्रसन्न किया जा सकता है तथा प्रलोभनों और दबावों के आधार पर उसे कठपुतली की तरह नचाया जा सकता है, इन दिनों ऐसे ही प्रशंसा के भूखे और उपहारों के प्यासे भगवानों का बोल बाला है इस मान्यता से तो लोग और भी अधिक ढीठ बनते हैं । सोचते हैं देव दर्शन करने भर से भोगों से निवृत्ति मिल सकती है और छुटपुट कर्म काण्डों के बल बूते स्वर्ग में रहने के लिए स्थान निश्चित कराया जा सकता है । पर वस्तुतः ईश्वर ऐसा तुच्छ नहीं कि कोई भी कार्यकुशल व्यक्ति उसे अपनी उँगलियों पर नचा सके ।

गुप्त रूप से किए गए कार्य , चिन्तन क्षेत्र में विचरण करने वाले संकल्प भी , परमेश्वर से छिपे नहीं रहते । घट-घटवासी सब जानता है । बाहर के लोगों को तो किसी चतुरता के सहारे धोखे में रखा जा सकता है । वस्तु स्थिति उनसे छिपाई जा सकती है ।सरकार की, समाज की, दण्ड व्यवस्था से तो बचा भी जा सकता है पर जो घट-घट का वासी है सर्वत्र समाया हुआ । है उसकी जानकारी में सब कुछ है । ऐसी दशा में यह कैसे संभव हो सकेगा कि गुप्त कुकर्मों या अज्ञात विचारों की हीनता उसकी दृष्टि से बची रहे और उस प्रमाद के घपले में अपने पाप कर्मों को गया-आया कर सके या पाप चुकाते हो जायें ।

ईश्वर मान्यता से व्यक्तिगत चरित्र को पवित्र बनाया जाता है, साथ ही समाज में भी सुव्यवस्था बनी रहती है । चरित्रनिष्ठ और समाज निष्ठ के उभय पक्षीय सत्परिणाम व्यापक रूप से मिलते रह सकते हैं । उसका इतना लाभ मिल सकता है जिसे देखते हुए शासकीय दण्ड व्यवस्था भी हलकी पड़ती है जो शक का प्रमाण मिलने पर ही किसी को अपराधी ठहराती और दण्ड व्यवस्था करती है । पर ईश्वर की नजर तो सर्वत्र है । उससे किसी के कार्य और विचार छिपे नहीं रहते । साथ ही उसकी परिवार व्यवस्था में भी किसी के साथ राग द्वेष बरते जाने की गुँजाइश नहीं है । इसी रूप में ईश्वर पर विश्वास किया जा सके तो व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत-सुव्यवस्थित रखे जाने के समस्त अवरोध दूर हो सकते हैं ।

स्वर्ग और नरक की, मरणोत्तर जीवन में कर्मों का प्रतिफल मिलने की, पुनर्जन्म वर्तमान के कृत्यों के अनुरूप मिलने की आस्था को जितना सुनिश्चित और जितना परिपक्व बनाया जा सकेगा , उसी सीमा तक सर्व साधारण को नीतिवान-चरित्रवान बनाया जा सकेगा यह सर्व साधारण के लिए इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि उस आधार पर विश्व शान्ति के लिए सार्वजनीन सुख शान्ति और प्रगति के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है । भूतकाल में जिस प्रकार आस्तिकता ने भारत भूमि को स्वर्गादपि गरीयसी बनाया था, उसकी पुनरावृत्ति फिर से हो सकती है , यदि ईश्वर का वास्तविक स्वरूप और उसका अनुशासन सर्वसाधारण के अन्तराल में गहराई तक जमाया जा सकें ।

ईश्वर ने मनुष्य जीवन अपने कोष के सर्वोपरि उपहार के रूप में प्रदान किया है । इस अनुग्रह के साथ-साथ उसने यह भी आशा की है कि इस अनुदान का उपयोग मात्र सत्प्रयोजनों में किया जाएगा । सत्प्रयोजन मुख्यतः दो गिनाए गए है , एक आत्मोत्कर्ष-दूसरा लोकमंगल । आत्मोत्कर्ष का प्रमुख साधन है संयम । संयमों , में इन्द्रिय, संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम , इन चारों की गणना होती है । लोग मंगल में संसार की समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने की प्रक्रिया आती है । इन्हीं दोनों को पुण्य परमार्थ भी कहा गया है । ईश्वर भक्ति इसी भक्ति इसी ढाँचे में अपने को ढालने से बन पड़ती है । इसी पर उसकी प्रसन्नता एवं अनुकम्पा अवलम्बित है । मनुष्य पद से ऊँचा उठ कर महामानव , देवात्मा, अवतार स्तर तक मनुष्य अपने स्तर के अनुरूप प्रगति कर सकता है ।

उपासना का उद्देश्य परमात्मा और आत्मा की पारस्परिक एकता और आदान-प्रदान की व्यवस्था का स्मरण करना हैं । स्मरण का प्रयोजन है तथ्य को निरन्तर हृदयंगम करते रहना और जीवन के सभी पक्षों को उच्चतर बनाते चलना, सभी गतिविधियों को उत्कृष्टतम बनाकर रहना ।

जीवन को अवांछनीयताओं से बचाए रहना और औचित्य की अधिकाधिक अवधारणा करना, यही है ईश्वर की उपलब्धि एवं समीपता का सुनिश्चित सोपान। माता बच्चे को तभी गोदी में उठाती है जब उसे मलमूत्र से सना होने पर नहला धुला कर स्वच्छ कर लेती है । मलीनता से सने होने पर उसे तब दूर ही रखती है जब तक उसकी स्वच्छता ठीक प्रकार संभव नहीं हो जाती । पवित्रता और प्रामाणिकता ही वे आधार हैं ,जिन्हें अपनाकर ईश्वर तक पहुँचा जा सकता है । जीव

की तुच्छता ब्रह्म की महानता के साथ समाहित होकर तद्नुरूप बन जाती है । इसी को ब्राह्मी स्थिति कहते हैं ।

एक-एक दिन को आदर्श बनाकर सम्पूर्ण जीवन को आदर्शमय बनाया जा सकता है । एक एक कदम बढ़ाने पर ही लम्बी मंजिल पूरी होती है । प्रातः सोकर उठते ही यह भावना करनी चाहिए कि आज एक दिन का नया जन्म मिला । इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करना है । रात्रि को इस एक दिन का लेखा जोखा लिया जाय कि उसमें क्या अच्छा बन पड़ा और क्या कमी रही ।

इस समीक्षा के आधार पर दूसरे दिन का अधिक सतर्क कार्यक्रम बनाया जाय । उपासना का यह सर्वसुलभ मार्ग है । इसके अतिरिक्त भगवान के साथ आत्म संबंध को प्रगाढ़ बनाने के लिए नित्य प्रति स्मरण भी करना चाहिए । प्रातः स्मरण के अपने-अपने अनेक ढंग के अनेक विधि-विधान एवं क्रियाकलाप हैं । जिनका आशय अपनी प्रकृति के अनुरूप भिन्न-भिन्न रूपों में लिया जा सकते हैं ।


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