बारह वर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण की समापन वेला आ पहुँची। एक विराट् संकल्प अपनी पूर्णता के अंतिम वर्ष में है। अब मात्र बारह माह बाकी हैं, जब हम 2001 में प्रवेश के माध्यम से एक नई सहस्राब्दी की शुरुआत कर रहे होंगे। इस महापूर्णाहुति का, जो प्रखर साधना वर्ष 1999 के दौरान ही आरंभ हो गई थी, प्रथम चरण भी 3 दिसंबर 1999 को प्रायः एक लाख स्थानों पर न्यूनतम एक करोड़ व्यक्तियों की -सभी संप्रदायों के व्यक्तियों की भागीदारी द्वारा आरंभ हो गया। अब द्वितीय चरण जो वसंत पर्व 10 फरवरी गुरुवार के दिन है, के लिए सभी परिजन प्रथम चरण के दिन है, के लिए सभी परिजन प्रथम चरण के विचारक्राँति प्रधान क्राँतिधर्मी साहित्य की घर घर स्थापना व मिशन की पत्रिकाओं के न्यूनतम पाँच गुना विस्तारपरक अनुयाज के साथ-साथ जुट गए हैं, कमर, कसकर तैयारी में लग गए हैं।
जिस गुरुसत्ता ने एक बीज बोकर विराट् वटवृक्ष खड़ा किया था, उसके विषय में नए-पुराने सभी परिजनों को बहुत कुछ जानकारी है, परंतु इस विराट् महापुरश्चरण के समापन पर हो रहे इस महाकुँभ रूपी महापूर्णाहुति से लेकर पूज्यवर गुरुदेव की जन्मशताब्दी (2011-2012) तक के बारह वर्षीय अभिनव अनुष्ठान को समझने के पूर्व उस पृष्ठभूमि को पुनः समझना जरूरी है, जिसने इस मिशन की नींव रखी।किसी भी भव्य विराट् स्तर पर संपन्न हो रहे महापुरुषार्थ की चकाचौंध में कहीं वह मूल विस्मृत न हो जाए, जिस पर इस विराट् गायत्री परिवार की नींव रखी गई है।
विराट् गायत्री परिवार का जनम हम यों तो सन् 1926 के वसंत पर्व से मानते हैं, जब अखण्ड दीपक के प्रकाश में परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी गुरुसत्ता की पहली झलक देखी व मार्गदर्शन पाया था। परंतु शरीर से परमपूज्य गुरुदेव के जन्म लेने (आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विं संवत् 1968 सन् 1911) से पूर्व के वातावरण का एक विहंगावलोकन करना भी प्रासंगिक होगा। भारतभूमि इस सदी के आगमन की वेला में न केवल विदेशी आक्राँताओं के चंगुल में थी, समाज भी पिछड़ेपन के अभिशाप से ग्रस्त था। प्रथम विश्वयुद्ध के बादल घटाटोप बन मँडरा रहे थे एवं एक अति महत्वपूर्ण शताब्दी की शुरुआत हो चुकी थी। यों देखा जाए तो भारतवर्ष का इतिहास एक सहस्राब्दी के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किए जाने पर हमें सही दृष्टि देता है। इस संबंध में विस्तार से तो परिजन अगले अंक में पढ़ेंगे ही, यहाँ कुछ झलक उस पृष्ठभूमि की दी जा रही है, जिसने 1901 से 2000 तक की अवधि को जन्म देने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
इस सहस्राब्दी की शुरुआत की भारतभूमि पर बाह्य आक्रमणों से हुई है। यदि इसे चार खंडों में बाँटे तो पहला युग 1001 से कबीर के आविर्भाव -क्रियाकलाप व अवसान तक का आता है। द्वितीय युग आता है समर्थ गुरु रामदास व छत्रपति शिवाजी महाराज का एवं तृतीय युग इसी क्रम से आगे बढ़ते हुए , ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस एवं स्वामी विवेकानन्द से जुड़ा हमें मिलता है। अनेकानेक संत , योद्धा , चिंतक , मनीषी इस बीच जन्मे हैं, पर सभी की भूमिका उस महासागर में विसर्जित होने की रही है, जिसका प्रतीकात्मक संकेत ऊपर किया गया। चतुर्थ व अंतिम युग परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी एवं परमवंदनीया माता भगवती देवी के युग्म के रूप में उद्भूत हुआ माना जा सकता है। जिन्होंने अपने माध्यम से नौ करोड़ की विराट् जनशक्ति वाले इस गायत्री परिवार रूपी संगठन की स्थापना की व नवयुग के आगमन का उद्घोष किया। श्री अरविंद, रमण महर्षि रवींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गाँधी आदि सभी इस कालप्रवाह के अंग मान जा सकते हैं, जिन्होंने आज के भारतवर्ष के स्वरूप को स्थापित होने में अपने अपने स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। किसी का भी योगदान कम नहीं, एक दूसरे से इक्कीस ही है।
कबीर का युग सुधारक युग कहा जा सकता है। संत कबीर ने एक जुलाहे परिवार से समाज सुधार का संदेश दिया। धर्म के नाम पर संव्याप्त भ्रष्टाचार -पाखण्ड को मिटाने हेतु संघर्ष किया एवं अपने समय में ही ऐसी स्थापना कर गए, जिससे आज के समाज का स्वरूप उभरकर आया है। महर्षि दयानंद ने निश्चित ही जराजीर्ण हो रहे समाज का कायाकल्प किया, पाखंड खंडिनी पताका फहराई किंतु यह कहा जा सकता है कि शुभारंभ यदि कबीर से न हुआ होता - परंपराओं से टक्कर लेकर विवेक की स्थापना न हुई होती, तो संभवतः अठारहवीं सदी का महर्षि का पुरुषार्थ संभव न हुआ होता। सिकंदर लोधी से मोरचा ले मुगलों का शासन स्थापित होने के पूर्व ही कबीर ने अध्यात्म के प्रगतिशील स्वरूप की झलक विश्वमानस को दे दी थी।
कबीर के बाद का समय मुगलों के आक्रमण से लेकर अकबर के समय एक सहिष्णु , समन्वयवादी विचारधारा के फैलने तथा फिर आततायी आक्रमण होकर दक्षिण भारत में इसका प्रतिरोध मराठों द्वारा किए जाने तक का है। इसी समय समर्थ रामदास अवतरित हुए। उन्होंने अपनी प्रचंड तप−साधना व मानसपुत्र छत्रपति शिवाजी के माध्यम से न केवल दक्षिणी भारत में यवनों के आक्रमण का प्रतिरोध किया वरन् एक अखंड बृहत्तर भारत के निर्माण की नींव रखने में भी वे सफल हुए। स्थान स्थान पर हनुमान मंदिरों की स्थापना कर उन्होंने धर्म चेतना का अलख जगाया। स्वस्थ-सबल-संयमी नागरिक ही राष्ट्र के कर्णधार हो सकता है। यह तथ्य समर्थ रामदास की दृष्टि में थाव उनका सारा पुरुषार्थ इसी निमित्त नियोजित हुआ। समर्थ व छत्रपति शिवाजी के युग्म न वह कार्य किया जो तत्कालीन पराधीन परिस्थितियों में बप्पारावल व राणाप्रताप द्वारा राजस्थान में तथा प्राणनाथ महाप्रभु व छत्रसाल द्वारा मध्य भारत में संपन्न हो रहा था। इन्हीं सबके कारण इक्कीसवीं सदी के अखंड भारत की नींव बनी। अलिंदी की भूमि ने अनेक संतों को महाराष्ट्र की भूमि से राष्ट्रनिर्माण के लिए नियोजित कर दिया एवं भक्तियोग की धारा भी साथ-साथ बहने लगी। समाज सुधार के आँदोलन अनेक दिशाओं से -बंगभूमि पंजाब सिंध उत्कल देश, सौराष्ट्र व विदर्भ से उपजने लगे।जन जन जाग उठा।
महाक्राँति का -संक्राँति का तीसरा युग रामकृष्ण परमहंस के उद्भव से इस सदी के प्रारंभ का है। 1936 में कामारपुकुर (बाँकुड़ा-बंगाल) में जन्मे ठाकुर रामकृष्ण परमहंस के अवतरण से ही श्री अरविंद ने इस कलियुग में सतयुग की शुरुआत मानी है एवं 175 वर्ष का संक्राँति काल तत्पश्चात् बताया है, जिसके अंतिम दशक से मानवजाति गुजर रही है। देखा जाए तो पराधीन भारत की पूरी अठारहवीं व उन्नीसवीं सदी पहले मुगलों फिर अंग्रेजों के आक्रमण एवं आतंक की पराकाष्ठा व तदनुसार भारतवासियों में हुई प्रतिक्रिया की अवधि है। जहाँ इस राष्ट्र को इस अवधि में जमकर दुहा गया, वहाँ प्रतिक्रिया स्वरूप जनविरोध के स्वर मुखरित होने लगे एवं स्वतंत्रता के लिए भारतमाता की इस उर्वर कोख से अनेक संत , राष्ट्रभक्त, तीर योद्धा नर-नारियों जन्मने लगे। यह पूरा समय मनीषियों चिंतकों आदर्शों के लिए अपना सब कुछ होम देने वाले राष्ट्र वादियों को समर्पित माना जा सकता है। महात्मा गाँधी , कवीन्द्र रवींद्र के साथ साथ कलकत्ता में जन्में नरेंन्द्रनाथ दत्त ने मठों से क्राँति का एक नया अध्याय लिख डाला। नरंदनाथ ही ठाकुर रामकृष्ण को समर्पित हो बाद में स्वामी विवेकानंद कहलाए। उन्हें योद्धा, स्वातंत्र्य वीर व संन्यासी कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी। तभी तो दक्षिणेश्वर की मिट्टी हाथ में लिए हजारों युवक अँग्रेजों का प्रतिरोध कर फाँसी पर चढ़ते चले गए। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई से लेकर भारतीय ध्वज की प्रणेता भीकाजी कामा, सरोजिनी नायडू भगिनी निवेदिता आदि ने नारी शक्ति के जागरण का शंखनाद किया श्री अरविंद व रमण महर्षि ने सूक्ष्म वातावरण का प्रचंड झंझावातों से आँदोलित कर वह वातावरण बनाया कि गाँधी जी, सुभाषचंद्र बोस, तिलक गोखले , शहीद भगतसिंह , बिस्मिल आदि अनेकों के पुरुषार्थ एकजुट हुए एवं भारत की आजादी की पृष्ठभूमि बन गई। रामकृष्ण मिशन जो इस अवधि में जन्मा , बीसवीं सदी में अनेकों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बन गया एवं सेवा साधना के क्षेत्र में अनेक आयाम स्थापित कर गया। इस युग के महानायक यदि ठाकुर रामकृष्ण परमहंस व उनके मानसपुत्र स्वामी विवेकानंद को माना जाए, तो अत्युक्ति न होगी।
संक्राँति का चौथा व नवयुग के आगमन के पूर्व का युग इस सदी का है, जिसका शुभारंभ हम अपनी गुरुसत्ता के इस धरती पर प्रादुर्भाव से मानते हैं। आश्विन कृष्ण त्रयोदशी संवत् 1968 (20 सितंबर, 1911 ईसवी) को ब्रह्ममुहूर्त में आँवलखेड़ा (जलेसर रोड, आगरा, उत्तरप्रदेश) में जन्में श्रीराम शर्मा आचार्य जी को वह कार्य करना था, जिसे आगे चलकर युगाँतकारी बनना था।बाल्यकाल से ही साधना में जिनकी रुचि रही हो, ऐसे बालक श्रीराम ने बारह वर्ष की आयु में महामना मदनमोहन मालवीय जी से दीक्षा में गायत्री मंत्र पाया। यही उनकी जीवनसाधना की धुरी बन गया। पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पर्व की वेला में सूर्योदय के पूर्व गायत्री उपासना कर रहे साधक श्रीराम के पिताजी की आँवलखेड़ा स्थित हवेली के कक्ष (जो एक स्मारक के रूप में आज विनिर्मित है) में दीपक के प्रकाश से एक ज्योति पुरुष प्रकट हुए व उन्होंने अपने शिष्य को सूक्ष्मशरीर से दीक्षा दी,विगत जन्मों की जानकारी कराई व भविष्य में क्या कुछ किया जाना है, इस संबंध में विस्तृत मार्गदर्शन दिया। उन्होंने तीन महत्त्वपूर्ण निर्देश दिए- 1. अखण्ड दीपक जिसमें से उनका प्रकाश शरीर प्रकटा था, निरंतर प्रज्वलित रखना, अखण्ड यज्ञ के रूप में संचालन किया जाना तथा उसके प्रकाश में ही भविष्य के सभी निर्णय लिए जाना। इसी ज्योति के ज्ञान शरीर रूप में ‘अखण्ड दीपक जिसमें से उनका प्रकाश शरीर प्रकटा था, निरंतर प्रज्वलित रखना, अखण्ड यज्ञ के रूप में उसका संचालन किया जाना तथा उसके प्रकाश में ही भविष्य के सभी निर्णय लिए जाना। इसी ज्योति के ज्ञान शरीर रूप में ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका को समय आने पर प्राण चेतना के संदेशवाहक के रूप में क्राँतिकारी चिंतन प्रसारित कर राष्ट्र की स्वतंत्रता की आधारशिला के रूप में प्रकाशित किया जाना।
2. चौबीस -चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण निर्धारित तप−साधना द्वारा आरंभ कर इनकी तपऊर्जा से एक विराट् गायत्री परिवार खड़ा करना। जन्म जन्माँतरों से पुण्य संग्रह करती आ रही देवताओं की पक्षधर जागृतात्माओं को संगठित कर एक ही माला में पिरोया जाना ताकि सतयुग की आधारशिला वे रख सकें।
3. चल रहे स्वतंत्रता संग्राम में दस वर्ष तक सक्रिय भागीदारी, ताकि उसे गति मिल सके। साधनात्मक पुरुषार्थ के साथ यह भूमिका सामयिक ही है - यह बताया गया। तत्पश्चात् जनसंपर्क व साहित्य साधना द्वारा विचारक्राँति अभियान को विश्वव्यापी बनाना है -यह मार्गदर्शन गुरुसत्ता द्वारा दिया गया।
1926 का वर्ष हमारे इस विराट् मिशन गायत्री परिवार रूपी संगठन के बीजारोपण का वर्ष हैं विक्रम संवत् 1983 सन् 1926 की वसंत पंचमी 18 जनवरी , सोमवार के दिन हुआ, यह शुभारंभ ऐतिहासिक बन गया। आगामी 75 वर्षों में इसे ऐतिहासिक भूमिका निभानी थी। संयोग से यह अवधि नवयुग के आगमन के साथ 2001 में अखण्ड दीपक की हीरक जयंती व सारे वर्ष को उसी रूप में मनाने के लिए निर्धारित हो पूरी होने जा रही है। कितना विलक्षण है हम सबका सौभाग्य कि हम इस पल से -इस घड़ी से गुजर सकेंगे व अपना जीवन कृतार्थ कर सकेंगे। अनेक दृष्टियों से 1926 ईसवी का यह वर्ष ऐतिहासिक वर्ष कहा जा सकता है। सर्वप्रथम हमारी गुरुसत्ता का आध्यात्मिक जन्म इसी वर्ष से -गायत्री परिवार का जन्म इसी वर्ष से निरंतर प्रज्वलित है। दूसरे यह परमवंदनीया माता जी द्वारा शरीर से आगरा नगर में जन्म लिए जाने का वर्ष भी है। तीसरे यह कि इसी वर्ष को श्री अरविंद ने भागवत् चेतना के धरती पर अवतरण का वर्ष घोषित किया। उन्होंने जन-जन को बताया कि नवयुग को साकार धरती पर उतारने वाली दैवीचेना का लीला संदोह स्वयंसेवक संघ का विधिवत् गठन व इस नाम से भारत भर में संचालन इसी वर्ष से आरंभ हुआ।चार विलक्षण संयोग कुछ अति महत्वपूर्ण समय के ही द्योतक हैं।
जिस चमत्कारी ढंग से इस मिशन का शुभारंभ हुआ है, उसे आज के विराट् रूप को देखने वाले संभवतः समझ नहीं सकते। समस्त घटनाक्रमों को हम आज जोड़ रहे हैं पर ये सहज ही घटित होते चले गए।शुभारंभ छोटा ही होता है। अंतिम परिणति तथा विस्तार अत्यधिक विराट् व कल्पना से भी परे होता चला जाता है। गोमुख जहाँ से गंगा ग्लेशियर के पिघलने के रूप में निकलती है , अत्यधिक छोटी है। क्रमशः कई नदियों के मिलते -मिलते भागीरथी से गंगा बनकर मैदानी क्षेत्र में ऋषिकेश -हरिद्वार में उतरती है व यहाँ से बढ़कर गंगासागर पर जब समुद्र से मिलती है तो उसका विराट् रूप देखते ही बनता है। हर भव्य परिणति वाले घटनाक्रम की शुरुआत सदैव छोटी ही होती है। एक अखण्ड दीपक से उपजे प्रकाश ने देवसंस्कृति दिग्विजय में लगे करोड़ों सृजन -शिल्पियों के समुदाय का कैसे एकजुट कर एक विराट् गायत्री परिवार की परिधि में बाँध दिया, यह एक बड़ी मर्मस्पर्शी कथा−गाथा है। इसके मूल में परमपूज्य गुरुदेव का कठोर तप व परमवंदनीया माताजी की स्नेह संवेदना है। प्रखर प्रज्ञा व सजल श्रद्धा के इस युग्म ने ही उस पौधे को सींचा है जिसे 1926 से पालन-पोषण कर पूज्यवर अकेले 1943 तक ही यात्रा तक बढ़ाते रहे व फिर दोनों ने मिलकर उसे बड़ा किया। हम सभी उनके अंग-अवयव-घटक मात्र हैं, जिनको विराट् पुरुष रूपी ऋषियुग्म की सहायता हेतु अवतरित होने का सौभाग्य मिला है।
यह कथा−गाथा एक विशेष कारण से कहनी पड़ रही है। आज हम इस अंक द्वारा सन् 2000 का शुभारंभ तब कर रहे हैं जब पाश्चात्य लोगों की निगाह में तकनीकी जटिलताओं से भरी एक सहस्राब्दी आरंभ हो चुकी है। हमारी दृष्टि में अभी एक डेढ़ वर्ष की प्रसव पीड़ा से भरा कठिन समय नवयुग आगमन के पूर्व और शेष है। हम सभी उस विराट् गायत्री परिवार के स्वरूप को भली भाँति समझ सकें, जा कि इस अवधि में एक नहीं, पाँच नहीं वर्तमान परिकर से दस गुना बढ़ने जा रहा है।यह विराट् रूप हमारा हो, उसके पूर्व यदि संगठन के मूल बीज व उसको पोषण देने वाली सत्ता का स्वरूप समझा जा सके तो फिर उस विराट् का निर्वाह करने में भी किसी को कठिनाई नहीं होगी।
परमपूज्य गुरुदेव ने तप साधना की पृष्ठभूमि पर गायत्री परिवार को खड़ा किया है।’अखण्ड ज्योति’ पत्रिका के 1937 से आरंभ होते समय भी उनका अनुष्ठान चल रहा था एवं जब 1942 में राजनीतिक क्षितिज पर ‘भारत छोड़ो’ आँदोलन की घूम मची थी, तब विक्रम संवत् की 2000 आरंभ होते ही उन्होंने घोषणा कर दी थी कि आज से 55 से 65 वर्ष का समय भारत के उत्कर्ष का -अभ्युदय का समय होगा।भारतभूमि तपस्वियों की भूमि रही है।यहाँ गायत्री साधना का बीज कण-कण में बसा हुआ है। बस, उस पुरातन ऋषि संस्कार को पुनर्जीवित करना भर शेष है। पूज्यवर की घोषणा को बल मिला उनके 24 लक्ष के 24 महापुरश्चरणों की समाप्ति पर हुए एक विराट् अनुष्ठान द्वारा जिसमें 24 लाख आहुतियों का यज्ञ किए जाने की घोषणा हुई। गायत्री तपोभूमि विनिर्मित हुई एवं तदुपरांत ही 1958 के सहस्रकुंडी महायज्ञ का संकल्प घर घर गूँजने लगा। परमवंदनीया माताजी जिनके स्नेह एवं ममत्व ने गायत्री परिवार की धुरी बनने का काम किया, ने कंधे से कंधा मिलाकर परमपूज्य गुरुदेव के साधना समर में भागीदारी की। ऋषि-ऋषिका का युग्म पुरातनकाल में जो भूमिका निभाता चला आ रहा था, उसी की पुनरावृत्ति अब हुई एवं उसी आंवे में तप कर एक विराट् गायत्री परिवार खड़ा होता चला गया है।
गायत्री परिवार के जन्म से लेकर अब तक जब हम प्रखर साधना वर्ष के पूर्वार्द्ध का समापन कर रहे हैं व अगला वर्ष साधना महापूर्णाहुति वर्ष के रूप में आरंभ करने जा रहे हैं - जहाँ देखें, वहाँ तप−साधना एवं संवेदना परस्पर गुँथी देखी जा सकती है। ‘स्वस्थ शरीर -स्वच्छ मन ‘ के विकास से आरंभ हुई हमारी महापूर्णाहुति की पहली मंजिल व उसके अनुयाज की अवधि से हम गुजर रहे हैं एवं सभ्य समाज के विकास हेतु 10 फरवरी 2000 वसंत पंचमी से आरम्भ हो रहे दूसरे चरण की शुरुआत करने जा रहे हैं । यह महापुरुषार्थ अब सतत् चलता रहकर 1 जून 2001 गायत्री जयंती को समाप्त न होकर नई करवटें लगा लेगा एवं 8.2.2011 से 28.1.2012 (वसंत पर्व से वसंत पर्व) तक मनाए जाने वाले महाशताब्दी वर्ष तक चलेगा। इस प्रगति यात्रा में हम सभी प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा के अनुदानों से लाभान्वित तो हों , पर कभी भी तप−साधना ममत्व-संवेदना के मूल बीज को जो कि इस संगठन का प्राण है, भूलने न पाएँ यही परमसत्ता से -कण-कण में समाई गुरुसत्ता से प्रार्थना है।