लीजिए प्रस्तुत है एक वैज्ञानिक भविष्य कथन

February 1992

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रिचर्ड फ्रिचफील्ड एक अच्छे समीक्षक और विश्लेषक रहे हैं। कृषि क्षेत्र के मूर्धन्य विशेषज्ञों में उनकी गणना होती रही है। इस क्षेत्र के दीर्घकालीन अनुभव के आधार पर उनने एक पुस्तक लिखी-भुखमरी की ओर जाता विश्व”। इसमें उनने आगामी वर्षा में विशेषकर सन् 2000 के बाद आने वाले समय में भारतीय कृषि जगत में होने वाली असाधारण क्रान्ति की चर्चा की है।

वे लिखते हैं कि सम्पूर्ण भारत में, पर विशेष कर गाँगेय क्षेत्र में हरित क्रान्ति इतनी जोर पकड़ेगी कि आगामी समय में वह उत्पादन संबंधी ऐसा कीर्तिमान स्थापित करेगी, जैसा इस सदी में पहले कभी नहीं हुआ। इसी के बलबूते वह विश्व के समक्ष यह उद्घोषणा करने में समर्थ हो सकेगा कि वह 100 लाख टन अनाज रिआयती मूल्य पर संसार के विभिन्न देशों को निर्यात कर सकता है। वे कहते हैं कि सन् 90 से 95 की अवधि के बीच भारत के पास ऐसे श्रेष्ठतम विश्व स्तर के कृषि विशेषज्ञ उपलब्ध होंगे, जिसके कारण फसल उत्पादन में जो अभूतपूर्व वृद्धि होगी, उससे वह विभिन्न प्रकार के दलहन, तिलहन एवं अन्य अनेक तरह के धान्यों के निर्यात से विश्व के निर्धन देशों की सहायता करने की स्थिति में आ जायेगा एवं स्वयं खाद्य के मामले में आत्मनिर्भर बन जायेगा।

उनके अनुसार उनका यह निष्कर्ष पिछले 10 वर्षों में भारतीय कृषि में होने वाली वैज्ञानिक उन्नति के अध्ययन पर आधारित है । उनका कहना है कि वर्तमान समय में कृषि संबंधी वैज्ञानिक संस्थाओं (21 कृषि विश्वविद्यालय तथा 30 अनुसंधानशालाओं) ने भारतीय कृषि को आधुनिक बनाने में जो महत्वपूर्ण योगदान दिया है , उसके परिणाम अभी से ही परिलक्षित होने लगे हैं । आने वाले समय में यदि वे सब मिल कर इस क्षेत्र में एक नया आयाम स्थापित कर दें, तो इसे आश्चर्य नहीं माना जाना चाहिए । वे अपनी पुस्तक में आगे लिखते हैं कि जिन देशों और लोगों ने भारत को गरीब और कंगाल देश के रूप में निरूपित किया है, संभवतः उनने सबसे बड़ी गलती यह की है कि वे इस देश की खाद्य उत्पादन संबंधी मूलभूत क्षमता का सही आकलन करने में सर्वथा अक्षम रहे है। अन्यथा इतनी बड़ी भूल कदापि न करते । इसके पास कुल भूमि का 4/5 वाँ भाग खेती के लिए पूर्णतया उपयुक्त है, जो अमेरिका जितनी (400 से साढ़े 400 मिलियन एकड़ ) ही है । यहाँ की भूमि अपेक्षाकृत अधिक उर्वर एवं फसल पैदा करने वाली है । यहाँ के किसान यदि सही ढंग से इस दिशा में जुट पड़ें, तो मिट्टी से भी सोना पैदा करने की क्षमता का प्रदर्शन कर सकते हैं । उनमें इस दिशा में धीरे-धीरे जाग्रति आ भी रही है ।

उनके अनुसार अधिकाँश विकसित देशों का खाद्य क्षेत्र में स्वावलम्बन का एक ही रहस्य है कि वे प्रचुर परिमाण में रासायनिक खादों का प्रयोग करते हैं, किन्तु इससे जिस गति से उनके खेत अनुर्वर और अनुपजाऊ बनते जा रहे हैं , उससे वे सर्वथा अनभिज्ञ हैं अथवा भिज्ञ हैं तो जानबूझ कर अधिकाधिक उपज लेने के चक्कर में वही, गलती कर रहे हैं, जो भूल उस व्यक्ति ने की थी, जो प्रतिदिन सोने का एक अण्डा देने वाली मुर्गी का पेट चीर कर सारे अण्डे एक ही दिन में निकाल लेने की उतावली बरती थी और जीवन भर पछताता रहा । भारत इस क्षेत्र में सौभाग्यशाली है । वह अपनी कृषि योग्य भूमि में सीमित क्षेत्र में ही रासायनिक खाद का प्रयोग करता है । उसका रासायनिक खाद पर आधारित खेती योग्य भूमि का कुल क्षेत्रफल मात्र 3500 लाख एकड़ है, शेष में कम्पोस्ट एवं गोबर जैसी घरेलू खादों का प्रयोग किया जाता है । इस भूमि की तुलना में उपरोक्त कृत्रिम खाद वाली भूमि को नगण्य ही समझा जा सकता है । वे कहते हैं कि इस दृष्टि से देखा जाय तो इस देश की अधिकाँश कृषि योग्य जमीन अभी बंजर बनने से सुरक्षित बची हुई है ।

यदि इस तथ्य का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो बात और भी स्पष्ट हो जाती है । उनका अध्ययन के अनुसार पिछले 10 हजार वर्षों तक खेती करने में विश्व भर में यहाँ न्यूनतम रासायनिक खादों का उपयोग हुआ है और अब भी वैसा ही हो रहा है । इस संदर्भ में एक आँकड़ा प्रस्तुत कर तथ्य को और भी अधिक स्पष्ट करने का उनने प्रयास किया है । रिचर्ड क्रिचफील्ड के अध्ययन के अनुसार भारत में धान के लिए 1.5 टन प्रति हेक्टेयर रासायनिक खाद का उपयोग होता है , जबकि जापान सहित अन्य देशों में यह मात्र 6 टन प्रति हेक्टेयर के करीब है । गेहूँ के लिए यहाँ यह 2.5 टन प्रति हेक्टेयर के अनुपात में प्रयुक्त होती है, जब कि हालैण्ड में इसकी दर 6 टन प्रति हेक्टेयर है । अपने देश में मक्का पर इसका खर्च 1.5 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से होता है, जबकि मिश्र के साथ-साथ अन्य विकसित एवं विकासशील देशों में इसकी औसत खपत 13-14 टन प्रति हेक्टेयर है ।

सिंचाई के साधन भी अब तेजी से बढ़ रहे हैं और सुदूर देहातों में, जहाँ खेती के लिए एकमात्र वर्षों जल जैसे साधन पर निर्भर रहना पड़ता था, उन स्थानों में भी इसकी समुचित व्यवस्था की जा रही है । क्रीच फील्ड लिखते हैं के यदि वर्तमान दर से यह व्यवस्था जारी रही तो आगामी पाँच वर्षों में सिंचित भूमि का क्षेत्रफल 1125 लाख से बढ़ कर 1550 लाख एकड़ तक पहुँचने की संभावना है । यदि ऐसा संभव हुआ, तो यह चीन के बाद दूसरा बड़ा सिंचित क्षेत्र होगा । सिंचाई के बढ़ते साधन से अब 27 सौ लाख एकड़ भूमि में कई फसलें उपजायी जा सकेंगी । इससे पूर्व यह सुविधा उपलब्ध न होने से इतने बड़े भूभाग में केवल एक ही फसल उपजायी जाती रही थी , किन्तु कृषकों को यह साधन प्राप्त हो जाने से वे अब अपने खेतों में भिन्न-भिन्न मौसम में अलग-अलग प्रकार की एक हरी वर्ष में कई फसलें लेने लगें हैं , यहाँ का 620 लाख एकड़ क्षेत्र द्विफसली है । धान की खेती वाली कुल 100 लाख एकड़ भूमि में से 500 लाख में इस समय एक साथ कई-कई फसलें एक वर्ष में काटने की प्रक्रिया बड़ी तेजी से अग्रगामी हो रही है । वे अपनी उक्त पुस्तक में लिखते हैं कि इस तेजी से यदि भारतीय कृषि में प्रगति जारी रही तो अनुमान है कि आगामी वर्षों में द्विफसली भूमि में कई हजार टन खाद्यान्नों की उपज अधिक होने की संभावना है, जो प्रति व्यक्ति भोजन की वर्तमान दर को 150 किलों से बढ़ाकर 180 किलो प्रति वर्ष कर देगी । यद्यपि वर्तमान के आकलन के अनुसार 20-25 प्रतिशत भारतीय अर्थात् लगभग 63 हजार लाख व्यक्ति कुपोषण के शिकार हैं, किन्तु लेखक आशावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए कहते हैं कि यदि आने वाले वर्षों में इस संख्या में आश्चर्यजनक कमी आय, तो किसी को विस्मय नहीं करना चाहिए ।

इस संदर्भ में अन्यान्य स्रोतों से भी भारतीय कृषि में इन्हीं दिनों हो रही असाधारण प्रगति के साक्ष्य सदैव मिलते रहे हैं । इसे देखते हुए यदि आने वाले समय में रिचर्ड क्रीचफील्ड की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हो जाय , तो इसे अचम्भा नहीं माना जाना चाहिए , वरन् उस सच्चाई का द्योतक समझा जाना चाहिए जिसे उन्होंने अपनी विलक्षण वैज्ञानिक दृष्टि से पहले ही देख लिया था ।


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