परम पूज्य गुरुदेव -लीला प्रसंग

February 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विगत माह से आरंभ हुआ यह स्थायी स्तम्भ परमपूज्य गुरुदेव के जीवन से जुड़े दृश्य व परोक्ष उन घटनाक्रमों पर आधारित है, जिनने अगणित व्यक्तियों के जीवन को नया मोड़ दिया। प्रतिपाद्य विषय चमत्कार नहीं, वरन् उस दैवी सत्ता का वह रूप है जिस पर उनके रहते पर्दा पड़ा रहा । अब वह प्रतिबंध हट जाने से जन-जन को लाभान्वित करने के लिए यह क्रम आरंभ किया गया। वसंत की पावन वेला में परिजन इन्हें पढ़कर अपनी श्रद्धा भी निखारेंगे व औरों की निष्ठ को भी पोषण देंगे, ऐसी आशा है।

वसन्तपर्व का दिन था। उस दिन ब्रह्म मुहूर्त्त में कोठरी के सामने ही प्रकाशपुँज के दर्शन हुए। आँखें मल कर देखा कि कहीं भ्रम तो नहीं है। प्रकाश प्रत्यक्ष था। सोचा कोई भूत-प्रेत या देव दानव का विग्रह तो नहीं है। ध्यान से देखने पर भी वैसा कुछ लगा नहीं। विस्मय भी हो रहा था और डर भी लग रहा था। स्तब्ध था...............।”

“प्रकाश के मध्य में से एक योगी को सूक्ष्म शरीर उभरा। सूक्ष्म इसलिए कि छवि तो दीख पड़ी पर वह प्रकाशपुँज के मध्य अधर लटकी हुई थी। यह कौन है? आश्चर्य!

उस छवि ने बोलना आरंभ किया व कहा हम तुम्हारे साथ कई जन्मों से जुड़े हैं। अब तुम्हारा बचपन छूटते ही आवश्यक मार्गदर्शन करने आए हैं। संभवतः तुम्हें पूर्वजन्मों की स्मृति नहीं है। इसी से भय और आश्चर्य हो रहा है। पिछले जन्मों का विवरण देखो और अपना सन्देह निवारण करो। उनकी अनुकम्पा हुई और योगनिद्रा सी झपकी आने लगी। तन्द्रा सी आने लगी..........।”

“आज याद आता है कि जिस सिद्ध पुरुष अंशधर ने हमारी पंद्रह वर्ष की आयु में घर पधार कर पूजा की कोठरी में प्रकाश रूप में दर्शन दिया था, उनका दर्शन करते ही मन ही मन तत्काल अनेकों प्रश्न सहसा उठ खड़े हुए थे।...........॥”

उपरोक्त विवरण परमपूज्य गुरुदेव की आत्मकथा “हमारी वसीयत और विरासत” तथा अप्रैल 1985 की अखण्ड-ज्योति से लिया गया है। औपन्यासिक शैली में चित्रित यह प्रसंग उनका अपनी अदृश्य शरीरधारी सत्त में प्रथम साक्षात्कार का है व बताता है कि कैसे सतगुरु की अनुकम्पा उनके जीवन पर वसन्तपर्व 1926 के उस पावन दिन ब्राह्ममुहूर्त में उतरी। किन्तु जब हम उसी सत्ता के दिव्य अलौकिक प्रसंगों पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि ऐसे दर्शन उनने अगणित भक्तों को कराये हैं कभी कष्टों से त्राण हेतु पुकारने पर, कभी मार्गदर्शन देने हेतु, कभी अपनी सत्त का आभास दिलाने हेतु ताकि भक्त की श्रद्धा को बल मिले। आज हम उसी वसन्तपर्व की मंगलमयी वेला में उनके जीवन के लीला प्रसंगों पर चर्चा कर रहे हैं तो अगणित घटनाक्रम आँखों के समक्ष घूम जाते हैं।

एक शाँतिकुँज वासी स्थायी कार्यकर्ता बताते हैं कि जब वे विद्यार्थी जीवन में चिकित्साशास्त्र की पढ़ाई पढ़ रहे थे, तब एक दिन घर में प्रवेश करने के बाद उनको एक साधु महात्मा की आवाज सुनाई दी। चूँकि वह अकेले ही रहते थे। उनने कहा-बाबा ! यहाँ भिक्षा नहीं मिलेगी। यह तो छात्रों का निवास स्थान है।” पर देखते-देखते वह बाबा जी घर में प्रवेश कर गए। पाँच फीट ऊँचे दरवाजे में से आठ फुट ऊँचाई के हट्टे कट्टे एक संन्यासी ने प्रवेश किया। चेहरे पर अलौकिक तेज था। उनने कहा “बेटा। हम लेने नहीं, तुम्हें कुछ बताने आए हैं।” सोचा हाथ वाथ देखने का कोई चक्कर होगा। इनने कहा कि “हम इन सब में विश्वास नहीं करते। हम तो पुरुषार्थ के धनी हैं व पढ़ाई मन लगाकर करते हैं।” अलौकिक रूपधारी उस बाबा ने कहा कि “बेटा! शीघ्र ही तुम्हारे जीवन में एक दैवी सत्ता का अवतरण होगा जो तुम्हारे जीवन की दिशाधारा बदल देगी। तुम्हारा उनसे शीघ्र ही गहन संपर्क होगा।” इतना कहकर वे बाहर निकल गए। एकाध मिनट बाद इन्हें होश आया कि यह बाबाजी कौन थे? इनसे शिष्टाचार के नाते बात तो करते, कम से कम बिठाकर पानी पिलाते। बाहर जाकर पता लगाया कि एक बाबाजी इधर आए थे, किसी ने देखे क्या? वहाँ खड़े एक तिपहिया चालक ने कहा-काफी देर से वह सवारी तलाश रहा है। वहाँ तो कोई नहीं है। निराश उनने पूरी कालोनी का एक-एक घर देख डाला व चक्कर लगा लिया। तब लगा कि कुछ अलौकिक घटा है। कोई दैवी सत्ता ही थी वह तुरन्त पत्र अपने पिता को लिखा जिनने पूज्य गुरुदेव के पास उसे भेज दिया। वहाँ से एक पत्र आया कि महत्वपूर्ण घटनाओं के पूर्व ऐसे प्रसंग कभी-कभी होते हैं। घटना को नहीं उसके पीछे छिपी प्रेरणा को महत्व दें। कुछ वर्ष बाद जब स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने शाँतिकुँज आकर काम करने का आमंत्रण उन्हें एक उलाहने के रूप में दिया तो उन कार्यकर्ता महोदय को एकाएक कुछ सेकेण्डों के लिए वही महात्माजी आठ फुट के गुरुदेव के स्थान पर खड़े दिखाई दिए व तुरन्त ही अंतर्ध्यान भी हो गए।

उन्हें पिछली घटना व इसकी संगति समझ में आ गयी व यह सोचकर ही रोम-रोम पुलकित हो उठा कि स्वयं उन्हें प्रेरणा देने, पिछले, कुसंस्कारों को मिटाने तथा वातावरण बनाने स्वयं साक्षात् गुरुसत्ता उनके द्वार पर आयी थी। उसी दिन से वे शाँतिकुँज में स्थायी रूप से आ गए। उनका नाम यहाँ जानबूझ कर नहीं दिया है।

समय-समय पर परमपूज्य गुरुदेव अपने पत्रों में भी प्रत्यक्ष यह सब लिख दिया करते थे। 20−1−67 को केशर बहन (अंजार कच्छ) को लिखे एक पत्र में वे उन्हें संबोधन करते हुए कहते हैं-तुमने स्वप्न में हमें देखा, सो वह स्वप्न नहीं था जाग्रति थी। हमारा प्राण शरीर में से निकलकर निष्ठावान् साधकों के पास जाया करता है और उन्हें प्रकाश प्रदान करता है। जब हम उधर जाते हैं तभी तुम इस प्रकार का अनुभव करती हो।” कितना प्रेरणा भरा दैवी संरक्षण उनने आजीवन अपने अनुयायी साधकों को दिया इसका वर्णन किया नहीं जा सकता क्योंकि इनकी संख्या गिनी जा सकनी संभव नहीं है। लगभग सभी के पास अनुभूतियाँ हैं, हस्त लिखित पत्र हैं या अपने जीवन के कायाकल्प सर्वांगपूर्ण प्रगति रूपी प्रमाण हैं।

श्री शिवशंकर गुप्त (दिल्ली) जिनकी प्राण रक्षा का प्रसंग विगत अंक में दिया गया था, को 13 मई 1955 की तारीख में परमपूज्य गुरुदेव की हस्तलिपि में लिखा पत्र मिला। “विवाह का विस्तृत समाचार जाना। यह सब समाचार पूर्ण रूप से हमें मालूम है। क्योंकि हमारा सूक्ष्म शरीर उस समय चौकीदार की तरह वहीं अड़ रहा है और विघ्नों को टालने के लिए, शत्रुओं को नरम करने के लिए, आपत्तियों को हल्का करने के लिए, जो कुछ बन पड़ा है सो बराबर करते रहे हैं। फिर भी आपके पत्र से सब बातें भली प्रकार विदित हो गयीं।” पत्र से स्पष्ट है कि उनका दिव्य संरक्षण सतत् सबके साथ रहता था। मात्र स्मरण करने या पत्र लिखने भर की देर थी व उनका दैवी सुरक्षा कवच सक्रिय हो जाता था। पत्र लिखने से भक्त का मन तो हल्का होता ही था, यह भी लगता था कि अपना कष्ट पूज्यवर तक पहुँचा दिया। अब रक्षा वे ही करेंगे। पर यह बेतार का तार पत्र रवाना होने से पहले ही पहुँच चुका होता था।

श्रीरामचन्द्र सिंह अभी भी शाँतिकुँज में रहते हैं व उन्हें तीस वर्ष तक परमपूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में रहने का सौभाग्य मिला है। इस अवधि में उनने हजारों अलौकिक चमत्कारी घटनाएँ अपनी आँखों से देखी हैं। असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति जिन्हें चिकित्सकों ने बचने की संभावना नाम मात्र की बताकर जवाब दे दिया था, जो पारिवारिक विग्रह-ग्रह कलह से व्यथित थे, जिन्हें मुकदमों के कारण अत्यधिक परेशानी उठानी पड़ रही थी, जिन्हें शत्रुओं से अपनी जान का खतरा था, जिन्हें व्यवसाय में लगातार घाटा आ रहा था, जो नौकरी में पदोन्नति या तबादले की समस्याओं से ग्रसित थे, जिन दम्पत्तियों के विवाह के वर्षों बाद तक संतान नहीं हुई थी, ऐसों के बारे में मात्र पत्र द्वारा सूचित करने पर उनकी समस्याओं का निराकरण व मनोवाँछित इच्छा पूरी हो जाना उनने अपनी आँखों से देखा है।

रामचन्द्र सिंह के पास के ही एक गाँव हरना की एक महिला शाँतिकुँज बड़े दुखी मन से आयी। उसकी पुत्री गीता को एक लड़का हुआ था, जो जन्म लेने के दस दिन बाद ही मर गया। श्रीरामचन्द्र ने उसे गुरुदेव से मिलाया। मुख से ब्रह्मवाक्य निकला कि वही लड़का गीता की गोद में पुनः लौटाएँगे। 1989 में शाँतिकुँज की टोली उसी ग्राम में गयी थी। 1000 वेदी दीपयज्ञ हो रहा था। उसी दिन गीता को उसी शकल का एक पुत्र पैदा हुआ। ये सारे घटनाक्रम प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा देखे हुए हैं वे बताते हैं कि अगणित व्यक्तियों पर परमपूज्य गुरुदेव की कृपा किस प्रकार सहज ही बरसती रही है। यही नहीं अपने सामीप्य के क्षणों में उनने रामचन्द्र सिंह से यह भी कहा है कि जब भी कोई सच्चे मन से आकर यहाँ गायत्री तीर्थ में पुकारेगा, मेरी सत्ता उसकी सहायता करेगी। मैं स्थूल शरीर से रहूँ किन्तु मेरी अनुकम्पा सदैव उन पर बरसती रहेगी, जो सदाशयता संपन्न होंगे, समाज के लिए कुछ करने का दर्द जिनके मन में होगा। यह आश्वासन वे लिखित रूप में महाकाल के वसन्तपर्व के संदेश के रूप में अपने महाप्राण से पूर्व ही सबको दे भी गए हैं।

जब कभी किसी ने किसी तरह का अनहित करने की बात उनके समक्ष कही तो उनका रौद्र रूप देखते ही बनता था। 2 मार्च 1976 की एक घटना है। ग्राम दरियापुर जिला छपरा के एक व्यक्ति शाँतिकुँज आए। अपने साथ स्टील की थाली में ढेर सारे फल लेकर पूज्यवर को उनने भेंट किए। गुरुदेव के सिद्धि संपन्न होने की बात उनने सुन रखी थी। गुरुदेव के पूछने पर वे बोल उठे-गुरुदेव मेरी पत्नी दुश्चरित्र है। दूसरे पुरुष से प्रेम करती है। उसे मारण मंत्र से मार दीजिए। इतना सुनते ही पूज्यवर का आक्रोश सीमा को पार कर गया। वे बोले “आज तक हमने एक चुहिया नहीं मारी व तेरे कहने से तेरी पत्नी को मार देंगे? चल उठा सामान व भाग यहाँ से।” उनके क्षमा माँगने पर बोले-हम किसी को मारते नहीं है। मारते हैं तो दुर्बुद्धि। जाओ तुम्हारे घर जाकर देखो। तुम्हारी पत्नी को हम सद्बुद्धि देंगे। वह तुम्हारे साथ वैसे ही पहले की तरह रहने लगेगी वे सज्जन वापस लौट गए। जाते ही परिवार में पारस्परिक सामंजस्य, स्नेह-सौहार्द्र की स्थापना हो गयी। पति-पत्नी दोनों प्रेम से रहते हैं व मिशन का काम करते हैं। जान बूझकर यहाँ उनका नाम नहीं दिया गया है। घटना के प्रत्यक्षदर्शी शाँतिकुँज में ही रहते हैं।

लखनऊ आय.टी.आय. के प्रिंसिपल श्री सिन्हा जी सेवानिवृत्ति के बाद अब शाँतिकुँज की वाहन सेवा में ही अपना अधिकतम समय देते हैं, वे 1970 से मिशन से जुड़े हैं, उन दिनों वे गोरखपुर में आय.टी.आय. में प्रशिक्षक थे। लखनऊ के उनके निजी घर को उनके ही परिचय के एक व्यक्ति के माध्यम से एक पुलिस विभाग के अधिकारी को उनने किराये पर उठा दिया था। छह माह तक किराया न आने पर उनकी पत्नी शकुन्तला देवी लखनऊ किसी काम से गयी थीं, तो उनके पास भी पहुँची। उसने धमकी भरे शब्दों में कहा कि “न मैं किराया दूँगा, न मकान से निकलूँगा। अब इसकी एक-एक ईंट बेचकर ही निकलूँगा। चाहे आप जो कर लें। इस पूरे क्षेत्र में चलती मेरी ही है।” शकुन्तला जी घर आते ही इस शॉक से ऐसी बीमार पड़ीं कि उठ ही नहीं सकीं। घर में बड़ा दुख भरा वातावरण छा गया। पड़ोस में ही एक गायत्री परिवार के परिजन रहते थे। उनने यह स्थिति देखी तो गोंडा में हो रहे 108 कुण्डीय गायत्री महायज्ञ में चलने को कहा जहाँ स्वयं पूज्य गुरुदेव आ रहे थे।

वैज्ञानिक व विदेश यात्रा से लौटे सिन्हाजी अविश्वास भरे मन से गए तो पर यही भाव लेकर कि कोई ढोंग ढकोसला दिखा तो लौट आएँगे। न जाने क्या प्रेरणा मिली कि दीक्षा भी उनने यज्ञ में ले ली व जब प्रणाम करने पूज्यवर के पास पहुँचे तो अश्रुपात ऐसा होने लगा कि रुका नहीं। आँखों-आँखों में गुरु ने शिष्य की वेदना पढ़ ली। पास बुलाया व पूरी कहानी सुनी मात्र इतना कहा कि “जा बेटा ! सब ठीक हो जाएगा।” श्री सिन्हाजी के यज्ञ से लौटने के एक सप्ताह के अंदर ही उस किरायेदार पुलिस अफ़सर का पत्र आया कि “सिन्हा साहब आप कृपया लखनऊ आकर अपना घर संभालिए। पिछला सारा किराया आपकी सेवा में भेज रहा हूँ। अब मैं इस मकान में एक दिन भी नहीं रह सकता। रात दिन मुझे एक अजीब बेचैनी रहती है। कोई मुझे बराबर यह कहता है कि तुमने एक सज्जन दम्पत्ति को तंग किया है। तुम्हें प्रायश्चित करना चाहिए। आपका मकान छोड़ कर ही मुझे शान्ति मिलेगी।”

न केवल मकान वापस मिला, पिछला किराया भी तथा श्रीमती सिन्हा को स्वास्थ्य लाभ इतना शीघ्र हुआ कि देखते ही बनता था। न केवल उनका विश्वास दिव्यसत्ता पर मजबूत हुआ वे गायत्री के अनन्य साधक व मिशन के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ बन गए। अगणित व्यक्ति श्री सिन्हा जी की श्रेणी में आते हैं, जिनके प्रथम विश्वास को बल ही किसी चमत्कार से मिला। कई व्यक्ति ऐसे हो सकते हैं जो अखण्ड ज्योति पाठकों में हो व कहें कि हमारे साथ भी ऐसा घटा तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। यह तो उस हिमखण्ड के बहिरंग पक्ष के कुछ हिस्से पर ही रोशनी डालने का एक छोटा सा प्रयास किया गया है जिसका एक बहुत बड़ा हिस्सा जलराशि के भीतर रहा व अभी भी अपनी शक्ति से अगणित चमत्कार नित्य दिखा रहा है। (अगले अंक में जारी)।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118