पाण्डवों का अन्त समय (Kahani)

February 1992

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जब पाण्डवों का अन्त समय आया तो वे हिमालय पर स्वर्गारोहण क्षेत्र में गलने के लिये चले गये ।

एक-एक करके सभी गलते चले गये । अन्त में युधिष्ठिर बच गये । उन्हें सशरीर स्वर्ग ले जाने के लिए देवताओं का विमान आया ।

युधिष्ठिर के साथ उनका पालतू कुत्ता भी था । उनने देवदूतों से कहा । मुझे स्वर्ग जाना है तो यह कुत्ता भी साथ चलेगा । स्वर्ग में कुत्तों के लिए स्थान नहीं था । सो देवदूतों ने मना कर दिया । खाली विमान वापस लौटा ले गये ।

देव गुरु बृहस्पति ने कहा जो कुत्ता युधिष्ठिर का प्रिय बन सका वह साधारण आत्मदानी नहीं हो सकता उसे भी सशरीर उनके साथ में ले आया जाय ।

विमान फिर से लौटकर आया और युधिष्ठिर को कुत्ते समेत स्वर्गलोक ले गया । इसे कहते हैं मैत्री का निर्वाह।

दैव और दानव दोनों अपने को बड़ा कह रहे थे । वस्तुस्थिति का फैसला कराने वे प्रजापति के पास पहुँचे ।

प्रजापति ने दूसरे दिन प्रातः दोनों पक्षों को बुलाया । दोनों को दो जगह भोजन करने बिठाया । व्यंजनों को देखकर दोनों का मन जल्दी खाने के लिए मचल रहा था ।

इसी बीच ब्रह्माजी ने मंत्र पढ़कर दोनों के हाथ कोहनी पर से मुड़ने बंद कर दिये । अब खाया जाय तो कैसे ? दानव खड़ा हाथ ऊपर ले जाते । ग्रास छोड़ते वह चेहरे के इर्द-गिर्द गिरता मुँह और कपड़े सभी खराब हो गये । पानी भी न पी सके । उन्हें भूखा प्यास उठना पड़ा ।

देवताओं ने अपने स्वभाव के अनुरूप एक ने दूसरे को अपने हाथ से खिलाया । इस प्रकार सभी का पेट भर गया । पानी भी एक ने दूसरे को पिल या । इस प्रकार देव समुदाय ने भोजन का पूरा आनन्द उठाया ।

ब्रह्माजी ने कहा जो अपने ही पेट का ध्यान रखते हैं वे छोटे है । जिन्हें दूसरों की चिन्ता रहती है वे बड़े भी बोले जाते और नफे में भी रहते हैं ।


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