यश और सुख (kahani)

January 2000

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एक भला खरगोश था। सभी पशुओं की सहायता करता और मीठा बोलता था। जंगल के सभी जानवर उसके मित्र हो गए। एक बार खरगोश बीमार पड़ा । उसने आड़े समय के लिए कुछ चारा-दाना अपनी झाड़ी में जमा कर रखा था। सहानुभूति प्रदर्शन के लिए जिसने सुना वही दौड़ा आया। और आते ही संचित चारे दाने में मुँह मारना शुरू किया। एक ही दिन में उस सबका सफाया हो गया। खरगोश अच्छा तो होने लगा पर कमजोरी में चारा ढूंढ़ने के लिए जा न सका और भूखों मर गया। उथली मित्रता और कुपात्री की सहानुभूति सदा हानिकारक ही सिद्ध होती है। दुर्घटना का समाचार सुनकर दौड़े आने वाले सहानुभूति प्रदर्शनकर्त्ता प्रायः यही करते हैं। सच्चे मित्र थोड़े ही हो पर भले हों , वक्त पर काम आ सकें।

एक बार एक अमीर के लड़के ने समीपवर्ती गाँव के गरीब आदमी की सुँदर लड़की से ब्याह करने का प्रस्ताव भेजा। गरीब ने पूछा - “लड़का क्या करता है?” उत्तर मिला - बाप की प्रचुर संपदा को बैठा बैठा खाता है। बेटी वाल ने विवाह से इनकार कर दिया। जो हाथ से कमाई नहीं कर सकता, उसे बेटी नहीं दूँगा। उसका भविष्य अंधकारमय है।

लड़के को बात चुभ गई। उसने दूसरे दिन से ही कृषि -व्यापार करना और अपने हाथ से सँभालना आरंभ कर दिया तो उसकी स्वस्थता और बुद्धिमत्ता बढ़ गई।

बेटी वाले ने आग्रहपूर्वक विवाह का प्रस्ताव भेजा और शादी हो गई। बेटी भी श्रमजीवी परिवार से आई थी, तो उसने भी पति के कार्यों में कंधा लगाया और वे लोग स्वावलंबनपूर्वक संपन्नता प्राप्त करने का यश और सुख कमाने लगे।


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