न विधि , न संस्कार, यह कैसा परिवार

January 2000

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महानगरों में दाँपत्य जीवन की स्थिति पर किए गए अध्ययन में चौंका देने वाले निष्कर्ष सामने आए हैं। अध्ययन ज्योतिषीय है और एस्ट्रोविजन नामक संस्था ने किया है, लेकिन इसकी निष्पत्तियाँ समाजशास्त्रीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। पिछले दस वर्षों में हुए विवाहों में बारह प्रतिशत लोगों ने बिना किसी संस्कार और विधि के गृहस्थ जीवन आरंभ कर लिया। उन्होंने न तो कोई शास्त्रीय विधि अपनाई, न बड़े बूढ़ों का आशीर्वाद लेकर गृहस्थी की चौखट में पाँव रखा और न ही कानून के अनुसार शपथ लेकर या अदालत में पंजीयन कराकर दंपत्ति बने। बस यों ही साथ रहना शुरू किया और वे युगल माता-पिता भी बने।

प्रचलित भाषा में इस तरह के विवाह को ‘सहजीवन’ कहते हैं। पश्चिमी देशों में यह पद्धति खासी लोकप्रिय है। परंपरागत पारिवारिक मूल्यों से रहित वहाँ के समाज में स्त्री−पुरुष वैसे भी सुख विलास के लिए परस्पर संपर्क में आते हैं। साथ रहते हैं और जब तक निभता है साथ निभाते हैं, वरना साल दो साल, चार छह साल बाद अलग हो जाते हैं। भारत जैसे देश में परिवार अथवा दाँपत्य को इस तरह हलके फुलके ढंग से नहीं लिया गया। यहाँ विवाह का अर्थ जनम जन्माँतरों का बंधन है। जन्म-जन्मांतर नहीं तो कम से कम जीवनभर चलने वाला साथ तो है ही। एस्ट्रोविजन संस्था के कराए अध्ययन में जिन जोड़ो ने आपसी रजामंदी और समझ के अनुसार साथ रहना शुरू किया, उनमें सत्तर प्रतिशत लोग एक-दूसरे को कोसते-कलपते हुए अलग होकर रहे हैं। जो अलग नहीं हो पा रहे, वे एक वृक्ष की शाखा पर बैठे दो विजातीय पक्षियों की तरह बेरुखी जिंदगी जी रहे हैं अथवा अलग होने की तैयारी में हैं।

संस्था ज्योतिष से संबंधित है और उसने अध्ययन में सभी युगलों की जन्मकुण्डली को भी जाँचा -परखा है। ज्योतिष की सामान्य जानकारी रखने वाले विद्यार्थी भी जानते हैं कि कुँडली में सातवाँ भाव जीवनसाथी की स्थिति और विवाहित जीवन के रंग-ढंग बताता है। ‘सहजीवन’ या लिविंग विदक प्रयोग से गुजर रहे इन युगलों की वैवाहिक स्थिति शास्त्रीय दृष्टि से ‘गंधर्व’ श्रेणी में आती है। गंधर्व विवाह का अर्थ है-परस्पर आकर्षण के वशीभूत होकर किए गए प्रणय संबंध और उनका प्रवाह। इन युगलों की कुँडली में सातवाँ भाव या तो राहु से दृष्ट था अथवा उसके अधीन साथ ही वह शनि से भी प्रभावित था। राहु मतिभ्रम लाने वाला ग्रह है। ‘एस्ट्रोविजन ‘ के संयोजक आचार्य वाचस्पति के अनुसार संस्कार और विधि की उपेक्षा-अवज्ञा मतिभ्रम के कारण ही हो सकती है। कुछ नहीं तो अदालत में जाकर विवाह का पंजीयन कराने में कौन-सा खर्च आता है कहाँ के सरंजाम जुटाने पड़ते हैं और कैसी बाधाएँ आ सकती है।

मर्यादा और लोकाचार की उपेक्षा कर यूँ ही साथ रहने लगना यह कोई क्राँतिकारी कृत्य नहीं है। इस तरह का प्रणय व्याभिचार की श्रेणी में आता है। बड़े शहरों में जहाँ युवक-युवती अकेले रहते हैं, एक-दूसरे के संपर्क में आने के बाद आवेश और आकर्षण के चलते करीब आते हैं। अभिभावक उनसे प्रायः दूर रहते हैं। उनका कोई नियंत्रण नहीं होता। शारीरिक और बौद्धिक आकर्षण उन्हें एक छत के नीचे इकट्ठा करता है। ऐसे युगलों की कुँडली में चंद्रमा आमने-सामने देखे गए है। ज्योतिषी के अनुसार चंद्रमा मन का अधिपति ग्रह है। वह आकर्षित भी करता है और व्यथित भी। जिन कुँडलियों में यह ग्रह आमने-सामने नहीं हैं, उनके जातक राहु की दशा या अंतर्दशा निकलते ही रोते पीटते अलग हो जाते हैं। लेकिन कुछ मामलों में सहजीवन फिर भी चलता रहता है । उन युगलों की संतानें भी होती है।

‘सहजीवन‘ बिता रहे अथवा गंधर्व श्रेणी का विवाह करने वाले दंपत्तियों में पहली संतान के बाद तनातनी शुरू हो जाती है।आचार्य पराशर के अनुसार उनकी कुँडली में नहीं तो गोचर में शनि की दृष्टि सातवें भार पर पड़ने लगती है।

शनि क्रूर ग्रह माना गया है। उसकी दृष्टि अशुभ-अमंगल है और प्रायः दुःख ही देती है। डॉ. उमेश कौशिक के अनुसार शनि अनुशासन का देवता है। धर्म-मर्यादा में रहने वालों को वह ज्यादा कष्ट नहीं देता । बहुत बार तो वह उन्हें सुख आर स्थिर प्रगति भी देता है। गंधर्व श्रेणी का दाँपत्य जी रह युगलों न यदि संस्कार और विधि दोनों की उपेक्षा की है वो शनि की दृष्टि उन्हें अनिवार्य रूप से पीड़ित करती है। ऐसे लोगों का दाँपत्य रोते-झींकते चलता रहता है और एक अवस्था आने पर संबंधों का दारुण अंत होता है। डॉ. उमेश कौशिक ने तनाव से बेहद पीड़ित ऐसे युगलों को सलाह दी कि वे अपने संबंधों को वैधानिक बना लें, उन्हें धर्म -मर्यादा में बाँध ले। इस तरह का परामर्श मानने वाले आठ युगलों में से छह के आपसी संबंधों में सत्तर प्रतिशत तक सुधार आया थोड़ा बहुत तनाव तो चलता ही रहता है।

गुरु से दृष्ट प्रणय संबंधों में युगलों ने आवेग और आकर्षण से प्रेरित होकर साथ रहना शुरू कर दिया, लेकिन देखा गया कि उन्होंने धर्म-मर्यादा में जल्दी ही अपने आपको बाँध लिया। ज्यादा औपचारिकताएं नहीं की तो मंदिर या अदालत में जाकर ही अपने संबंधों की घोषणा कर दी- गृहस्थ धर्म के पालन की प्रतिज्ञा कर ली -उस स्थिति में राहु का आधिपत्य और प्रभाव कुछ नहीं बिगाड़ पाया।

समाजशास्त्री इस तरह के विवाह संबंधों को लेकर चिंतित है। उनके अनुसार सहजीवन की बढ़ती हुई लोकप्रियता परिवार संस्था के आस्तित्व पर प्रश्नचिह्नों लगा रही है। अलग होने के बाद पति -पत्नी तो किसी तरह जीवन काट लेते है अथवा नया साथी चुन लेते हैं। समस्या बच्चों के लिए हो जाती है। उनकी देखभाल का प्रबंध हो जाए तो माता-पिता के लाड़-दुलार का अभाव उनके विकास को कुँठित कर देता है।

ज्योतिष के साथ समाजशास्त्र में भी दखल रखने वाले डॉ. कौशिक मानते हैं कि गंधर्व विवाहों का बढ़ता हुआ चलन मनुष्य को आदिम स्थिति में ले जाकर छोड़ेगा- उस स्थिति में जब स्त्री पुरुष दैहिक कारणों से संपर्क में आते थे और कुछ समय साथ रहने के बाद अलग हो जाते थे। उस आदिम स्थिति में होने वाली वंशवृद्धि मनुष्येत्तर प्राणियों की तरह संख्या ही बढ़ती रहेगी, सभ्यता की दृष्टि से तो हम उसी बिंदु पर खड़े होंगे, जहाँ से आरंभ किया गया था।

कानूनी दृष्टि से सहजीवन बिता रहे दंपत्तियों में कोई किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है। दो-तीन बच्चों को जन्म देने के बाद पति अलग हो जाए तो पत्नी उसे पालन -पोषण के लिए बाध्य नहीं कर सकता। विवाह -विच्छेद, अलगाव और भरण पोषण का उसका कोई दावा नहीं बनता, न ही पति इस तरह के किसी अधिकारी अथवा दायित्व की अपेक्षा कर सकता है। कुछ मामलों में तो यह भी हुआ कि पाँच छह साल तक साथ रहे दंपत्ति में पति या पत्नी की दुर्घटना में मृत्यु हो गई। दिवंगत जीवनसाथी की जमापूँजी पर दूसरे सहचर का कोई अधिकार नहीं माना गया। मृत पति या पत्नी के रिश्तेदार और जमा पूँजी के साथ भविष्य की रकम भी समेटकर चले गए। असल उत्तराधिकारी के हाथ कुछ नहीं लगा।

सामाजिक और राजनीतिक जीवन में इस तरह के संबंध निंदा और तिरस्कार की दृष्टि से ही देखे जाते हैं। हिर है उसका प्रभाव संतान पर भी पड़ता है। एस्ट्रोविजन के अध्ययन में यह निष्कर्ष आश्चर्यजनक है कि सहजीवन बिता रहे दंपत्तियों की संतानें और जोड़ों की संतानों की तुलना में ज्यादा बीमार, अल्पायु और असामान्य होती है। तीन उदाहरणों से इस निष्कर्ष की पुष्टि की गई। उनमें एक बच्चा बेहद गुमसुम रहता था। अपने साथ के बच्चे की तह पढ़ने -लिखने में नहीं चल पाया। आठ वर्ष की उम्र में उसे मामूली बुखार हुआ और चल बसा। दूसरे उदाहरण में बच्चे को अपने माता पिता का साथ कभी नहीं सुहाया । पाँच साल की उम्र में वह दादा दादी के संपर्क में आया। उनके साथ ऐसा हिलमिल गया कि बाप का भूल ही गया। तीसरे उदाहरण में बच्चा लगातार बीमार रहा। उसके उपचार में कोई कमी नहीं रही लेकिन न रोग का निदान हो पाया और न ही औषधियाँ लग पाई। अनेकानेक अपराधी भी ऐसे ही बच्चों में निकलते देखे गए। विधि और मर्यादा की आज्ञा अपने निजी जीवन को ही नहीं, आने वाली पीढ़ियों को भी बुरी तरह प्रभावित करती है। विचारशील व्यक्तियों को सहजीवन परिवार संस्था के लिए चुनौती और सभ्यता -संस्कृति के पहिए को विलोम गति देने वाला लगता है। यह स्वाभाविक ही है।


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