अहंकार बनाम स्वाभिमान

February 1992

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स्वाभिमान और अहंकार देखने में एक जैसे लगते हैं, पर उसकी प्रकृति और परिणति में जमीन आसमान जैसा अन्तर है। अहंकार भौतिक पदार्थों या परिस्थितियों का होता है। धनबल, सौंदर्यबल, साधन, शिक्षा, कला-कौशल आदि के बलबूते अपने को दूसरों से बड़ा मान बैठना, दर्प दिखाना और पिछड़ों का तिरस्कार-उपहास करना अहंकार है।

स्वाभिमान आत्मगौरव के संरक्षण एवं अभ्युदय का प्रयास है। इसमें आन्तरिक उत्कृष्टता को अक्षुण्ण रखने का साहस होता है। दबाव या प्रलोभन पर फिसल न जाना और औचित्य से विचलित न होना स्वाभिमान है। इसकी रक्षा करने में बहुधा कष्ट कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ता है और दुर्जनों का विरोध भी सहना पड़ता है।

मनीषियों का कहना है कि अहंकार मनुष्य को गिराता है। उसे उद्दण्ड और परपीड़क बनाता है। उसे साथियों को पीछे धकेलने, किसी के अनुग्रह की चर्चा न करने, दूसरों के प्रयासों को हड़प जाने के लिए अहंकार ही प्रेरित करता है ताकि जिस श्रेय की स्वयं कीमत नहीं चुकाई गई है उसका भी लाभ उठा लिया जाय। ऐसे लोग आमतौर से कृतघ्न होते हैं और अपनी विशेषताओं और सफलताओं का उल्लेख बढ़-चढ़ कर बार-बार करते हैं। नम्रता, विनयशीलता का अभाव होता जाता है और अन्यों को छोटा गिनाने की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। इस कारण ऐसा व्यक्ति दूसरों की नजरों में निरन्तर गिरता जाता है। घृणास्पद बनता है और इसी कारण कई बार ईर्ष्या, विद्वेष आदि का शिकार बनता है। शत्रुओं की संख्या बढ़ाता है और अन्ततः घाटे में रहता है। आत्म सम्मान की रक्षा करनी हो तो

अहंकार से बचना ही चाहिए।

जब अहंकार बढ़ने लगता है तो व्यक्ति की संवेदनशीलता, सरसता, सरलता जैसे सद्गुणों का ह्रास होने लगता है। इस मनोविकृति के भार से ही मनुष्य बोझिल बनता है और उसका विकास अवरुद्ध होता है। शास्त्रों का कथन है कि 'अहंकार' ने ही आत्मा को पृथ्वी की खूँटी से बाँध रखा है। आत्मा इसी विकार के कारण व्यर्थ के देहानुशासन से आबद्ध है और इसीलिए वह परमतत्व से वंचित है।

तत्त्ववेत्ता मनीषियों का कहना है कि प्रायः घरद्वार छोड़ने और वैराग्य की चादर ओढ़ लेने पर भी अहंकार नहीं छूटता, वरन् और भी बढ़ता है कि मैंने बहुत बड़ा त्याग किया है। इसी तरह धन छोड़ देने या दान कर देने की भी अहंवृत्ति बनी रहती है। तथाकथित मोहमुक्तों का भी स्त्री-बच्चों के प्रति लगाव कहाँ छूटता है? बड़े-बड़े ओहदे, पद-प्रतिष्ठा को छोड़ देने वाले भी इस अहंभाव से ग्रस्त पाये जाते हैं कि हमने अमुक पद को ठोकर मार दी। वस्त्र छोड़ने पर नग्नता का-वैराग्य का अहंकार बना रहता है।

अध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार अहंकार से बचने का केवल एक ही उपाय है कि उसे खोजा जाय कि वह अन्तर की किन गहराइयों में डेरा डाले पड़ा है। उनने अहं को गलाने और स्वाभिमान को जगाने का सर्वोत्तम उपाय लोक आराधना को बताया है और कहा है कि यह पूजा-उपासना से कम महत्व की साधना नहीं है। साधना-उपासना से जो प्रगति मनुष्य के व्यक्तित्व में होनी चाहिए वह सच्चे लोकसेवी में भी विकसित होती देखी जा सकती है। उसका भी अहंकार नष्ट होकर भावनाएँ उदात्त हो जाती हैं। उसकी अपनी कोई आकांक्षा नहीं होती। वह मात्र विश्वमानव के कल्याण की बातें सोचता और ईर्ष्या, द्वेष, ऊँच-नीच के भेदभाव से रहित जीवन जीता है। धीरे-धीरे वह प्राणि मात्र की सेवा के लिए अपने को समर्पित करता जाता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावनाओं से ओतप्रोत जाति-वंश आदि की संकीर्ण वृत्तियों से परे उसका चिन्तन रहता है। उसकी दृष्टि में मानव मात्र एक समान है। ‘सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः की भावना ही उसके जीवन का मूल उद्देश्य बन जाती है। कालान्तर में ऐसे व्यक्ति का व्यवहार मधुर एवं संतुलित हो जाता है। क्रोध व घृणा से उसका दूर का भी वास्ता नहीं रह जाता है।

उपरोक्त गुणों के संवर्धन के साथ ही आत्मबल का

संवर्धन भी होने लगता है और वह लोकसेवी ढोंग-ढकोसले से भी मुक्ति पा लेता है उदात्त चिंतन से परिचालित एवं परहित कामना से कर्मरत व्यक्ति का अहंभाव क्रमशः विनष्ट होता जाता है और विराट् सत्ता से सम्बन्धित हो जाता है। विराट परमात्म सत्ता ही तब उसका मार्गदर्शन करने लगती है। साधना-उपासना का, भजन-पूजन का भी यही उद्देश्य है कि सद्गुणों में दैवी सम्पदा में अभिवृद्धि हो, सत्कर्मरत् रहा जाय और अन्ततोगत्वा शुद्र अहं का विराट सत्ता में विलीन होकर सबकुछ उसका हो जाय। जड़ चेतन में समायी परमसत्ता ही मार्गदर्शिका बन जाय। अहं विसर्जन की फलश्रुति भी यही है।


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