अकर्मण्यता नहीं युगधर्म ही वरेण्य !

February 1992

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जीवन का उद्देश्य क्या है ? जिज्ञासा सच्ची हो तो वह कब अधूरी रही है । इस सृष्टि के सृजेता का विधान है कि जो भी अपने को जिसका अधिकारी बना लेता है, उसे पानी से वंचित नहीं रखा जाता है ।

आत्म साक्षात्कार या भगवत्प्राप्ति ? उत्तर तो एक ही है । यही उसे भी मिलना था और मिला और यह तो तुम्हारे अधिकार एवं रुचि पर निर्भर करता है कि तुम किसे चुनोगे । यदि तुम मस्तिष्क प्रधान हो तो प्रथम और हृदय प्रधान हो तो द्वितीय ।

वह सैनिक है सच्चा सैनिक और समझ लेना चाहिए कि सच्चा सैनिक लगन का सच्चा होता है । वह पीछे पैर रखना नहीं जानता किसी क्षेत्र में बढ़ने पर । सौभाग्य से पिता साधु सेवी थे और सत्संग ने उसे सिखा दिया है कि संसार के भोग तथ्यहीन हैं, उनमें सुख की खोज चावल के लिए भूसी कूटने जैसे है ।

‘परमार्थ का मार्ग तो वह दिखला सकता है, जिसने स्वयं उसे देखा हो ।’ आध्यात्म बौद्धिक विवाद का विषय नहीं, यह तो जीवनक्रम की संरचना में आमूल-चूल परिवर्तन का विज्ञान है और इसे वही दिखा बता सकता है जिसने स्वयं इस असम्भव का सम्भव किया हो । कालक मुनि की बातें , स्थविर कश्यप का मोहक वाक्जाल उसे इसी कारण नहीं आकर्षित कर सका । जिनकी वाणी और कर्म में विरोधाभास हो, उसे मार्गदर्शक बनाने का मतलब है, समूचे जीवन को नष्ट कर देना । उसने निश्चय किया महर्षि पतंजलि के श्रीचरण ही मेरे आश्रय हो सकते हैं ।

इस प्रेरणा के प्रबल प्रवाह में बहता हुआ वह बाल्हीक देश से विदिशा जा पहुँचा था । विदिशा से उज्जैन जो राजमार्ग जाता था, गोनर्द उसी पर एक छोटा सा नगर था । आचार्य पतंजलि का आश्रम उसी के समीप एक उद्यान में स्थित था । जब वह आश्रय में पहुँचा तो साँझ हो चुकी थी । सब आश्रमवासी यज्ञशाला में एकत्र थे । हवनकुण्ड में अग्नि प्रज्ज्वलित की जा चुकी थी और मन्त्रोच्चारण के साथ आहुतियाँ दी जा रही थीं । वह यज्ञशाला के एक कोने में जाकर बैठ गया । जब यज्ञ समाप्त हुआ , तो वह महर्षि के पास गया और चरण स्पर्श कर उन्हें प्रणाम निवेदन किया । “तुम ? “ आचार्य के सुदीर्घ स्नेह प्लावित नेत्रों में जिज्ञासा की चमक थी।

“मेरा नाम पुष्यमित्र है, आचार्य । मगध शासन की ओर से मेरी नियुक्ति बाल्हीक देश में थी । अब जब सम्राट सम्प्रति ने सेना समाप्त करने की घोषणा कर सैनिकों को बौद्ध भिक्षु बनने का आदेश दिया है, मुझे स्वाभाविक सेवानिवृत्ति मिल गई । मेरी श्रद्धा वैदिक मार्ग में है उसी पर चलकर मैं भी जीवन का उद्देश्य पाना चाहता हूँ ।” “ओह !” आचार्य किसी गहरे सोच में डूब गए । सोचने लगे कि पता नहीं कब तक अकर्मण्यता को आध्यात्मिकता समझा जाता रहेगा ? योगदर्शन के सूत्रकार अपने मन में उठी प्रश्न तरंग को अनुत्तरित छोड़ पुष्यमित्र की ओर देखते हुए बोले “अब तुम विश्राम करो वत्स ! बहुत दूर से आ रहे हो थक गए होगे ।”

“जो आज्ञा, आचार्य ।”

पतंजलि का आश्रम केवल दशार्ण में नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध था । सुदूर देशों से विद्यार्थी वहाँ शिक्षा के लिए आया करते थे । वेद , दर्शन, दण्डनीति , व्याकरण , शिल्प कला , धनुर्वेद, आदि सब विद्याओं के अध्ययन की वहाँ व्यवस्था थी । तक्षशिला काशी, उज्जैन आदि के प्रधान विद्यापीठों में उन आश्रम इस युग में प्राचीन वैदिक अध्ययन का एक मात्र के केन्द्र था । आचार्य पतंजलि की विद्वता और उनकी यौगिक विभूतियों की ख्याति के कारण इसका महत्व और अधिक बढ़ गया था ।

प्रातःकाल जब महर्षि पतंजलि नित्यकर्मों और याज्ञिक अनुष्ठान से निवृत्त हो गए, तो उन्होंने पुण्यमित्र को अपनी पर्णकुटी में बुलाया । वहाँ सब ओर भोजपत्रों और तालपत्रों पर लिखे हुए ग्रन्थों के ढेर लगे हुए थे । स्वयं आचार्य अपने सूत्रों को लिखने में व्यस्त थे । वात्सल्य से पुष्यमित्र से पुष्यमित्र को अपने पास बिठाकर प्रश्न किया-तुम बहुत उद्विग्न दीखते हो वत्स, रात्रि कुशलता से तो बीती ।”

“आप विधि बताएँ तो एकान्त में कुछ प्रयत्न करूं “कौन सा प्रयत्न करोगे तुम ?” आचार्य के मुख पर स्मित आया अपार वात्सल्य पूर्ण स्मित ।

“मन की चंचलता को रोकने का प्रयत्न ?” युवक ने उत्तर दिया । “आपने ही आदेश दिया है कि चित्तवृत्ति विरोध ही आत्मदर्शन का उपाय है ।”

“किन्तु चित्तवृत्ति का निरोध कैसे करोगे ? कर्म का त्याग करके ?”

“यदि प्रभु आज्ञा दें । कार्यव्यग्रता में मन की चंचलता रोक पाना कठिन है ।”

“एकान्त” इस एक शब्द के उच्चारण ने जैसे युवक के अस्तित्व की अनेकों परतें भेद दीं । वह कह रहे थे “यवनराज एवुथिदिम अपनी सैन्य शक्ति की वृद्धि में तत्पर है । भारत के उत्तरी पश्चिमी सीमान्त पर एक भयंकर तूफान के चिन्ह प्रकट हो रहे हैं । वह समय दूर नहीं जबकि कपिश कान्धार के पश्चिम से उठती हुई यह आँधी भारत के शान्त-वातावरण में विष घोल देगी । मौर्य सम्राट सम्प्रति इस विपत्ति से निश्चिन्त अणुव्रतो के पालन में तत्पर है । भारत का धन धान्य विदेशों में जा रहा है और तुम गरीबों की चीख-पुकारों अबलाओं-शिशुओं के क्रन्दन के बीच एकान्त की खोज करना चाहते हो । “ आचार्य की वाणी में एक ऐसा दर्द था जिससे युवक का मन हिल गया ।

“एकान्त में जाकर तुम श्वास क्रिया बन्द कर दोगे?” महर्षि समझाने के स्वर में बोल रहे थे “आहार एवं जल भी तथा शरीरस्थं यन्त्रों की क्रियाओं को भी ? यदि यह कर भी लो तो उस पत्थर में और तुम में क्या अन्तर होगा ?”

“प्रभु !”युवक अपने मार्गदर्शक के चरणों में गिर पड़ा । उसे लगा कि कोई घने अन्धकार का पर्दा उसके सम्मुख पड़ा था और अब वह उठने जा रहा है ।

“अध्यात्म अकर्मण्यता का पर्याय नहीं है । दोनों एक दूसरे के विरोधी तत्व हैं ठीक दिवस और रात्रि कि भाँति । इन्हें एक समझ लेने के कारण ही देश-समाज और मनुष्य जाति पतन के गहरे गर्त में समाते गए और समाते जा रहे हैं।”

सहसा महर्षि रुक गए । उन्होंने देखा कि उनका यह अनुगत इस पद्धति को हृदयंगम नहीं कर पा रहा है । उन्होंने दिशा बदली-क्रिया के संचालक एवं उसके फल के दाता-भोक्ता सर्वेश्वर हैं । हम तुम सब उन समर्थ के हाथ के यन्त्र हैं । हमें उनके चरणों में अपने आप को पूरी तरह अर्पित कर देना है ।

आपके चरणों में समर्पण, यही मेरा निश्चय है । युवक के स्वर में विश्वास था ।

‘यन्त्र तो नित्य निष्क्रिय है । उसकी क्रिया तो संचालक की क्रिया है । आचार्य ने यह अज्ञान की अन्धयवनिका उठा दी । सचमुच तुमने अपने को अर्पित कर दिया है तो नैष्कर्म स्वतः प्राप्त है ।

‘यह अशान्ति उस आनन्द की अनुभूति जो नहीं कर पा रहा हूँ ।’ बात सच है । यदि आन्तरिक शान्ति और आनन्द नहीं मिलता तो अवश्य हमसे भूल हो रही है

हमारे साधन में कहीं त्रुटि है ।

‘अपने को कर्ता मानना छोड़ दिया होता तुमने ! वह त्रुटि जो स्वयं साधक नहीं पकड़ पाता, उसका मार्गदर्शक सहज पकड़ लेता है । कोई पीड़ित नहीं कोई संतप्त नहीं तुम न उद्धारक हो सहायक इन रूपों में सर्वेश्वर तुम्हारी सेवा लेना चाहते हैं । तुम पर कृपा करके । उनकी सेवा करके तुम्हें कृतार्थ होना है ।

पतंजलि के स्वर युवक के अस्तित्व में चेतनता प्रवाहित कर रहे थे । उसे समझ में आने लगा था कि आत्मतत्त्व की प्राप्ति का उपाय अकर्मण्यता नहीं है । आचार्य की वाणी अभी भी उसके अन्तरमन का स्पर्श कर रही थी । वह कह रहे थे- ‘अवश्य प्रत्येक को इसे समझने में कठिनाई होती है । किन्तु तुम्हें क्यों होनी चाहिए ? तुममें बल है, शौर्य है , शस्त्र चालन की निपुणता है । ये साधन तुम्हें ईश्वर ने दिए हैं । इस नवसृजन के समय में देश-धर्म समाज की पुकार तुम्हारा कर्तव्य निर्देश करती है ।

“कर्म करने के तुम्हें साधन मिले हैं अतः उनका उपयोग करो।” उपदेश का उपसंहार हुआ । “कर्म का त्याग अर्थात् अकर्म में आसक्ति करके तो तुम अपने को उस सर्वात्मा की सेवा से वंचित कर लोगे । “

उपदेश के अनन्तर अपने प्रचण्ड कर्म से सर्वात्मा की अर्चना करने वाले महर्षि के इस यशस्वी शिष्य ने एक नया भारत गढ़ा । लोक जीवन ने उसे अपना सम्राट माना सम्राट पुष्यमित्र । विश्वात्मा की अर्चना का क्रम अभी भी जारी है बारी हमारी अपनी है ।


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