मनोविकारों की चिकित्सा हेतु विशिष्ट उपचार

January 2000

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अंतर्मौन अर्थात् भीतर की शाँति। यह ध्यान की उपलब्धि का एक सशक्त साधन है। बौद्ध परंपरा में इसे विपश्यना कहते हैं। इसके अभ्यास से अनेक प्रकार की मानसिक समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है। आँतरिक प्रक्षालन का यह सर्वोत्तम उपाय है।

मानवी मन दमित इच्छाओं का आगार है। बचपन से ही उसमें अगणित बुरे और अप्रिय विचार दबी-छुपी स्थिति में पड़े रहते हैं। विधि-निषेधोँ को सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल पाती और अमर्यादित आचरण आचार संहिता का उल्लंघन माना जाता है। अपवादों को यदि छोड़ दिया जाए तो साधारण लोग ऐसे विचार व्यवहार से परहेज करते हैं। उनमें ये वासनाएँ मन की गहराइयों में चली जाती और दमित स्थिति में पड़ी रहती हैं। समझा यह जाता है कि कुटेवों से छुट्टी पा ली गई, पर कुत्सा के बीज अचेतन मन में पलते रहते हैं और समय समय पर सक्रिय होकर निराशा , दुःख शोक उदासी उद्विग्नता जैसी मानसिक विपन्नताओं को जन्म देते हैं। खंडित व्यक्तित्व यही है।

यों तो अखंडता मनुष्य का चरम गुण है, पर उस अवस्था को प्राप्त करने से पूर्व हर एक का व्यक्तित्व न्यूनाधिक अंशों में खंडित होता है। अंतर्मन इससे उपजने वाले क्लेशों का सर्वश्रेष्ठ उपचार है। हमारे अंदर जब भी कोई अवाँछनीय विचार उठता है तो हम उससे लड़ने लगते हैं। मन के दो हिस्सों के बीच संघर्ष छिड़ जाता है। एक भाग उक्त विचार का समर्थन करता है बाकी दूसरा उसका विरोध करता है। अंतर्मन की साधना इससे मुक्ति का उपाय है। यह साधना उस सिद्धाँत पर आधारित है, जो यह प्रतिपादित करता है कि गंदगी के निष्कासन से स्वच्छता का संपादन स्वतः हो जाता है। उसे निकलने से रोकना अथवा उस पर आवरण चढ़ा देना थोड़े समय के लिए सफाई की भ्राँति पैदा कर सकता है। पर यह एक प्रकार से कीड़े को ढ़ककर सड़ने और बदबू पैदा करने देने जैसी ही प्रक्रिया हुई। इसीलिए इस साधना में साक्षी भाव से मन की क्रिया का निहारना पड़ता है। विचार शुभ हों अथवा अशुभ , अंतर्मन में जैसा कुछ घटित हो रहा हो, उसे अंगीकार करना पड़ता है। बाह्य हस्तक्षेप सर्वथा निषिद्ध है। मन को एकाग्र करने का प्रयास भी आरंभ में वर्जित है। साधक को बिलकुल निरपेक्ष रहते हुए सावधानी पूर्वक उस पर नजर रखनी पड़ती है। मन के उस हिस्से को भी देखना पड़ता है, जहाँ से निषेधात्मक विचार उठ रहे हैं एवं उसके उस भाग पर भी दृष्टि रखनी पड़ती है जो उन्हें अमान्य करता है। इसे मन का अवलोकन कह सकते हैं।

उक्त अभ्यास के मध्य यदि काई व्यक्ति आता है, नेत्रों के सम्मुख कोई घटना घटती है, आसपास में वायुयान मँडराता है अथवा अन्य कोई बाधा उपस्थित होती है तो भी साधक को तटस्थ रहना पड़ता और उससे उत्पन्न होने वाली मानसिक प्रतिक्रिया पर ही केवल ध्यान केंद्रित करना पड़ता है। इस साधना में साधक एक साथ अपने विचारों दृश्यों आवाजों अनुभूतियों तथा अपने इर्द-गिर्द के लोगों एवं वस्तुओं के प्रति सजग रहता है। यह प्रत्याहार की दिशा में पहला कदम है।

दिन के समय हमारा मन बहिर्मुख रहता है। हम बाहरी घटनाओं के प्रति सजग रहते हैं।किंतु अपने अंदर की प्रक्रियाओं के प्रति बिलकुल अनजान रहते हैं। अंतर्मौन के अभ्यास द्वारा आत्मचेतना विकसित होती है। हम अपने मन की प्रक्रियाओं को जान सकते तथा उनपर नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं।

हमारे मन की गहराइयों में जन्म जन्माँतरों के कितने ही संस्कार जमे रहते हैं। चेतनतल पर यह हमारे व्यवहार, व्यक्तित्व तथा नियति को प्रभावित करते हैं। इसलिए अंतमौन द्वारा इनका निष्कासन आवश्यक होता है। इस निष्कासन की प्रक्रिया का प्राणायाम द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो संस्कारों के विस्फोट की तीव्रता का झेल पाना आसान नहीं होगा। अतएव सुयोग्य मार्गदर्शक इस अभ्यास से पूर्व नाड़ी शोधन -प्राणायाम जैसे कितने ही उपचारों का निर्देश करते हैं, ताकि साधक को मानसिक कष्ट कम से कम हो। वास्तव में साधक जब अंतर्मौन की साधना प्रारंभ करता है तो उसका सीधा संपर्क अवचेतन स्तर से हो जाता है जिससे पुरानी और विस्मृत स्मृतियाँ , घृणा , भय द्वेष क्रोध उभर उभर कर सामने आने लगते हैं। इनका आवेग इतना प्रबल होता है कि अभ्यासी को असह्य कष्ट की अनुभूति होती और वह तड़प उठता है। यों चेतन तल पर आकर ये स्मृतियाँ अपनी सत्ता क्षीण और कमजोर कर अंततः स्वयं को समाप्त कर लेती हैं, फिर भी एक बार में ही ऐसा नहीं हो जाता।अस्तु अंतर्मौन की साधना द्वारा उन्हें बार बार अवचेतन परत से बाहर आने का मौका दिया जाता है। इस क्रम में एक ऐसी स्थिति आती है, जब अवचेतन मन एकदम खाली एवं दमित इच्छा आकाँक्षाओं , वासनाओं एवं पूर्व संचित संस्कारों से रहित हो जाता है। इसी अवस्था में एकाग्रता सधती है। अतएव अंतर्मौन का प्रत्याहार की प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ उपचार बतलाया गया है। धारणा और ध्यान की उपलब्धि इसी के बाद होती है।

आत्मिक प्रगति में आत्मशुद्धि और चरित्र शुद्धि को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। इसके बिना उत्कर्ष की गाड़ी अवरुद्ध हो जाती है और चेतना का स्तर ऊँचा नहीं उठ पाता। इस स्थिति में यदि सीध आत्मोत्थान संबंधी साधना प्रारंभ करदी गई और भीतरी स्वच्छता और सफाई का ध्यान नहीं रखा गया तो साधना का संपूर्ण प्रयास भीतरी गंदगी का निरस्त करने में ही खपता रहेगा। इससे प्रगति यात्रा बहुत लंबी और समयसाध्य बन जाती है। इसीलिए साधना विज्ञान के आचार्यों ने कुछ ऐसे उपाय उपचार सुझाए हैं। जिन्हें यदि साथ−साथ जारी रखा गया तो आत्मविकास अपेक्षाकृत कम समय में सरलतापूर्वक संपन्न हो जाता है। अंतर्मौन का अभ्यास इसी प्रयोजन की पूर्ति करता है। इसे कई चरणों में संपादित किया जाता है।

प्रथम चरण में साधक इंद्रियों की सजगता को विकसित कर अपने को बाह्य जगत् के साथ संयुक्त करता है। आँखें बंद रहती हैं ताकि ध्वनियों का कानों के माध्यम से ग्रहण किया जा सके। वह धीरे−धीरे द्वितीय चरण के अभ्यास के लिए स्वयं को तैयार कर लेता है।

द्वितीय अवस्था में अपनी एकाग्रता को बाहरी जगत् से हटाकर मन के क्रियाकलापों पर केंद्रित करना पड़ता तथा यह देखना पड़ता है कि हमारा मन क्या सोच रहा है एवं अवचेतन में से उठने वाले विचारों तथा दृश्यों के प्रति उसकी प्रतिक्रिया क्या है? इसके अभ्यास से न्यूरोसिस , भय तनाव तथा उद्विग्नता दूर होती है। साधक भूतकाल के अनुभवों से मुक्त होता तथा दमित वासनाओं के विस्फोट को देखता है। उक्त अभ्यास का तब तक करना चाहिए। जब तक मन पर्याप्त रूप से शाँत एवं स्थिर नहीं हो जाता।

तृतीय स्तर के अभ्यास में विचारों को ऊपर आने तथा निकल जाने दिया जाता है। इसका उद्देश्य , अवचेतन मन के संस्कारों का क्षय करना है। प्रत्येक ऐसा अनुभव जिसे भलीभांति देखा परखा नहीं जाता, अवचेतन तल में जमा हो जाता है। अतएव इस अभ्यास द्वारा उसे वहाँ से निकाल बाहर करना पड़ता है। आगे चलकर मन के समक्ष स्वेच्छापूर्वक कोई वस्तु लाई जाती है।और उसके चारों और विचारों तथा कल्पनाओं का जाल बुनते हैं। इसके बाद उसे हटा देते हैं। और उसके स्थान पर कोई दूसरी वस्तु या विचार लाते हैं। कल्पनाओं का तानाबाना बुनकर मानस से उसे भी निकाल बाहर करते हैं। आगे चलकर यह अभ्यास इतना पुष्ट को जाता है कि साधक को आत्मनिरीक्षण में सहायता करता है।

इस चरण में निरपेक्ष भाव अपनाकर मन में उठने वाले विचारों का दर्शक बनकर देखना पड़ता और अधिक शक्तिशाली विचारों का विश्लेषण कर हटा दिया जाता है। किंतु स्वयं उन्हें निर्मित नहीं किया जाता। अभ्यास का तब तक जारी रखना पड़ता है। जब तक विचारों का प्रवाह थमने न लगे। परिपक्व होने पर यह अवस्था विचारशून्य होने में मदद करती है।

पंचम क्रम के अभ्यास में अपेक्षाकृत निर्बल और कमजोर विचार उठेंगे। वे उठते और निकलते जाएँगे। यहाँ किसी प्रकार का हस्तक्षेप ठीक नहीं। इसके द्वारा मन निर्विचार होकर प्रत्याहार के तल में पहुँच जाता है।

अंतिम चरण में मन को अपने प्रतीक अथवा इष्ट पर टिकाना पड़ता और बार बार चिदाकाश पर देखना पड़ता है।निरंतर के अभ्यास से प्रतीक मानस पटल पर अमिट बन जाता है और किसी भी स्थिति में वहाँ से ओझल नहीं होता। इस दशा में साधक गहरे ध्यान की अवस्था में पहुँच जाता है।

अंतर्मौन का अभ्यास पद्मासन , सिद्धासन , वज्रासन सुखासन अथवा शवासन किसी भी स्थिति में अपनी सुविधानुसार किया जा सकता है। इसके प्रारंभिक अभ्यास कहीं भी और कभी भी किए जा सकते हैं, पर उत्तरार्द्ध अवस्था के अभ्यास रात्रि में सोने से पूर्व अथवा प्रातःकाल के नीरव वातावरण में ही करना उपयुक्त है।इससे मानसिक और आत्मिक दोनों प्रकार के लाभ साथ-साथ मिलते हैं।


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