बिनु सत्संग विवेक न होई

January 2000

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सेठ मूलराज ने जीवनभर धन-संपत्ति का अर्जन किया। उनके उत्कट पुरुषार्थ एवं भगवान् की कृपा से उन्हें घर -परिवार के सारे सुख -साधन उपलब्ध थे। परिवार के सभी सदस्य उन्हें भरपूर प्यार और सम्मान देते थे। परिवार के सदस्यों के साथ नगरवासी भी उनके अपने थे । उनका इंगित ही हर किसी के लिए आदेश था। अनवरत कर्मरत रहते हुए उनके जीवन के 60 वर्ष कैसे निकल गए, इसका उन्हें भान ही नहीं हो पाया। लंबे-चौड़े कारोबार के स्वामी होने के नाते वे सदा व्यस्त रहे और ज्यादा से ज्यादा अर्जन उपार्जन को ही व जीवन की सफलता मानते रहे। शायद धन का चक्कर ही ऐसा होता है कि उसके सामने बाकी सारी चीजें गौण हो जाती है।

उनके साठवें जन्मदिन पर हमेशा की ही तरह लोगों ने शुभकामनाएँ प्रकट की। सेठ जी मुस्कराते हुए सभी की मंगल कामनाएँ स्वीकार कर रहे थे। पर न जाने क्यों इस बार उन्हें लग रहा था कि शुभेच्छा लेना और आभार मानना ही तो सब कुछ नहीं है- जन्मदिन तो शायद इससे कुछ अधिक की अपेक्षा रखता है। यह तो जीवन का वह पुण्य दिवस है, जबकि गहराई से आत्मनिरीक्षण एवं आत्मसमीक्षा की जानी चाहिए, साथ ही कुछ ऐसा भी हो, जिससे कि जीवनलक्ष्य के प्रति संकल्पबद्धता अधिक तीव्र एवं उत्कट हो।

अबकी बार आत्मा के स्वर उन्हें पुकार रहे थे कि सेठ तुम पर अब वृद्धावस्था हाव हो चुकी है। यह असीम संपत्ति समूचा धन -वैभव, सारी चकाचौंध यही धरी रह जाएगी और हंस अकेला उड़ चलेगा। और तब?

इसी चिंतन मंथन में उलझे सेठ मूलराज को नींद नहीं आई। तर्क-वितर्क चलते रहे। उनका मन गहरी ग्लानि से भर गया। जीवनभर कुछ नहीं किया- न दूसरे का ही कुछ विशेष भला किया और न स्वयं के सार्थक हितचिंतन में तत्पर हुए। अब तो लड़के भी बड़े और समझदार हो गए है। वे व्यापार सँभाल ही रहे है। फिर न जाने क्यों मैं इतना आसक्त हो रहा हूँ। उन्होंने आखिर निर्णय ले ही लिया कि कल ही वे किसी आध्यात्मिक गुरु की शरण प्राप्त कर अपने शेष जीवन को परमेश्वर के गुणानुवाद और लोकहित में खपा देंगे। इसी सोच-विचार में चाँद कब अपनी तारों वाली बारात लेकर चला गया , पता ही न चला।

भोर होते ही, नित्यकर्म से निपटकर सबको आश्चर्य में डालते हुए वे यात्रा पर निकल पड़े। उनको सच्चे गुरु की तलाश थी और इस खोज में वे अनेक तीर्थों में गए। जो भी संत मिलता, वहीं अपने प्रश्न रखते और समाधान माँगते। इस प्रक्रिया में उन्हें एक अद्भुत एवं विलक्षण संत से मुलाकात हो ही गई।

सेठ जी ने उनसे पूछा- “महात्मन् ! आनंद क्या वस्तु है?”

प्रश्न सुनकर वे योगीराज मुस्कराए और फिर बोले-”सेठ जी ‘आ’ का अर्थ है अन्य, ‘न’ का अर्थ है नहीं और ‘द’ कस अर्थ है दर्शाना अर्थात् दिखाई देना। आनंद का अर्थ है ‘जब अन्य कोई दिखाई न दे। मैं का अस्तित्व समाप्त होकर जब तू ही तू रह जाए। तब समझो कि आनंद की भूमि में प्रवेश हुआ है। “

सेठ जी काफी प्रभावित हुए। वे बोले- “आजकल तो लोग चमत्कार को ही नमस्कार करते हैं। ऐसे में सच्चे आनंद की खोज कैसे हो?”

“सेठ जी ! लोग करामातों अर्थात् सिद्धियों का प्रयोग करते हैं। परंतु इसमें धरा ही क्या है! आप लोग अँगूठियाँ लेते फिरते हो, यह तो बाजार में कुछ रुपयों में मिल जाती है। मदारी सरेआम लोगों के सामने आम लगा देता है, किंतु उसका मूल्य दो-चार रुपये है। पर उस ईश्वर की लीला बड़ी अनोखी है। गोपियाँ उसको छछिया भर छाछ पर नाच नचाती थीं? क्या वह छाछ का भूखा था? क्या उसे मक्खन नहीं मिलता था? यह उसकी लीला थी। गोपियाँ उसकी बन गई। तो आनंद भी आ गया। “ महात्मा जी ने अपनी बात की स्पष्ट रूप से व्याख्या की।

“नाम तो हम लोग भी उसका दिन रात लेते हैं। पूजा-पाठ करते हैं, फिर भी जीवन में आनंद का नामोनिशान नहीं है।” सेठ मूलराज ने अबकी बार अपने हृदय की जिज्ञासा प्रकट की।

“अरे भई! आनंद तो आता है। वह परमात्मा तो बरतन में अमृत ही डालता है, परंतु यदि बरतन ही फूटा हो तो अमृत डालने वाले का क्या दोष है? शराब सदा बोतलों में भरी रहती है। पर बोतलों को कभी भी नशा नहीं आता। नशा उसी को चढ़ता है, जो शराब पीता है। एक बार शराब पी लेने पर, फिर पीने वाला कुछ नहीं करता, जो कुछ करती है , वह तो शराब ही करती है। इसी प्रकार उस प्रभु का नशा सभी शरीरों में लबालब भरा है। जो भी उसको समझ लेता है , उसी को आनंद मिलता है।” उन संत ने अपनी बात विस्तार से समझाई।

तीर्थयात्रा करते करते सेठ जी काफी ज्ञानी हो गए थे।अतः उन्होंने पुनः पूछा। “भाव व कर्म का भेद क्या है?”

महात्मा जी कहने लगे- “यह भेद तो कुछ यूँ है कि कर्म दिखने में आ जाता है, जबकि भाव दिखने में नहीं आता। डॉक्टर ऑपरेशन करता है। कर्म उसका काटने का है, जिसमें मरीज का कष्ट होता है , परंतु उसका भाव है कि मरीज किसी भी तरह स्वस्थ हो जाए। भगवान् तो भाव का भूखा है । हर समय उसका भाव से स्मरण करते रहना चाहिए।”

“महात्मन्! प्रेम क्या है?”

“जब प्रभु के अलावा कोई अन्य दिखाई न दे, तब समझना चाहिए कि प्रेम है। प्रेम किसी को दिखाकर करने का नहीं है। प्रेम तो अपने प्रियतम से भी छिपाया जाता है। प्रेम बताने पर दूषित हो जाता है।पर वासना और कामना रहित प्रेम ही सच्चा प्रेम है।” उन्होंने समझाया।

“तर्क कहाँ तक रहता है?”

“जब तक उस प्रभु से पूरा नहीं है, तभी तक तर्क है।”

“मैंने कई प्रश्न पूछे और आपने स्नेह उपयोगी व सामयिक उत्तर दिए। अब मैं एक उलझन भरा प्रश्न पूछ रहा हूँ।”

“पूछिए” महात्मा जी के गंभीर मुख पर मुस्कान खेल रही थी।

मन का रहस्य क्या है?

संत बड़े रहस्यपूर्ण ढंग से हँसते हुए बोले- “मन में सारे रहस्य रहते हैं और आप मन का ही रहस्य जानना चाहते हैं खैर सुनिए। मन के तीन रूप हैं, लुब्धमन, मुग्धमन और बुद्धमन। लुब्धमन -अर्थ को ही जीवन का आधार मानता है। मुग्धमन -विकार को ही अमृत की धार मानता है।” अपनी बातों को सूत्र रूप में कहकर महात्मा जी ने एक प्रश्नवाचक दृष्टि से सेठ मूलराज की ओर देखा- मानो, वे पूछना चाह रहें हों-कोई प्रश्न और?

तब तक सेठ जी स्वयं ही कहने लगे - “महात्मन् ! अब मैं एक अंतिम प्रश्न और पूछ रहा हूँ। कृपा करके यह बतलाएँ कि इस संसार में सभी ज्ञान के पीछे भाग रहे है। ऐसे में जानने योग्य वस्तु क्या है?”

इस बार महात्मा जी ने जोर का ठहाका लगाया। ठहाके की यह गूँज समूचे वातावरण में बिखर गई। इस बिखरती गूँज के बीच ही वह कहने लगे-”सेठ मूलराज की ओर देखा-मानों वे पूछना चाह रहे हों-कोई प्रश्न और?

तब तक सेठ जी स्वयं ही कहने लगे -”महात्मन्!अब मैं एक अंतिम प्रश्न और पूछ रहा हूँ। कृपा करके यह बतलाएँ कि इस संसार में सभी ज्ञान के पीछे भाग रहे है। ऐसे में जानने योग्य वस्तु क्या है?”

इस बार महात्मा जी ने जोर का ठहाका लगाया। ठहाके की यह गूँज समूचे वातावरण में बिखर गई। इस बिखरती गूँज के बीच ही वह कहने लगे- “सेठ मूलराज, आप तो यहाँ भी व्यापारी की ही तरह नाप तौल कर पूछ रहे है, सुनिए जानने योग्य वस्तु वही है, जिसके जानने से आनंद की अनुभूति होती हो। जो अस्थायी , नाशवान् व अनित्य है तथा जिसके जानने से दुःख पैदा होता है, ऐसी वस्तु जानने योग्य नहीं होती। अतः ऐसी वस्तु न जानने में ही लाभ है। यही वजह है कि महापुरुषों ने बुद्धिवाद को भ्रम मूलक बताते हुए कुछ न जानने को ही अच्छा बताया है। यदि जानना ही चाहते हो तो उस परम प्रभु के विराट स्वरूप को पहचानो, जो सत्यस्वरूप, अविनाशी नित्य एवं आनंद देने वाला है।

सेठ मूलराज सच्चा ज्ञान प्राप्तकर पुनः घर लौट आए और अपनी पूँजी के मात्र ट्रस्टी बन गए। गरीबों एवं पीड़ितों, अभावग्रस्तों के लिए उन्होंने खजाना खोल दिया। सच्चा आत्महित एवं लोकहित ही अब उनका प्राप्य था। अब वे सच्ची पूँजी का संग्रह करने में जुट गए, जिससे उनकी जन्म-जन्माँतर की प्यास बुझ सकती है।

जब कोई उनसे उनके इस आश्चर्यजनक परिवर्तन का रहस्य पूछता तो वे गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज की यह अर्द्धाली बड़े भावपूर्ण स्वर में गाकर सुनाते”

बिनु सत्संग विवेक न होई।” हाँ उन्हें सच्चा सत्संग प्राप्त हुआ था। इस सत्संग ने ही उन्हें ऐसा विवेक दिया था। जिससे वे जीवन जीने की कला जान गए थे।


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