सेवाधर्म के मार्ग में बाधाएँ और भटकाव

January 2000

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लोकसेवियों के लिए दिशाबोध-8

सेवा का महत्व और जीवन विकास के लिए उसकी आवश्यकता समझ लेने के बाद सेवाधर्म की उमंग उठना स्वाभाविक है। अधिकाँश लोगों में इस तरह की उमंग उठती है। व उस उमंग के अनुरूप सेवा के मार्ग में प्रवृत्त भी होते हैं, किंतु उस पथ पर अधिक समय तक नहीं चल पाते। इसका कारण यह है कि लोकसेवा के प्रति आवश्यक उत्साह और निष्ठा का जागरण नहीं हो पाता। कुछ लोग प्रवृत्त भी होते हैं, पर कठिनाइयाँ आती देखकर उसे झमेला समझकर छोड़ बैठते हैं अथवा असफलता से डरकर चुप बैठ जाते हैं।

बहुत से कारण है जिनसे सेवाकार्य में संतोषजनक प्रगति नहीं हो पाती। लोग या तो गलत बातों को सही समझकर विचलित हो जाते हैं। अथवा सफलता का अहंकार उन्हें दिग्भ्राँत कर देता है। इन सब बाधाओं और भटकाव की परिस्थितियों को पहले से जान - समझकर चला जाए तो सेवाधर्म का निर्वाह, लन किया जा सकता है। होता यह भी है कि सेवाधर्म अपना लेन के बाद उसे अपना जीवनलक्ष्य बनाने तथा उसे साधना स्तर पर करने में भूल हो जाती है। भूलें स्वभावगत हों या परिस्थितियों के कारण , लोकसेवी को उसके साधनापथ से दूर हटाती है।

हमें यह तथ्य स्मरण रखना चाहिए कि मार्गदर्शक बनना हो तो नेतृत्व का कौशल नहीं,चरित्र चाहिए। प्राचीनकाल में लोकमानस के परिष्कार का महान् कार्य जो लोग हाथ में लेते थे, वे कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने से पूर्व ब्राह्मणों जैसी संयमशीलता और साधु जैसी उदार आत्मीयता का अभ्यास करते थे। इस परीक्षा में वे जितनी ऊँची कक्षा उत्तीर्ण करते थे, उसी अनुपात से उनकी सेवा साधना सफल होती थी। यदि सच्चे मन से उच्चस्तरीय दृष्टिकोण लेकर सेवाधर्म अपनाया जाए ता उसका परिणाम लोकमंगल से भी अधिक आत्मोत्कर्ष के रूप में उपलब्ध होता है। इन तथ्यों का ध्यान में रखते हुए प्रज्ञापरिजनों का युगशिल्पी की भूमिका निभाने के लिए अग्रसर होते समय इस बात को गिरह बाँधकर रखना है कि उन्हें अपन स्तर से , व्यक्तित्व की दृष्टि से सामान्य लोगों के तुलना में कहीं ऊँचा उठकर रहना है।

इसके लिए क्या करना होगा? इस संबंध में प्रत्यक्ष कर्तव्य उतना नहीं है, जितना कि दृष्टिकोण में परिवर्तन करने का प्रबल अभ्यास अपनाना। सर्वविदित है कि लोभ-मोह के भवबंधन आदर्शवादिता के, आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वाले के लिए हथकड़ी -बेड़ी जैसे अवरोध उत्पन्न करते हैं। लालची , संग्रही , विलासी व्यक्ति को लोभ-लिप्सा इस कदर जकड़े रहती है कि उसे परमार्थ में कोई रस ही नहीं आता। अपनी तराजू पर अपने बाटों से तुलने पर उसे स्वार्थ वजनदार प्रतीत होता है और परमार्थ हलका, इसलिए लालच में राई रत्ती कमी पड़ते ही वह परमार्थ से हाथ खींच लेता है और कुछ आडंबर करता भी है तो उतना ही जिससे कम खरच में लोकसेवी पुण्यात्मा की अधिक ख्याति खरीदी जा सके। इसमें भी वे तौलते रहते हैं कि कितना गँवाया और कितना कमाया।

दूसरा अवरोध है -व्यामोह । शरीर और परिवार के साथ अत्यधिक ममता जोड़ने वाले उन्हें प्रसन्न रखने के लिए उचित अनुचित कुछ भी करते रहते हैं। उन्हें यह छोटी परिधि लोक-परलोक सभी से बढ़कर प्रतीत होती है और उसी के निमित्त कोल्हू की तरह पिसते , आग की तरह जलते और बरफ पिघलते रहते हैं। परिवार का उत्तरदायित्व निभाना, परिजनों के प्रति कर्त्तव्यपालन करता एक बात है किंतु उन्हें सुविधाओं से लाद -लादकर अनुचित दुलार से व्यक्तित्व की दृष्टि से हेय हीन बना देना सर्वथा दूसरी। मोहग्रस्त लोग दूसरी को अपनाते हैं और पहली की ओर से आँखें बंद किए रहते हैं। इसके लिए कभी रोका झिड़का जाए कि उन पर अशर्फियां लुटाते रहने की तुलना में कही अधिक हित इसमें है कि वे उन्हें श्रेष्ठ चिंतन देने का प्रयास करें। मात्र लाड़ दुलार न दे तो यह बात कोई पोहाँध सुनता नहीं। पर कहे कौन किससे? ज्ञान वैराग्य की कथा कहने रहने वाले ही जब श्रोता भक्तजनों से भी अधिक गए-गुजरे सिद्ध होते हों , तो ‘सत्य वचन, महाराज ‘ की विडंबना ही सिर हिलाती रहेगी।

परिवार पोषण किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए, क्योंकि नई दृष्टि से देखने से इस परिवार के कितने ही सदस्य ऐसे होते हैं, जिनमें आर्थिक स्वावलंबन की ही नहीं, दूसरों को सहारा देने की क्षमता है, किंतु उन्हें मोहवश अथवा नाक कटने के डर से अपंग-अपाहिज बनाकर रखा गया है। एक कमाऊ व्यक्ति ही मरता खपता रहता है दूसरे समर्थ होते हुए भी असमर्थों की बिरादरी से आलसी , प्रमादी बने बैठे रहते हैं। इसी प्रकार फिजूलखर्ची की आदतें जब अभ्यास में आ जाती हैं तो खरच का ढोल इतना भारी हो जाता है कि उसे भी परिवार पोषण की संज्ञा मिलती है । वस्तुतः यह होता परिवार तोषण भर है। पोषण सरल है तोषण अति कठिन है। पुत्रवधु की गोद से छीन छीनकर पोते पोतियों को कंधे फिरने वाले बुड्ढों की भी कमी नहीं। कमाऊ लड़कों के गुलछर्रे उड़ाने में कोई कमी न रहने पर भी बुड्ढा जब उन्हीं के हाथ में पेंशन थमाता जाता है तो उसकी दयालुता देखते ही बनती है। जीवनभर की कमाई का बँटवारा जब समर्थ बेटों की हिस्सेदारी के रूप में कर दिया जाता है तो प्रतीत होता है कि घिनौना व्यामोह किस प्रकार औचित्य एवं प्रचलन का लबादा ओढ़कर अपने को निर्दोष सिद्ध करता है।

इस चक्रव्यूह के कुछ थोड़े से घेरे ही यहाँ उजागर किए हैं। ऐसे-ऐसे और भी अनेकों हैं जिनमें आए दिन बच्चे जनने, उस पर खुश मनाने और सिर पर पर्वतों जैसे बोझ बढ़ाते चलने की भी एक बात सम्मिलित की जा सकती है। इस मोहग्रस्तता को परमार्थ पथ पर अड़ी हुई भारी चट्टान कह सकते हैं। लोभ को प्रथम नंबर दिया जाता है, मोह का दूसरा , पर अभी यह तय किया जाना है कि इनमें से कौन द्वितीय है, वस्तुतः यह रावण , अहिरावण जैसे सगे भाई प्रतीत होते हैं।

आत्मकल्याण और लोककल्याण की साधना में ऐसा कुछ नहीं जिसके लिए शरीर निर्वाह एवं पारिवारिक उत्तरदायित्व निभाने में कोई बाधा पड़ती हो। मात्र लोभ और मोह का मद्यपों जैसा अतिवाद ही एकमात्र अवरोध है, जो वस्तुतः तिनके जैसा हलका होते हुए भी पर्वत जैसा भारी बनकर दिग्भ्रांतों के मनःक्षेत्र पर भूत पिशाच की तरह चढ़ बैठता है और भली-चंगी परिस्थिति होते हुए भी नारकीय उत्पीड़नों की तरह निरंतर संत्रस्त करता रहता है।

बात वस्तुतः इतनी छोटी है नहीं। इस मार्ग में एक और बड़ा अवरोध अहंता का है। यह परोक्ष होती है। - न अपनी पकड़ में आती है, न दूसरों की परख में इसलिए उसकी उखाड़ पछाड़ भी नहीं होती। फलतः मजे में अपने कोटर में बैठी पोषण पाती और जोकि की तरह मोटी होती रहती है।इसकी विनाशलीला इतनी बड़ी जिसकी तुलना में लोभ-मोह से होने वाली हानि को नगण्य जितना ठहराया जा सकता है।

अहंता बड़प्पन पाने की आकाँक्षा को कहते हैं। दूसरों की तुलना में अपने को अधिक महत्त्व गौरव, पद, सम्मान मिलना चाहिए, यही है अर्हता की आकाँक्षा। इस जादूगरनी द्वारा लोगों को चित्र-विचित्र विडंबनाएँ रचते देखा जा सकता है। केश वस्त्र आभूषण सौंदर्य प्रसाधनों की इन दिनों धूम है। फैशन के नाम पर कितना धन और कितना समय नष्ट होता है उसे शरीर सज्जा में रुचि रखने वाले सभी जानते हैं। उस महँगे जंजाल को इसलिए रचना पड़ता है कि अर्हता अपने को सुंदर युवा आकर्षक सभ्य अमीर सिद्ध करने के लिए इस लबादे को ओढ़कर वस्तुस्थिति से भिन्न प्रकार का प्रदर्शन करने को बाधित करती है। इसके बाद ठाठ-बाट का नंबर ता है। इसमें अमीरी का प्रदर्शन है। निवास फर्नीचर वाहन, नौकर तथा विलासिता के उपकरणों का सरंजाम जुटाने तथा रखरखाव में इतना धन तथा मनोयोग लगता है जो वास्तविक आवश्यकता की तुलना में अनेक गुना महँगा होता है। बात-बात में फिजूलखर्ची उस समय की जाती है जब उसे लोग देखें और अनुमान लगाएँ कि यह व्यक्ति धनकुबेर है और अनावश्यक खरचने से भी इसे कोई कमी नहीं पड़ती । बड़प्पन पाने की मृगतृष्णा में लोग कितने पाखंड रचते , धन को पानी की तरह बहाने के उपराँत आवश्यक प्रयोजनों में किस प्रकार कटौती करते हैं, इसे देखकर कोई सूक्ष्मदर्शी आश्चर्य चकित ही रह सकता है। असलियत का अनुमान सहज ही लगा लिया जाता है,फिर भी अहंता का उन्माद विडंबनाएँ रचने से बाज आता नहीं है।

यह तो सामान्य लोगों की बात हुई। अब प्रसंग उन विशिष्ट लोगों का आता है, जो कि आदर्शवादी , त्यागी अध्यात्मवादी योगी लोकसेवी आदि के रूप में प्रख्यात है। विश्लेषण करने पर उनके भीतर भी अहंता का चोर गुप्त दरवाजे से घुसा और तानाशाह की तरह सिंहासनारूढ़ बना बैठा दिखाई पड़ता है। संतों के अखाड़े धर्म संप्रदाय संस्था, संगठन बड़ों की इसी प्रतिस्पर्द्धा में कलह के केंद्र बने रहते हैं कि उनके संचालकों में से कौन बड़ा कहलाए? एक ही संस्था के सदस्य एक ही लक्ष्य की दुहाई देने वाले आखिर इस कदर लड़ते हैं कि उनके संचालकों में से कौन बड़ा कहलाए? एक ही संस्था के सदस्य एक ही लक्ष्य की दुहाई देने वाले आखिर इस कदर लड़ते क्यों है? एक दूसरे को नीचा दिखाने में निरत क्यों है? इसका वास्तविक कारण सामान्य लोगों की समझ से बाहर होता है। उन्हें तो कुछ भी कहकर बहका दिया जाता है। किंतु वास्तविक कारण सामान्य लोगों की समझ से बाहर होता है। उन्हें तो कुछ भी कहकर बहका दिया जाता है। किंतु वास्तविकता इतनी भर होती है कि वे येन केन प्रकारेण अपना बड़प्पन सिद्ध करना चाहते हैं। दूसरा जब आड़े आता है तो मुहल्ले के कुत्तों की तरह अकारण एक-दूसरे पर टूट पड़ते हैं।संगठनों के सर्वनाश में एकमात्र नहीं तो सर्वप्रधान कारण इस अहंता रूपी शूर्पणखा को ही माना जाएगा। सिद्धाँत वाद की दुहाई देते हुए कनामालिन्य आर विग्रह के बहाने तो कुछ भी गढ़े जा सकते हैं, पर यदि भारी बाँध में दरार पड़ने का कारण ढूंढ़ने के लिए गहराई तक उतरा जाए तो प्रतीत होगा कि अहंता की नन्ही सी चुहिया ही दुम उठाए , मुँह मटकाती, पंजे दिखाती अपनी करतूत का करिश्मा दिखा रही है।

व्यवसाय और बच्चों को छोड़कर आने वालों से भी अहंता नहीं छूटती। जिस प्रकार कोई लालची मनोभूमि का मनुष्य भिक्षा-व्यवसाय करके पेट भरने पर भी लगातार कमाता-जोड़ता रहता है और मरते समय चिथड़ों तथा कुल्हड़ों में लाखों की दौलत छोड़ जाता है, उसी प्रकार लोकसेवी , अध्यात्मवादी का कलवर बना लेने पर भी यदि अहंता न छूटी तो पैर पुजाने के लिए अनेकानेक पाखंड रचते, लोगों का ठगते-उलझाते हुए उसे देखा जाएगा। आए दिन कुछ करतूतें, चमत्कारों की डींग हाँकते तथा और भी न जाने उसे क्या क्या करते देखा जाएगा। सार्वजनिक जीवन में ऐसे लोगों का घुस पड़ना वस्तुतः संगठन के लिए एक प्रकार से अभिशाप ही सिद्ध होता है। वे जितना जनहित करते हैं उसकी तुलना में हजार गुना अनर्थ करके रख देते हैं। इसलिए उत्कृष्टता के क्षेत्र में प्रवेश करने वालों के लिए मनीषियों ने वित्तेषणा (लोभ) पुत्रेषणा (मोह)और लोकेषणा (अहंकार-बड़प्पन) की विविध एषणाओं का परित्याग करने के उपराँत ही श्रेयमार्ग पर पैर बढ़ाने की सलाह दी है। लोकसेवी में नम्रता -निरहंकारिता उत्पन्न करने के लिए प्राचीनकाल में दरवाजे-दरवाजे भिक्षा माँगने के लिए जाना पड़ता था। यों घर बैठे भी भोजन मिलने का प्रबंध ऐसे लोगों के लिए कठिन नहीं है, पर अहंकार गलाने का तो कोई न कोई स्वरूप चाहिए ही , इसके बिना साधु कैसा? ब्राह्मण कैसा? लोकसेवी कैसा?

गाँधी जी के आश्रम में निवासियों को टट्टी साफ करने, झाडू लगान जैसे छोटे समझे जाने वाले कार्य परिपूर्ण श्रद्धा और तत्परता के साथ करने पड़ते थे। प्रज्ञा परिवार की परंपरा भी यही है। प्रत्येक आश्रमवासी को श्रमदान अनिवार्यतः करना पड़ता है और उसमें नाली साफ करने, झाडू लगाने, कूड़ा ढोने जैसे कार्य ही करने होते हैं।

कई व्यक्ति सोचते है-हम संस्था से निर्वाह लेकर काम क्यों करे? ‘अपना खाने’ के नाम पर निर्वाह लेने वालों से श्रेष्ठ क्यों न बनें? कुछ लोग इस कारण काम ही नहीं करते। इस असमंजस के पीछे कोई सिद्धाँत कात नहीं करता है, मात्र अहंकार ही उछलता है। हजार रुपये मासिक का काम करके यदि कोई सौय लेता है तो उसका नौ सौ रुपये का अनुदान ही हुआ। शाँतिकुँज परंपरा में हर आश्रमवासी को अन्य सभी की तरह निर्वाह आश्रम से ही लेना पड़ता है। उसकी निजी आमदनी या पेंशन को, उसे आश्रम में दान देते रहने के लिए कहा जाता है।लोकसेवी यदि जनता से ब्राह्मणोचित निर्वाह लेता है तो वह वेतनभोगी कर्मचारी नहीं हो जाता वरन् श्रद्धासिक्त निर्वाह दक्षिणा के रूप में प्राप्त करते हुए गौरवान्वित होता है। सच्चे सेवक के लिए ऐसी नम्रता आवश्यक है।

यहाँ एक और प्रकरण ध्यान देने योग्य है। वह है ऐसे व्यक्तियों से बचना, जो कालनेमि की तरह सतत् अपना षड्यंत्र रचते व लोकसेवी की प्रगति के मार्ग में रीडर बनते हैं। इस प्रकार अनेक तरह के व्यक्ति हैं। ऐसे भी है जो सत्परामर्श देकर मनोबल ऊँचा उठाते व साधना क्षेत्र में सहयोगी बनते हैं किंतु आज बाहुल्य ऐसे व्यक्तियों का है, जो मायावी कालनेमि की भूमिका निभाते अच्छे भले आदमी को पथभ्रष्ट कर देते हैं। हर समाजसेवी संस्था को ऐसे कालनेमियों से बचना पड़ता है। रावण के भाई कालनेमि का अपने काले कारनामे के कारण पुराण-कथाओं में बहुत स्थानों पर वर्णन आया है। वह त्रेता में आया था, पर काल से बद्ध नहीं था। दुर्बुद्धि देने का काम वह हर युग में करता आया है। उसी ने शूर्पणखा को नाक कान कटाने राम के पास भेजा, रावण को सीता हरने की सलाह दी। मारीच कुँभकरण मंथरा, कैकेट की बुद्धि उलटने के मूल में उसकी ही भूमिका थी। उस कालनेमि की कुटिलता अभी भी अपना कुचक्र रचने में लगी हुई है। तपस्वी योगी, महात्मा कोई भी वेश धारण कर उसकी विक्षुब्ध जीवात्मा सतत् भटकती एवं कमजोर मनःस्थिति वाले व्यक्तियों को ढूंढ़ती रहती है। युगशिल्पियों -प्रज्ञा परिजनों का लोभ, मोह अहंता इन तीन की अतिरिक्त कालनेमि परंपरा के व्यक्तियों से भी सावधान रहना चाहिए।


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