सुकरात की पत्नी कर्कश स्वभाव की थी। पति को भी परमार्थ कार्यों से रोकती और जो मिलने आते, उन्हें भी कोसती। सोचती इसमें लाभ नहीं होता, घाटा पड़ता है।
एक दिन सत्संग गोष्ठी चल रही थी। पत्नी ने छत पर से उन सबके ऊपर गंदा पानी उलीच दिया और गंदी गलियाँ सुनाई। वातावरण में आक्रोश पनपा। आगंतुकों ने इसे अपमान माना।सुकरात ने सूझबूझ से काम लिया। उन्होंने क्रोध को विनोद में बदला। हँसते हुए कहा -”आज वह किंवदंती मिथ्या हो गई, जिसमें कहा जाता है कि जो गरजते हैं वे बरसते नहीं, आज तो गरजना -बरसना साथ-साथ हो रहा है। “ क्रोध , हँसी में बदल गया। गीले कपड़े सुखाने के लिए डाल दिए गए और विचारगोष्ठी फिर उसी संतुलित वातावरण में चलने लगी। चलते समय सुकरात ने सिखाया - “प्रतिकूलता में भी संतुलन बना लेना दूरदर्शिता की कसौटी है।” उनके इसी गुण के कारण उनका दाँपत्य जीवन अच्छी तरह निभा। पत्नी ने क्रमशः अपने को सुधारा एवं एक आदर्श अर्द्धांगिनी बनकर रहीं।