मानवी तत्त्वदर्शन का शिलान्यास हो

February 1992

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एक ही कैमरे से एक ही वस्तु के अनेक कोणों से फोटो खींचे जाय, तो वे सभी एक-दूसरे से भिन्न होंगे । किसी में पीठ आएगी, तो किसी में चेहरा, किसी में बगल । इनमें से जो जिसे पसन्द करेगा, वह उसे अंगीकार करेगा । धर्म के सम्बन्ध में यही बात है । उसका सही स्वरूप अध्यात्म है । इसी को उत्कृष्ट दृष्टिकोण कहते हैं । इस आधार पर जो देखा और जाना जाता है , उसी को सही कह सकते हैं, अन्यथा सम्प्रदायवाद के साथ जुड़े हुए प्रचलन परस्पर एक-दूसरे से अत्यधिक भिन्न हैं । कई बार तो सत्यान्वेषी विवेक बुद्धि से उनका निरीक्षण-परीक्षण किया जाता है कि यह सारा जंजाल कहीं अन्धविश्वासों का जमघट ही तो नहीं है ।

कभी यह मान्यता थी कि अमुक सम्प्रदाय लोगों को दी ईश्वर पसन्द करता है और अन्य सम्प्रदाय वालों के बारे में सोचता है कि जैसे भी बने उन्हें अपने मत में सम्मिलित किया जाय । सहमत न हों तो अपने सिर कलम कर दिये जाएँ । मध्यकाल के सामंतों को जहाँ लूट-खसोट राज्य बढ़ाने की हवस थी, वहाँ यह जुनून भी कम न था कि अपनी बात न मानने वाले काफिरों का कत्लेआम किया जाय । इस मान्यता ने कितने निरीहों का रक्तपात कराया । इसे इतिहास के विद्यार्थी भली प्रकार जान सकते हैं ।

सम्राटों-सामंतों को दफनाते समय उनके साथ कितनी औरतें, कितने नौकर, दौलत दफन की जाती थी ताकि परलोक में यह सभी वस्तुएँ उन्हें उपलब्ध हो सकें । सद्गृहस्थों को पकड़ कर दास दासी बना लिए जाते । उन्हें खरीदने बेचने और पशुओं जैसा काम करने के लिए विवश करना किसी जमाने में आम रिवाज था ।

अमेरिका के रेड इन्डियनों और अफ्रीका के हवशियों में पशुओं की ही नहीं मनुष्यों के भारी संख्या में बलिदान का भी भारी प्रचलन था । उसी कारण कितनी ही जातियाँ एक दूसरों को बलि चढ़ाते-चढ़ाते नाम मात्र के लिए शेष रह गई । इन कृत्यों को करने वाले अपने को धर्मात्मा मानते थे और सोचते थे की ईश्वर यही चाहते हैं और इसी से प्रसन्न होता है।

भारत में ही सतीप्रथा, विधवा, विवाह , बाल विवाह, अपहरण जैसे अत्याचार नारियों के साथ किए जाते थे, उन्हें पर्दे में कैद रखा जाता था । मनुष्यों में भी एक चौथाई को अछूत कह कर मनुष्योचित अधिकारों से वंचित किया जाता था । देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रतिमाओं के सामने सहस्रों निरीह पशुओं का वध किया जाता था । आदि-आदि ऐसे अनेकों प्रचलन थे जिन्हें सही माना जाता था और वैसा करने में शास्त्रकारों की आज्ञा का हवाला दिया जाता है । पिरामिडों के निर्माण में लाखों को मेहनत कराते-कराते उसी में पीस दिया गया । एक पुरुष सैकड़ों हजारों स्त्रियाँ हरम में रखता था। कभी लड़कियाँ बिकती थीं, अब लड़के बिकते हैं ।

ऐसी-ऐसी अनेक बातें हैं जिन्हें धर्म परम्परा, शास्त्र आज्ञा, ईश्वर की अच्छा मानकर कहा जाता है और अनेकों भावुकों का शोषण किया जाता है । ऐसे धर्म व्यवसायी धन और सम्मान दोनों हाथों से बटोरते हैं और अपने को देवताओं का एजेण्ट कहकर उनका अनुग्रह दिलाने के लिए महँगी फीस वसूल करते हैं ।

मात्र हिन्दू समाज में ही नहीं अन्य सम्प्रदायों में भी ऐसे बेतुके प्रचलनों की भरमार है जिनका विवेक की कसौटी पर कोई औचित्य सिद्ध नहीं होता , फिर भी उन सम्प्रदायों के मानने वाले पुरातन मान्यताओं को ही सब कुछ मानते हैं और समीक्षा या सुधार की बात कहने तक को अधर्म मानते हैं ।

धर्म सबसे पुरानी परम्परा है । उनके साम्प्रदायिक खण्ड इतने अधिक हैं कि उनकी गणना करते कठिनाई होती है । फिर उनके प्रचलन ऐसे हैं जिनके स्वरूपों और सिद्धान्तों में जमीन आसमान जैसा अन्तर है । फिर भी आश्चर्य इस बात का है कि उन सभी के अनुयायी अपनी-अपनी परम्पराओं पर इतने कट्टर हैं कि उनकी यथार्थता पर पुनर्विचार करने की तनिक भी गुँजाइश नहीं । अभी भी आये दिन दहेज कम मिलने पर स्त्रियों को जला देने, देवता को प्रसन्न करने के, लिए बच्चे चुराकर बलि चढ़ा देने , जैसे नृशंस कृत्य आये दिन होते रहते हैं और उन्हें करने वाले अपने को अपराधी नहीं मानते, वरन् परम्परा के निर्वाह के लिए अपनाया गया औचित्य ही मानते हैं ।

यह धर्म चर्चा का विषय हुआ । अपराधियों की , दुराचारियों की , व्यसनियों की अपनी बिरादरी है और वे अपने कृत्यों को शान दिखाने का प्रसंग मानते हैं । न लज्जित होते हैं और न उन कुमार्गों को छोड़ने की बात सोचते हैं , यह दृष्टिकोण ही है जिसके कारण मनुष्य ऐसे ढाँचे में ढल जाते हैं कि जो किया अपनाया गया है उस पर नए सिरे से विचार करने और उचित अनुचित का विचार करने तथा ढर्रे में परिवर्तन करने तक की आवश्यकता नहीं समझते । वेश्याएँ अपनी सफलता और चतुरता की डींगें अपने समुदाय में बढ़-चढ़ कर मारती हैं ।

यहाँ एक और कठिनाई है कि जिसने जो ढर्रा अपना रखा है वह उसका औचित्य तर्कों के सहारे भी सिद्ध करने में पीछे नहीं रहता । यों तर्क से ही उचित अनुचित के निर्णय करने का रिवाज है , पर बुद्धि के विकास ने इस क्षेत्र को भी अप्रामाणिक बना दिया है और विश्व मानव की एकता-एक दिशा अपनाने में बाधक बन रही है । मतभिन्नता के रहते प्रगति की किसी योजना को कार्यान्वित करना और सफलता के स्तर तक पहुँचाना कभी भी संभव न हो सकेगा ।

भूतकाल के अनौचित्य, वर्तमान के दुराग्रह और भविष्य के अन्धकार को ध्यान में रखते हुए हमें ऐसे उपाय खोजने चाहिए जिनसे विग्रहों के आधार ढहें और एकता के औचित्य के द्वार खुलें। दार्शनिक क्षेत्र में यह आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है ।

आवश्यकता है कि न्याय , औचित्य विवेक का आश्रय लिया जाय और पूर्वाग्रहों से अपने दृष्टिकोण को मुक्त रखा जाया । अपने आग्रहों को ईश्वर, देवता, पैगम्बर आदि की उक्त बताने की दुहाई न दी जाय और न अपने मान्यताओं को चमत्कारी , दैव शक्तियों से सम्पन्न सर्वज्ञ ठहराया जाय । इन आधारों को अपनाने से औचित्य के प्रति अन्याय ही होगा । हमें स्वतंत्र चिन्तन का आश्रय लेना चाहिए और प्रचलित मतमतान्तरों में से कौन ज्येष्ठ और श्रेष्ठ के झंझट में न पड़ कर नई दृष्टि अपनानी चाहिए कि प्रस्तुत प्रचलनों को किसी विशेष समय की आवश्यकताओं के अनुरूप गढ़ा हुआ मानना चाहिए । ग्राह्य और अग्राह्य का निर्णय तर्कों के सहारे नहीं, वरन् मानवी गरिमा के अनुरूप भावनाओं के सहारे करना चाहिए ।

अर्थशास्त्र बताता है कि नई पीढ़ी को स्थान देने के लिए पुरानों को बूचड़खाना पहुँचाना चाहिए । यदि यह सिद्धान्त पशुओं के लिए सही है तो मनुष्यों के लिए प्रचलित क्यों हो समता ? फिर बूढ़े माँ-बापों को कसाईखाने भिजवाना पड़ेगा । “जिसकी लाठी उसकी भैंस” का जंगली कानून यदि सही ठहराया जाय तो ‘बड़ी मछली छोटी को निगल लेती है ‘ का सिद्धान्त मनुष्यों पर भी लागू करना होगा और इस संसार में सभी दुर्बलों का एक सिरे से सफाया करना होगा । देशभक्ति की दुहाई दी जाती रही तो क्षेत्र विशेष की सुविधा ही सब कुछ मानी जायगी और विदेशों के साथ अन्याय होने की बात पर विचार न हो सकेगा । इसलिए हमें वास्तविक न्याय का निर्णय करने के लिए स्वयं सृष्टि का स्रष्टा बन कर सभी को सन्तान मानते हुए उचित अवसर प्रदान करना पड़ेगा या फिर अगली शताब्दी की देहरी पर खड़े होकर आदि से अन्त तक नए कानूनों का इस आधार पर निर्धारण करना होगा जिससे भविष्य में किसी अनुचित विग्रह के लिए गुँजाइश न रहे । मनुष्यों में से प्रत्येक को मानवी मौलिक अधिकारों का संरक्षण मिले साथ ही सृष्टि के अन्य प्राणियों को भी इस धरती पर रह सकने की सुविधा मिले ।

दुर्जन मुट्ठी भर होते हैं, पर वे संगठित गिरोह बनाकर आक्रमण करते हैं और तथाकथित सज्जन मिलजुल कर उनका विरोध नहीं करते, फलतः संसार में अनीति और अपराधों की बाढ़ आती है । होना यह चाहिए कि अनाचारियों का सामूहिक बहिष्कार और विरोध हो, साथ ही मिलजुल कर सब उनके विरुद्ध संघर्ष करें । शासन को कहा जाय कि सुधार की आशा से दरगुजर करने वाले या हलका दण्ड देकर जमानत पर छुट्टा छोड़ देने की अपेक्षा अपराधी के साथ उतनी कड़ाई की जाय जिसे देखकर दूसरों को वैसा करने का हौसला न बढ़े । शासन को जहाँ सत्प्रवृत्तियों का समर्थन अभिवर्द्धन करना चाहिए वहाँ यह भी नितान्त आवश्यक है कि आततायी को प्रताड़ना सहनी पड़े और पश्चाताप करना पड़े ।

सम्प्रदायों की अनुपयुक्तता देखते हुए उनसे निरपेक्ष हो जाना और चाहे जिसको चाहे जो करने की छूट नहीं देनी चाहिए । ऐसी छूट प्रकारान्तर से अनीति का समर्थन एवं प्रोत्साहन है । हमें उपेक्षापूर्वक रिक्तता उत्पन्न नहीं करनी चाहिए , वरन् एक नवीन मानव धर्म की संरचना करनी चाहिए और उसमें परिपालन करने के लिए लोगों से अनुरोध करते रहने की अपेक्षा बाधित करने की कठोरता अपनानी चाहिए । राजनीतिकवाद भी मात्र शासन की अर्थव्यवस्था की देख-भाल करते हैं और मूर्खों के बहुमत का जिस-तिस प्रकार समर्थन प्राप्त करके अपनी मनमानी चलाते हैं । यह सब भी अपूर्ण है । हमें उतनी गहराई तक जाना होगा जिससे मानवी तत्त्वदर्शन का शिलान्यास हो । चिन्तन में उत्कृष्टता, चरित्र में आदर्शवादिता और व्यवहार में सज्जनता का समावेश हो। वस्तुतः इसी परिधि में मानव जीवन की समस्त समस्यायें आती है । जिससे इस सुविस्तृत क्षेत्र का समाधान निकले उसी को सच्चे अर्थों में तत्त्वदर्शन समाज विज्ञान या शासन तंत्र कहना चाहिए , फिर उसका नाम कुछ भी क्यों न रखा जाय । मनुष्य को सत्प्रयोजन अपनाने की पूरी छूट मिलनी चाहिए, पर उसकी धूर्तता को इतने कड़े शिकंजे में कसना चाहिए कि पीछे हटने या आगे बढ़ने की कोई गुँजाइश न रहे ।

बढ़ते हुए विज्ञान और बुद्धिवाद ने दुनिया का सिकोड़ कर एक बस्ती जैसी सीमित कर दिया है । इसमें एकता और समता की रीति-नीति ही चल सकती है । मनमौजी खींचतान चलाने और कलह के सर्वनाशी बीज बोने की छूट पिछले दिनों मिलती रही होगी, पर अब उसकी तनिक भी गुँजाइश नहीं है । हमें एक बिरादरी नहीं , एक परिवार बना कर रहना होगा और एक भाषा , एक देश , एक धर्म , एक दर्शन अपना कर ही शान्तिपूर्वक रहना होगा । इस प्रयास में प्रत्येक वर्ग को अपनी पूर्व मान्यताओं के प्रति दुराग्रह छोड़ना होगा और यह सोचना होगा कि अगले दिनों इस संसार का ऐसा सुन्दर सुसंस्कृत कैसे बनाया जा सकता है जिसमें अमीरी-गरीबी को सब लोग मिल बाँटकर खायें ।

शक्ति और बुद्धि के सत्परिणामों से सभी लोग मिलजुल कर लाभ उठाये और हँसती-हँसाती जिन्दगी जिये । इसके लिए समुचित साधन भी मौजूद हैं और पर्याप्त अवसर भी । आवश्यकता इस बात की है कि दूरदर्शी विवेकशीलता के धनी अपने चिन्तन को इस केन्द्र-बिन्दु पर एकाग्र करें कि मानवी गरिमा के अनुरूप चिन्तन क्या हो ? लोग उसे अपनाने और चरित्र में उतारने की प्रेरणा देने वाला शिक्षण किस प्रकार के विद्यालयों और कि स्तर के साहित्य सत्संग द्वारा प्राप्त करें ? शासन किस प्रकार चले ? अब तक यही सोचा जाता रहा है ।

नय युग की आवश्यकता है कि यह निर्धारण किया जाय कि समाज का स्वरूप क्या हो और उसकी आचार संहिता अपनाने के लिए जन-जन को किस प्रकार सहमत किया जाय । जिनकी नस-नस में धूर्तता भरी पड़ी है उन्हें कड़ी प्रताड़नायें सहने के लिए बाधित किया जाय । अब इतना समय शेष नहीं रह गया है कि फिर पीछे कभी के लिए बात टाली जा सके । हम जीवन मरण की विभीषिकाओं के बीच जूझ रहें हैं । उपाय एक ही शेष है -आध्यात्मिक दृष्टिकोण का स्वरूप निर्धारण और उसका अनुशासनपूर्वक परिपालन ।


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