सिकंदरिया का राजा टालेमी, यूक्लिड से ज्यामिती सीख रहा था, किंतु यह कठिन विद्या उसके पल्ले ही नहीं पड़ रही थी। एक दिन टालेमी अपना धैर्य खो बैठा। उसने अपने गुरु से पूछा -”क्या ज्यामिती सीखने का कोई सरल मार्ग नहीं हैं? यूक्लिड ने गंभीरता से कहा -राजन् ! आपके राज्य में जनसाधारण और अभिजात वर्ग के लिए कोई राजमार्ग नहीं है। “ बात टालेमी ज्यामिती सीखने के लिए कठोर परिश्रम करने लगा।
राजा ज्ञानी गुरु की तलाश में थे।कोई उपयुक्त गुरु न मिला, तो खोज के लिए एक घोषणा की गई। राजा जमीन मुफ्त देंगे, सबसे जल्दी और सबसे बड़ा महल बनाकर दिखाने वाले को राजगुरु माना जाएगा। इस प्रलोभन में अनेक संत आए। जमीन ली। चंदा किया और महल बनाने में जुट गए। राजा रोज प्रगति देखने जाया करते। निर्माणकार्य तेजी से चल रहा था। एक संत को दी गई जमीन पर यथास्थान प्रतिदिन बैठे रहते पाया। पूछा -”आप क्यों नहीं आश्रम बनाते? “ उन्होंने उत्तर दिया। “यह विराट् विश्व मेरा ही घर है। इससे बड़ा और क्या बनाऊँ? बनाने का उद्देश्य सँभालना -सजाना होता है, सो इस विश्व -वसुधा को ही सँभालने-सजाने में लगा रहता हूँ। नया बनाकर क्या करूं? “ राजा को तत्वज्ञान का मर्म समझ में आया। राजा ने उन्हीं को सच्चा ज्ञानी पाया और राजगुरु का पद प्रदान किया।