हमारी अतृप्ति और असंतोष का कारण

January 2000

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मनुष्य आवश्यकताओं का पुलिंदा है। उसके जन्म के साथ आवश्यकताओं का संबंध है। और मृत्युपर्यंत आवश्यकता तथा नहीं पूर्ति का कुटिल चक्र अविराम गति से चलता रहता है प्रतिदिन प्रातः उठकर सायंकाल तक अपनी जरूरतों की पूर्ति के विविध साधन एकत्र किए जाते हैं।

इच्छा और आवश्यकता में यथेष्ट अंतर है, यद्यपि अनेक व्यक्ति एक ही अर्थ में इनका प्रयोग करते हैं। इच्छा का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। हम नानाप्रकार की वस्तुएँ देखते हैं और लुभाकर उनकी इच्छा करने लगते हैं। ऐसी ही एक इच्छा है जिसके बिना हम रह नहीं सकते, जिसके लिए हमारे पास पर्याप्त साधन हैं और जिसे प्राप्त करने से हमारी तृप्ति हो सकती है। आवश्यकता और श्रम का भी घनिष्ठ संबंध है।आप जितनी ही अपनी आवश्यकताएँ बढ़ाएँगे। उतना ही उद्योग , परिश्रम और कष्ट आपको रहेगा। आज के इस आधुनिककाल में असंयमी फैशनपरस्त व्यक्तियों ने अपनी आवश्यकताओं में अनाप -शनाप वृद्धि कर ली है। फलतः उन्हें श्रम भी अधिक करना पड़ रहा है। उनकी सारी परेशानियाँ दुःख इसी कारण है॥

आज जो भी कुछ महँगाई दिखाई देती है, उससे बचने का एक ही उपाय है, आप अपनी आवश्यकताओं का अध्ययन करें। आराम विलास या फैशन की वस्तुओं को त्याग दें। अनावश्यक टीपटाप ,दिखावा , सौंदर्य प्रतियोगिता , मिथ्या आडंबर आदि छोड़ दें। अपना काम स्वयं करे।सोने चाँदी के गहने कुछ वर्षों के लिए न बनवाएँ। अनावश्यक पुस्तकें न खरीदकर किसी अच्छे स्थानीय पुस्तकालय के मेम्बर बन जाएँ। जो भी कष्ट -कठिनाइयाँ आज दीख रही है। उनसे क्रमशः मुक्ति मिल जाएगी। क्योंकि आपने अपनी अनावश्यक आवश्यकताएँ कम कर दी है।

भारतवर्ष की जलवायु ऐसी है कि एक कुरता -धोती या नेकर कमीज से संपूर्ण दिन मजे में कट सकता है। बढ़िया सिल्क या रेशम के वस्त्र छोड़कर साधारण खादी के कपड़े पहने जा सकते हैं। आमोद-प्रमोद विशेषतः सिनेमा जाना बिलकुल छोड़ दें। आपको महँगाई नहीं सताएगी। मनुष्य की असली जरूरतें तो इतनी कम है कि बड़ी से बड़ी महँगाई में भी बखूबी पूर्ण हो सकती हैं। जैसे-जैसे समाज में महँगाई में भी बखूबी पूर्ण हो सकती हैं। जैसे -जैसे समाज में महँगाई में भी बखूबी पूर्ण हो सकती हैं। जैसे-जैसे समाज में महँगाई बढ़े आप बढ़ी हुई कृत्रिम आवश्यकताओं को त्यागते जाइए।

खुद परिश्रम कीजिए। आलस्य त्यागकर पुरुषार्थ को खोज निकालिए।

आवश्यकताओं को मर्यादा से बढ़ा देने पर अतृप्ति और दुःख व इन्हें कम करने से सुख व संतोष प्राप्त होगा। मनुष्य कभी भी एक ही प्रकार के सुख से तृप्त नहीं होता, अतः असंतोष सदैव बना रहता है। सुख की ऐसी आकाँक्षा निंदनीय है, जिसमें किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए मनुष्य दिन-रात हाय हाय करता रहे और न पाने पर अतृप्त, असंतुष्ट और दुःखी रहे। तृष्णाएँ सदैव एक के बाद एक बढ़ती चली जाती है। एक की पूर्ति होती है तो दो नई आवश्यकताएँ आकर उपस्थित हो जाएँगी। अतः विवेकशील पुरुष को अपनी आवश्यकताओं पर कड़ा नियंत्रण रखना चाहिएं इसके लिए मनोबल बढ़ाने की-एक विशेष अभ्यास की -मनोनिग्रह की जरूरत है।

एक विचारक का कथन है कि “जो मनुष्य अधिकतम संतोष और सुख पाना चाहते हैं, उनको अपने मन और इंद्रियों को वश में रखना चाहिए। यदि हमारी तृष्णा और वासना में बढ़ोतरी होगी तो वह हमारे असंतोष का कारण बनेगी। “ वास्तविकता यही है कि अनेक प्रलोभन तेजी से हमें वश में कर लेते हैं। हम अपनी आमदनी को भूलकर उनके वशीभूत हो जाते हैं। बाद में रोते-चिल्लाते हैं। जिह्वा के आनंद, मनोरंजन आमोद-प्रमोद के मजे हमें अपने वश में रखते हैं। सिनेमा का भड़कीला विज्ञापन देखते ही हम मन को हाथ से खो बैठते हैं और न केवल कामुक चिंतन करने लगते हैं वरन् अनाप शनाप व्यय भी कर डालते हैं। इन सभी में हमें मनोनिग्रह की निताँत आवश्यकता है। यदि मन पर संयम रख जाए।वासनाओं को नियंत्रण में रखा जाए, पाकेट में अतिरिक्त पैसा न रखा जाए, तो आप इंद्रियों को वश में रख सकेंगे।

आर्थिक दृष्टि से मनोनिग्रह और संयम का मूल्य लाख रुपये से भी अधिक है। जो मनुष्य अपना स्वामी है और इंद्रियों को इच्छानुसार चलाता है। वासना से नहीं हारता, वह आर्थिक दृष्टि से सुखी रहता है, सदैव संतुष्ट बना रहता है। प्रलोभन एक तेज आँधी के समान है , जो मजबूत चरित्र को भी यदि व सतर्क न रहे, गिराने की शक्ति रखता है।जो जागरुक है, वही संसार के नाना प्रलोभनों आकर्षणों मिथ्या दंभ से मुक्त रह सकता है।


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