उद्धरेदात्मनात्मानं

February 1992

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दोषारोपण या प्रशंसा प्रतिष्ठा के लिए अपने उत्थान पतन का लाभ-हानि का निमित्त कारण किसी दूसरे को भी बताया जा सकता है । किन्तु यथार्थता यह है कि मनुष्य अपने ही पैरों उठता और आगे बढ़ता है । गिरने और घाटा उठाने का निमित्त कारण भी वह स्वयं ही है ।

गीताकार ने कहा है ।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥

अर्थात् “मनुष्य को अपना उद्धार आप ही करना चाहिए । अपने आप को गिराना नहीं चाहिए । मनुष्य स्वयं ही अपना बन्धु और स्वयं ही अपना बैरी भी है ।”

दूसरों को इतनी फुरसत कहाँ जो किसी की उन्नति में सहायता करे । सभी अपने-अपने काम में लगे हैं । अपनी समस्यायें हल करने में ही हर कोई व्यस्त है फिर पराई उन्नति के लिए कोई हर घड़ी साथ लगा फिरे यह कैसे संभव है ? यही बात पतन के गर्त में गिराने के संबंध में है । कोई किसी के हर घड़ी साथ रहे व उसे गिराए यह भी संभव नहीं । निरन्तर साथ में रहने वाली तो अपनी आत्मसत्ता ही है । अपने गुण या दोषों के कारण ही कोई स्वयं ऊँचा उठता या नीचे गिरता है ।

आत्मा ही आत्मा का बन्धु, मित्र हैं और आत्मा ही आत्मा का शत्रु । यहाँ आत्मा का अर्थ अपने आप से है । अपने स्वर-चिन्तन या चरित्र से है । अपना व्यक्तित्व ही ऐसा है जिसकी क्रियाएँ निरन्तर अपने आपको , अपने जीवनक्रम को प्रभावित करती हैं । यदि वह श्रेष्ठ है तो क्रियाकलाप भी वैसे ही होंगे । गुण-कर्म स्वभाव वैसा ही बनेगा । यदि व्यक्ति गया गुजरा है । स्वभाव की दृष्टि से हीन है । जो सोचता और कहता है निकृष्ट स्तर का है तो फिर जीवनक्रम का पूरा ढाँचा ही उसी स्तर का बन पड़ेगा । मनःस्थिति के अनुरूप ही परिस्थितियाँ बनती हैं । इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता ।

एक ही परिस्थितियों में पैदा हुए दो व्यक्तियों में से एक उन्नति के चरम शिखर पर जा पहुँचता है और दूसरा गिरते-गिरते घटते-घटते इतना नीचे जा पहुँचता है कि दोनों के बीच का अन्तर जमीन आसमान जितना दिखाई पड़ता है । इसके लिए दूसरों को श्रेय या दोष किस सीमा तक दिया जाय । दूसरों का दूसरे के जीवनक्रम को उठाने गिराने में यदि कुछ योगदान होता भी है तो उसे नगण्य ही कह सकते हैं । फिर वह नगण्य भी ऐसा होता है जिसे कोई भी अपने व्यक्तित्व के सहारे सुधर या बदल सकता है।

शरीर पर मन का अधिकार है । मन मस्तिष्क की इच्छानुसार शरीर की समस्त गतिविधियों का संचालन होता है । मन बुद्धि पर आत्मा का अन्तःकरण का अधिकार है । इस प्रकार समस्त व्यक्तित्व पर आत्मा का ही अधिकार बन जाता है । आत्मा के तीन प्रयोजन हैं । आकांक्षा, भावना, विचार इनका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है । आत्मा की हवा जिस दिशा में बहती है उसी दिशा में जीवनक्रम लुढ़कने लगता है । जिस दिशा में अपनी गतिविधियाँ चलेंगी, उसी दिशा में प्रकार उत्थान पतन में से जिसका भी चुनाव करना हो उसे कर लेना पूरी तरह निर्भर है ।

इतिहास में ऐसी अगणित घटनाएँ हैं, जिनमें मनुष्य परिस्थितियों के अनुरूप चलने के लिए विवश नहीं हुआ है वरन् प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अनुकूलता में उसने ढाला है । उनसे टक्कर लेता हुआ , परिवर्तन सुधार करता हुआ वह निरंतर आगे बढ़ा है ।

यह कथन एक सीमा तक ही सही है कि परिस्थितियों के दबाव से मनुष्य को दिशा विशेष में चलने या ढलने के लिए विवश होना पड़ता है । किन्तु यह कथन दुर्बल मनःस्थिति वालों पर ही लागू होता है । पशु पक्षियों का जीवनक्रम परिस्थितियों पर ही निर्भर होता है । मौसम की अनुकूलता-प्रतिकूलता के अनुरूप वे जाते मरते-सुखी रहते हैं । उसी स्तर के जो लोग हैं उनके लिए परिस्थितियाँ ही सब कुछ हैं । स्वतन्त्र चिन्तन के अभाव में , तेजस्विता-मनस्विता के अभाव में निचले दर्जे के मनुष्य भी उसी हवा में बहते रहते हैं जिसमें कि समय या अवसर उन्हें बहा ले जाता है । गिरिवासी-वनवासी पिछड़े हुए लोग इसी प्रकार दिन काटते हैं । किन्तु जिनमें प्रतिभा है वे परिवर्तन के लिए कमर कसते हैं और वैसा ही कर गुजरते हैं । “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है ।” यह तथ्य भी है और सत्य भी है । संसार में अनेकों दिशाओं में जाने वाली अनेकों पगडंडियाँ हैं । इनमें से किसी को भी चुनना और किसी पर भी चल पड़ना पूरी तरह मनुष्य की अपनी इच्छा पर निर्भर है ।किसी पगडंडी पर चलने के लिए विवश नहीं है ।

जिधर चलने को मनुष्य की अपनी आकांक्षा होती है उसी के अनुरूप साधन बनने और सहायक मिलते जाते हैं । संसार में सभी प्रकार के साधन मौजूद हैं और सहायकों की कमी नहीं । अपना संकल्प बल जैसा भी काम करता है उसी के अनुरूप परिस्थितियाँ ढलती जाती हैं । सहायक मिलते जाते हैं और साधन मिलते हुए चले जाते हैं । मात्र दुर्बल मनोबल के लोग ही जड़ता अपनाये रहते हैं । परिवर्तन में कुछ कठिनाई तो अवश्य पड़ती है पर उनमें से प्रमुख है संकल्प बल का अभाव ।

उत्थान की तरह भी अपने ही चुनाव पर निर्भर है । दोनों में से जिसे अपनाने की अपनी तीव्र आकांक्षा होती है उसी राह पर पैर उठने लगते हैं । मनुष्य के पैर ऐसे हैं जो जिस भी दिशा में चलें उसमें रोकने वाला कोई है नहीं । प्रतिकूलताएँ तो मात्र परीक्षक की तरह आती है । उनके हाथ में यह घोषणा करना मात्र है कि अमुक कार्य के लिए जितना मनोबल चाहिये जितना प्रयत्न पुरुषार्थ होना चाहिए उतना हुआ या नहीं । यदि उसमें कमी रही है तो दुबारा उस भूल को सुधारने के पूरी-पूरी गुँजाइश है । मनुष्य भाग्य में बँधा हुआ नहीं है। वरन् उसे साहस और परिश्रम के आधार पर विनिर्मित करता है । इस तथ्य के अगणित प्रमाण मौजूद हैं जिनमें कोई व्यक्ति गई गुजरी परिस्थितियों में साधन रहित अथवा सहयोग रहित वातावरण में उत्पन्न हुआ किन्तु स्वेच्छापूर्वक भिन्न प्रकार का निर्णय करने के उपरान्त दिशा विशेष में चला और कंकड़ पत्थर रौंदता हुआ, चट्टानों पर चढ़ता हुआ , नदी नाले तैरता हुआ निरन्तर चलता रहा और दे सबेर में लक्ष्य तक जा पहुँचा ।

यह केवल उत्थान के सिद्धान्त पर ही लागू नहीं होता । पतन के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त लागू होता है । ऐसे असंख्य व्यक्ति हुए है जिन्हें जन्मजात सुविधा उपलब्ध थे । किन्तु कुमार्ग अपनाया और वैसे ही निकृष्ट स्तर के साथी सहयोगी मिलते चले गये और उस मार्ग पर चलते-चलते अन्ततः वे सर्वनाश के गर्त में जा गिरे । जन्मजात परिस्थितियाँ उन्हें नीचे गिराने के साधनों के लिए ही प्रयुक्त होती गयीं ।

उत्थान और पतन में से किसी को भी चुनना मनुष्य के पूरी तरह अपने हाथ में ही ।


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