भौतिक जगत में आर्थिक , जातीय, सामाजिक , राजनीतिक एवं बौद्धिक आधार पर ही समता-एकता स्थापित करने के प्रयत्न चलते रहते हैं । इससे एकता-समता तो आती नहीं, वरन् उलटे और भी अधिक गुत्थियाँ उलझती जाती हैं । मनुष्य-मनुष्य के बीच ऊँच-नीच नर-नारी , धनी-निर्धन योग्य-अयोग्य आदि कारणों से जो अगणित भेद-विभेद फैले हुए हैं उन्हें हटाने-मिटाने और सर्वजनीन एकता-सकता स्थापित करने के लिए हमें वेदान्त प्रतिपादित एकात्मवाद का अद्वैतवाद का ही आश्रय लेना और उसका विस्तार करना पड़ेगा । अद्वैतवाद को दूसरे शब्दों में ‘एक जीववाद’ या-मानवतावादी कहा जा सकता है जिसमें सभी प्रकार के भेद-भावों को मिटाकर एकता उत्पन्न करने की प्रेरणा सन्निहित है । उसमें ईश्वर और जीव के बीच का ही भेदभाव नहीं मिटाया गया है वरन् प्राणियों के बीच जो विभेद की दीवारें खड़ी हैं उन्हें भी गिराया गया है ।
अद्वैतवाद के-एकात्मवाद के व्याख्याता आद्यशंकराचार्य ने वेदान्त की संक्षिप्त व्याख्या इन शब्दों में की है-मनुष्य को सर्वप्रथम अपने में ब्रह्मचेतना की अनुभूति करनी चाहिए, तदुपरान्त जड़-चेतन जगत में अपनी ही आत्मा का विस्तार अनुभव करना चाहिए । एक ही आत्मा को सब में संव्याप्त की दृढ़ अनुभूति होने पर अपने पराये का भेद कहाँ संभव है ?
गीताकार ने कहा है-
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते । । यस्मिन सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः। तत्रः को मोहः कः शोक एकत्वमनुपंश्यतः । ।
अर्थात् जो मनुष्य सब जीवों में अपनी ही आत्मा देखता है तथा सब जीवों में अपने ही स्वरूप को देखता है, उसके भीतर किसी भी जीव के प्रति जुगुप्सा, निन्दा , द्वेष आदि का भाव नहीं रह पाता । समस्त जीवों में एक ही आत्मा समाया हुआ है, ऐसा जानकर जिस ज्ञानी मनुष्य के लिये समस्त संसार अपना ही स्वरूप आत्मस्वरूप हो जाता है, उस एक आत्मतत्त्व का अनुभव करने वाले को किसका भय, किसका मोह, किसके लिए शोक होगा ?
गीता में ही आगे उल्लेख है-
विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः । ।
अर्थात् जो व्यक्ति ब्राह्मण, गौ, हाथी , कुत्ते, चाण्डाल आदि सभी जीवों में एक ही आत्मतत्त्व का दर्शन करता है, वही पण्डित है ।
वस्तुतः ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की यह वेदान्त आस्था ही मनुष्य में दया, करुणा, स्नेह, सद्भाव, सौजन्य का उदय कर सकती है । नागरिकता , सामाजिकता का विकास ममता और आत्मीयता के साथ जुड़ा हुआ है । इस भावना का जितना अधिक विकास होगा उतनी ही व्यक्ति की महानता बढ़ेगी और समाज की शान्ति, समृद्धि और सुस्थिरता में अभिवृद्धि होगी । अपने पास आत्मीयता का पारस हो, वो हर लोहे जैसी काली-कलूटी और अल्प मूल्य की वस्तु को, व्यक्ति, को सोने जैसा सुन्दर और बहुमूल्य स्तर का बनाया जा सकता है ।
एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ स्नेह-सौजन्य का व्यवहार वहीं तक कर सकता है जहाँ तक कि उसकी ममता का प्रकाश फैल रहा हो । “आत्मोपम्येन न सर्वत्र सम पश्यति योऽर्जुन” की मनःस्थिति वाला व्यक्ति ही दूसरों के दुख में अपने दुख की तरह दुखी हो सकता है ओर दूसरों के सुख में अपने सुख की अनुभूति कर सकता है । ऐसी मनोभूमि में ही कोई व्यक्ति सच्चे अर्थों में एकात्मवादी, लोकसेवी, परमार्थपरायण, उदार, सज्जन बन सकता है । संयम और त्याग की आकांक्षा ऐसी ही मनःस्थिति में बन पड़ेगी ।
उपनिषद् में कहा है- “द्वितीयं द्वै भयं भवति” अर्थात् दूसरे से ही भय होता है । संसार में परमेश्वर से यदि अपनी आत्मीयता समाविष्ट कर ली जाय तो जैसे ही परायापन मिटेगा वर्ग विभेद की ऊँच-नीच की दीवारें टूटेंगी वैसे ही ‘अभय’ का आनन्द मिलता बढ़ता चला जाएगा ।
प्रख्यात दार्शनिक सुकरात का कथन है कि-सबसे बड़ा ज्ञान है अपने को पहचानना और भयमुक्त होना। “ हम दूसरों के बारे में बहुत कुछ जानते हैं, पर अपने बारे में अनजान ही बने रहते हैं । अपने स्वरूप और लक्ष्य को भूलकर सचमुच हम अज्ञानग्रस्त रहते हैं और भवबन्धनों में बँधते हैं । हमें कि तरह सोचना, रहना और दूसरों से व्यवहार करना चाहिए , यदि इस तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम कर लें ओर तद्नुरूप आचरण करें तो समझना चाहिए कि आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया और जीवन को सार्थक बनाने वाला मार्ग अपना लिया ।
यूनान के स्टोइक दार्शनिक एपिकतेतु ने प्राणि मात्र में ईश्वर का प्रकृति अंश विद्यमान होने की बात कही है । उन्होंने विश्वबन्धुत्व पर जोर देते हुए मानव मात्र को एक पिता की सन्तान भाई-भाई के रूप में माना है । स्टोइक दर्शन के अनुसार ब्रह्म एवं जीवजगत दो भिन्न सत्ता नहीं हैं । यह संसार परमात्मा का सजीव शरीर है । सृष्टि में संव्याप्त शक्ति एवं चेतना का बीज यह सर्वव्यापक ब्रह्मसत्ता ही है । उसकी सभी सन्तानें समान हैं, फिर मनुष्य के बीच असमानता की विभेद की दीवारें कहाँ से आ गयी है ? मानव जीवन का सबसे बड़ा रस प्रेम हैं । विभिन्न व्यक्ति या पदार्थ तभी प्रिया लगते हैं जब उनसे प्रेम होता है, आत्मीयता होती है । उदासीनता या उपेक्षा जहाँ भी होगी , वहाँ सूनेपन का-निरर्थकता का अनुभव होगा । जिस वस्तु से भी आत्मीयता हट जाएगी वह नीरस, निष्प्राण लगने लगेंगी । प्रिय न कोई पदार्थ है न व्यक्ति, अपना आपा ही सबको प्रिया है । वह जहाँ कहीं, जिस किसी पर भी प्रतिबिम्बित होता है वही सुन्दर, सुखद और प्रिया लगने लगता है । यदि सर्वत्र प्रिय पात्रों से भरी पूरी दुनिया दीखती हो तो समझना चाहिए कि आत्मीयता का-प्रेम का विस्तार व्यापक बनता जा रहा है । यह आत्म विस्तार न केवल वैयक्तिक आनन्दानुभूति अभिवर्धन की दृष्टि, से वरन् लोकमंगल की-समाज की दृष्टि से भी आवश्यक है ।
“वसुधैव कुटुम्बकम्” का अन्तर्राष्ट्रीय शाँति , समृद्धि सिद्धान्त व्यक्तिगत प्रेम भावनाओं-आत्मीयता के विस्तार पर ही निर्भर है ।
मनीषियों के अनुसार मनुष्य के विकास की सर्वोच्च अवस्था वह है जहाँ “उसके सभी सन्देह तथा वासनाएँ, अहंताएँ सदैव के लिए नष्ट हो जाती हैं । हृदय की समस्त स्वार्थपूर्ण ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं तथा कारण-कार्य का अनन्त क्रम उसके लिए समाप्त हो जाता है ।
मुंडकोपनिषद् 2 / 2 / 8 में ऋषि ने इसी स्थिति का दिग्दर्शन कराते हुए कहा है-
“भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन दृष्ट परावरे ॥”
अर्थात् उस परब्रह्म को तत्व के द्वारा जानने पर हृदय ग्रन्थि खुल जाती है और सब संशय नष्ट हो जाते हैं । इसके साथ शुभ-अशुभ कर्म भी क्षीण हो जाते हैं ।
इस ब्रह्मचेतना से परिपूर्ण जीवनमुक्त स्थिति को प्राप्त करने में अस्तित्व के अन्त का भय करना निरर्थक है । वस्तुतः वह तो पूर्ण अभय की स्थिति है । डर तो दूसरे से होता है । जहाँ केवल अपना ही आपा बिखरा पड़ा हो वहाँ भयभीत होने-भेद बुद्धि उपजने, आशंका करने की कोई गुँजाइश नहीं है । वेदान्त प्रतिपादित एकात्मवाद के 'आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की मान्यता ही आज के बिखराव को, मनोमालिन्य को मिटा सकती है और चहुँ ओर बहुमुखी सुख शान्ति का आधार खड़ा कर सकती है ।