संवेदन शीलता ही अभिव्यक्ति का कारण है । शरीर के विभिन्न क्रिया कलापों में इसी के विविध रूप दिखाई देते हैं। जब व्यक्ति प्रसन्न होता है तो वह मुस्कराता एवं हँसता है। आँखों व चेहरे पर वह भाव झलक उठता है। अतः अंगों को देखकर किसी की अभिव्यक्ति प्रत्येक मनुष्य में ही नहीं, जानवरों तक में होती है, भले ही उसके स्वरूप में भिन्नता हो। हँसने का आँसू से भी गहरा संबंध माना गया है। विशेषज्ञों का मत है कि संवेदना ज्यों -ज्यों परिपक्व एवं स्थायी होती जाती है। भाव गंभीर एवं क्रियाकलापों में परिवर्तन दिखाई देने लगता है। प्रेम , सहानुभूति एवं भक्ति इसी की उन्नत अवस्थाएँ हैं।
हँसना या मुस्कराना अंतर-अभिव्यक्ति का स्वरूप है। ये सूक्ष्म मनोभाव हैं। इसीलिए जर्मन मनोवैज्ञानिक विलिबेल्ड ने स्पष्ट किया है कि अभी तक कोई भी पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक हँसने वाले इस विचार को सही ढंग से प्रतिपादित नहीं कर पाया है। यह उम्र के साथ बदलता है। मुस्कराना एवं हँसना संवेदनशीलता की तीव्रता पर निर्भर करता है। सुविख्यात मनोवैज्ञानिक प्रिशोफ की मान्यता है कि मुस्कराहट हँसने का हास नहीं है। प्रत्युत यह भिन्न अभिव्यक्ति है। जे लिस्टर ने अपने अनुसंधान में पाया कि बच्चे हंसने के दौरान उनका संपूर्ण शरीर हिलता है। इसी प्रकार एंथ्रोपायड बंदरों में देखा गया है। यही नहीं, शरीर के कुछ संवेदनशील अंगों का स्पर्श करने पर भी हँसी आती है। सात वर्ष के बच्चे के इन विशिष्ट अंगों का स्पर्श करने पर उसकी माँसपेशियों में तीव्र परिवर्तन होता है। कुछ लोगों में इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। विज्ञानवेत्ता ग्रेटी ओलेट ने काँख, अँगूठे की पोर एवं पैर के तलवे को काफी संवेदनशील बताया है। उनके अनुसार ये ऐसे संवेदनशील अंग हैं, जिनका स्पर्श करने पर हँसी आती है। बच्चों में इन अंगों के अलावा गला , ठुड्डी के नीचे का भाग, कमर पसली एवं गाल भी काफी संवेदनशील होते हैं। इस क्रम में स्त्रियाँ भी काफी संवेदनशील होती हैं। चिंपैंजी में भी इसी तरह का व्यवहार देखा जा सकता है। बेबून के हँसने पर उसका निचला जबड़ा तेजी से ऊपर-नीचे होता है। इतना ही नहीं, हँसने पर चेहरे की माँसपेशियों में विशेष प्रकार की क्रियाएँ होती हैं।
चिकित्साविज्ञानी डचीन ने हँसने पर आँखों की माँसपेशियों में होने वाले परिवर्तनों का गहन अध्ययन किया है। उनके अनुसार पाँच माह के बच्चे को जब उसकी माँ हँसाती है तो उसका मस्तिष्क सक्रिय हो उठता है, बच्चों की आँखों की चमक बढ़ जाती है, परंतु माँ के स्थान पर किसी अजनबी चेहरे के होने पर बच्चे की आँखों में भी विशेष चमक होती है। निराशा या अन्य अवस्था में आँखों की चमक बढ़ जाती है, परन्तु माँ के स्थान पर किसी अजनबी चेहरे के होने पर बच्चे की आँखें वह भाव प्रदर्शित नहीं कर पाती हैं। इसी तरह नवदंपत्ति की आँखों में भी विशेष चमक होती है। निराशा या अन्य अवस्था में आंखों की माँसपेशियाँ उतनी सक्रिय व सजग नहीं हो पाती। जिससे वह मूलभाव दृष्टिगोचर नहीं होता है। इसका कारण स्पष्ट करते हुए डचीन ने कहा है कि प्रसन्नता अति सूक्ष्म अभिव्यक्ति है, जिसे उसी क्षण देखा जा सकता । वैज्ञानिक जगत् में इसे डचीन मुस्कराहट के नाम से जाना जाता है। इस दौरान भौहें नीचे झुक जाती हैं।
तेज व ठठाकर हँसने पर गाल तथा ऊपरी होंठ फैल जाते हैं, नाक सिकुड़ जाती है और ऊपरी जबड़े के दाँत चमकने लगते हैं। सर सी.बेल अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘एनाटॉमी आफ एक्सप्रेशंस’ में स्पष्ट करते हैं कि तेज व चमकीली आँखें प्रसन्न व हर्षित मनःस्थिति की द्योतक हैं। अधिक हँसने पर आँखों में आँसू आ जाते हैं। यद्यपि यह रोने पर भी होता है, परंतु इस समय आंखें चमकने की बजाय धुँधली दिखाई देती हैं। तनाव के समय भी आँखें बुझी बुझी सी रहती है। डॉ. पिडरीठ के अनुसार तनाव की अवस्था में आँखों की पुतली खून एवं अन्य द्रव्यों से भर जाती है। क्रोध या उत्तेजना की स्थिति में ये और भी लाल हो उठती है। प्रख्यात दार्शनिक हर्बर्ट स्पेंसर के अनुसार यह संभवतः अत्यधिक स्नायु ऊर्जा के प्रवाह के कारण होता है, परंतु जब व्यक्ति प्रसन्न होता है तो यह ऊर्जा उल्लास बनकर आँसू के रूप में टपक पड़ती है।
तेजी से हँसने पर श्वास अनियंत्रित , चेहरा आशक्त एवं शरीर काँपने लगता है। हिंसा के दौरान हँसी अट्टहास में बदल जाती है मनीषी स्वीनहू ने अपने अनुभव के आधार पर बताया है कि चीनी व्यक्ति जब गहरी उदासी में चले जाते हैं तो वे हिस्टीरिया के दौरे के समान विचित्र प्रकार से हँसने लगते हैं। जर्मन के सैनिकों का हँसना खतरनाक माना जाता है। ये किसी भी छोटी-सी बात में हँसते-हँसते उग्र एवं हिंसक हो उठते हैं एवं हँसी का नजारा युद्ध और हिंसा में बदल जाता है। मलायास तथा मलक्का प्रायद्वीप की आदिवासी महिलाएँ जब अति प्रसन्नता के कारण हँसती है तो उनकी आँखें आँसुओं से तर हो जाती हैं। बोर्निया केडूयाक्स में यह घटना सामान्य है। वहाँ लोगों के हँसते ही आँसू आने लगते हैं। आस्ट्रेलिया के आदिवासी प्रसन्न होने पर अट्टहास के साथ ताली बजाते हैं। वहाँ पर प्रायः कम लोगों की आँखों में आँसू आते हैं। विक्टोरिया के सुदूर क्षेत्र में एक व्यक्ति हँसता है तो पूरा समुदाय हँस पड़ता है। यूरोप में ऐसा कम देखने को मिलता है।
ऐसी घटनाएँ अन्य देशों एवं क्षेत्रों में भी देखी जा सकती हैं। दक्षिण अफ्रीका की काफी मूल निवासियों की महिलाओं में हँसने के दौरान उनकी आँखें पानी से भरी होती है। एंड्यूस्मिथ के अनुसार हाटेंटाट महिलाओं में ऐसे समय में इनकी आँखों में आँसू इतने अधिक निकलते हैं कि चेहरा बड़ा भयंकर लगता है। उत्तरी अफ्रीका के एबिसिनीयनों में भी ऐसा ही नजारा देखने कसे मिलता है। उत्तरी अफ्रीका के कुछ मूल निवासी भी इसी तरह का दृश्य प्रस्तुत करते हैं। वहाँ, मुख्यतः महिलाओं में ऐसी स्थिति आती है। एक अन्य जाति में हँसने के एक विशेष अवसर पर ही उनकी आँखों में आँसू आते हैं।
प्रसन्नता एवं हँसने या मुस्कराने के दौरान आवाज व श्वास में भी परिवर्तन आ जाता है। इस समय आवाज में लोच व मिठास आ जाती है। यह अक्सर किसी घनिष्ठ मित्र या संबंधी से वार्तालाप के समय होता है। संभवतः इसके पीछे श्वास का आना जाना प्रमुख कारण होता है। रोते समय निश्श्वसन लंबा एवं सतत् होता है तथा अंतःश्वसन छोटा एवं खंडित होता है। इसके विपरीत हर्षध्वनि में निश्श्वसन अल्प एवं खंडित तथा अंतःश्वसन लंबा होता है। मुस्कराहट में आवाज नहीं आती, एक लम्बी सी निश्श्वास होती है। इस दौरान ऊपरी आर्विक्यूलर माँसपेशी के हलके से संकुचन के कारण भौहें थोड़ी सी झुक जाती है और ऊपरी होंठ जरा सा फैल जाता है। मुस्कान के हँसी में परिवर्तित होते ही मुँह के दोनों किनारे सिकुड़ने लगते हैं तथा अंतरभाव की सूक्ष्म अभिव्यक्तियाँ चेहरे पर झलकने लगती है। विशेषज्ञों के अनुसार नवजात शिशु 45 दिन बाद ही ठीक ढंग से मुस्कराता है। यह समय कम ज्यादा भी हो सकता है, परंतु प्रथम बार शिशु का मुस्कराना बड़ा ही आकर्षणीय दृश्य प्रस्तुत करता है। जिस व्यक्ति का हृदय जितना निर्मल एवं पवित्र होता है, वह उतनी ही निर्दोष व बालसुलभ हँसी हँस सकता है। बच्चे इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं।
सर सी.बेल के अनुसार अत्यधिक प्रसन्नता में भौहें, नाक, तथा मुँह की आकृति बदल जाती है। तनाव में इसकी प्रतिक्रिया ठीक विपरीत होती है। गहरी उदासी में पलकें बोझिल , गाल व चेहरा मुरझाया हुआ, आँखें भारी व सांसें मंथर हो जाती हैं जबकि हर्ष एवं प्रसन्नता में चेहरा खिल उठता है तथा निराशा में चेहरा लंबा हो जाता है। सदा प्रसन्न रहने वाले व्यक्ति के चेहरे में आकर्षण एक स्थायी अभिव्यक्ति बन जाता है। वह उन्नत मस्तक, चमकती आँखें , प्रसन्न वदन तथा सहज एवं सरल दिखाई देने लगता है। तपस्वी व प्रेमी की आँखें लाल व चेहरा आशक्त व आकर्षक दिखता है । मनन व चिंतन करने वाले व्यक्तियों की आँखों में चमक दिखाई देती है। चार्ल्स डार्विन न अपनी विख्यात ग्रंथ ‘एक्सप्रेशन ऑफ इमोशन’ में उल्लेख किया है कि संसार में केवल हिंदू जाति के व्यक्तियों में ये समस्त विशिष्टताएँ परिलक्षित होती है, हालांकि इसकी झलक मलायास , न्यूजीलैंड तथा बोर्निया के डूयाक्सके निवासियों में भी दिखाई देती है।
प्रसन्नता की अभिव्यक्ति शरीर के विभिन्न क्रिया कलापों के माध्यम से दिखाई देती है, यह बात लगभग हर विशेषज्ञ ने कही है। वेजबुड ने ‘ए डिक्शनरी ऑफ एटीमोलॉजी’ में स्पष्ट किया है कि ऊपरी नील के निवासी पेथ्रीक जाति के लोग ज्यादा प्रसन्न होने पर पेट को मलते हैं। लिकार्ड के अनुसार आस्ट्रेलिया के लोग घोड़े, बैल व कंगारुओं के समान मुँह से चटखारे लेकर अपनी खुशी जाहिर करते हैं। ग्रीसलैंड के व्यक्ति इस दौरान एक विशेष आवाज के साथ एक ऐसी साँस लेते हैं जैसे वे किसी स्वादिष्ट व्यंजन का आनंद उठा रहे हों। यूँ तो कभी -कभी अपने अंतर्द्वंद्व को दबाने के लिए भी हँसना पड़ता है। अभिनय हेतु भी मुस्कराहट का आवरण ओढ़ना होता है। हँसने के और भी कारण हो सकते हैं, किंतु ऐसी अवस्था में वह सहज भाव प्रस्फुटित नहीं हो पाता जो कि स्वभावतः होता है।
हास्य की अपेक्षा प्रेम की अभिव्यक्ति कहीं अधिक जटिल होती है। पाल एंकमेन इस तथ्य को स्वीकारते हुए कहते हैं कि प्रेम संवेदना की उच्चतर अवस्था है। अतः इसमें संवेदना के कई उतार चढ़ाव प्रदर्शित होते हैं। प्रेम का भाव अपने प्रियजन के सान्निध्य में उत्पन्न होता है। हालांकि यह दैहिक धरातल से परे आत्मा का अलंकरण है, परंतु सामान्यतः इस लौकिक प्रेम के रूप में लिया जाता है। यह भाव किसी प्रिय व्यक्ति के स्पर्श से भी जाग्रत हो उठता है। किसी के द्वारा हृदय के तार झंकृत कर देने पर भी प्रेम की तरंगें उठने लगती हैं, जो आँखों एवं चेहरे पर दिखाई देने लगती है।
प्रेम का सबसे सहज एवं सरल स्वरूप है - माता का अपने शिशु के प्रति प्रेमभाव। महान् वैज्ञानिक डार्विन ने अपने ग्रंथों में प्रेम के लिए किसी विशेष संकेत या चिह्न का उल्लेख नहीं किया है। कोमलता एवं सहृदयता भी एक आनंददायक अनुभूति है।इनसे हृदय प्रेम से भर उठता है। इसी भाव से प्रेरित होकर माँ अपने बच्चे को पुचकारने लगती है। इस अनुभव को शब्दों में विवेचित-विश्लेषित करना बड़ा कठिन है। दीर्घ अंतराल के पश्चात् किसी प्रियजन से मिलने पर यह प्रसन्नता होती है और आँखों से आँसू झरने लगते हैं। इसके ठीक विपरीत प्रियजन से विछोह एवं विदाई भी व्यक्ति को आंसुओं से तर कर देती है।
संवेदनशीलता का यह भाव अन्य प्राणियों में भी दिखाई देता है। प्रेम की अभिव्यक्ति विविध देश एवं भिन्न संस्कृति के अनुरूप भी विविधता लिए होती है। पश्चिमी देशों में प्रेम को जाहिर करने के लिए आलिंगन एवं चुँबन का प्रचलन है, परंतु पश्चिमी दुनिया का यह प्रभाव फ्यूजीयन, न्यूजीलैण्ड, ताहितीयन, पापुआन , आस्ट्रेलियन , इसकीमेक्स तथा अफ्रीका की सोमाली की जनजातियों में नहीं पाया जाता। वहाँ पर गले मिलने व हाथ मिलाने का प्रचलन है। न्यूजीलैण्ड एवं लेपलैंड्स के लोग भी हाथ मिलाकर अपने प्रेम को प्रकट करते हैं।
संवेदना से ओतप्रोत सहानुभूति की अभिव्यक्ति भी व्यक्ति को रुला देती है। किसी घटना -कहानी -फिल्म आदि से भावनाओं के स्तर पर एकाकार हो जाने से भी इसी तरह की अभिव्यक्ति होने लगती है। सहानुभूति के सहज स्वर आँखों में आँसू बनकर झरने लगते हैं। सामान्यतः कष्ट के क्षणों में ऐसा होता है। बच्चों को थोड़े से कष्ट में सहानुभूति देने पर वे रोने लगते हैं।यह भाव किसी अपार कष्ट कठिनाई में मरहम का काम करता है। भावना का स्वरूप कोई भी क्यों न हो, इसका हृदय एवं आँखों से गहरा संबंध है। हृदय में भावनाओं का तीव्र प्रवेग उठते ही आँखें भरने लगती हैं। भक्ति इसकी से ही जीवन हास्य , संवेदना एवं प्रेम का पर्याय बन जाता है। संवेदनशीलता को चरम दरजे तक विकसित करके भक्ति की उन्नत अवस्था भी पाई जाती है। इस अमृत एवं दिव्य भाव को पाने का सहज उपाय यही है कि हम अपनी संवेदना को अपने क्षेत्र एवं परिकर में वितरित करें। सुख बाँटें-दुख बँटाएँ , यही अपनी संवेदनशीलता को अभिव्यक्त करने का सार्थक एवं सहज तरीका है।