ऐसे हुआ समाधान जिज्ञासा का

January 2000

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महाराजा वीर विक्रमदेव जितने नीतिकुशल थे, उतने ही रणकुशल । प्रजा उनके न्याय पर अभिमान करती थी। सभी को इस बात पर अभिमान था कि अन्यायी कोई भी हो - भले ही वह राजपरिवार का सदस्य ही क्यों न हो - महाराज का न्यायदंड उसे बख्शेगा नहीं। उनकी नीति कुशलता के कारण ही पड़ोसी राज्यों से उनके मधुर संबंध थे। यही वजह थी कि व्यापार और वाणिज्य की अबाध प्रक्रिया राज्य को उत्तरोत्तर समृद्ध बना रही थी। महाराज के रणकौशल के सम्मुख विरोधी नतमस्तक होते थे और दस्यु -गिरोह स्वतः ही समर्पण कर देते थे। उनका दरबार नीतिज्ञों , विद्वानों का रत्नकोष था। वहाँ हर समय सद्ज्ञान की धाराएँ प्रवाहित होती रहती थीं। नित्य−नवीन जिज्ञासाएँ एवं सरल सुबोध समाधान -यही क्रम था राजदरबार का।

आज तो महाराज स्वयं ही जिज्ञासु थे। उन्होंने अपनी तीन जिज्ञासाएँ दरबार में उपस्थित विद्वानों के सामने प्रकट की - 1. किसी काम को शुरू करने का ठीक समय क्या है?

2. किन लोगों की बात सुननी चाहिए, किनकी नहीं? 3. संसार का उत्तम पदार्थ क्या है, जिससे मैं जो चाहूँ कर सकता हूँ?

पहले सवाल के जवाब में किसी न कहा कि मनुष्य को काम करने के वास्ते दिनों , महीनों और वर्षों का एक सूची पत्र बना लेना चाहिए। किसी ने कहा कि कार्य आरंभ करने का पहले से ठीक समय निश्चित करना असंभव है। मनुष्य का चाहिए कि वृथा समय न गँवाए, जो कर्तव्य हो उसे सदा करता रहे। किसी ने कहा कि राजा कितना भी चतुर और सावधान क्यों न हो, वह अकेला प्रत्येक कार्य आरंभ करने का ठीक समय नहीं जान सकता। उसे बुद्धिमान लोगों की सभा बनाकर उनसे सम्मति लेनी चाहिए।

इसी प्रकार अन्य लोगों ने दूसरे प्रश्न के भी अनेक उत्तर दिए। किसी ने कहा कि राजा के मंत्री अति उत्तम होने चाहिए। कोई बोला वैद्य , किसी ने कहा माँत्रिक-ताँत्रिक इत्यादि। तीसरे प्रश्न का उत्तर भी इसी प्रकार मिला। कोई कहता था पदार्थ विद्या सबसे उत्तम है कोई कहता था , शस्त्र विद्या, कोई बतलाता था पूजापाठ।

महाराजा वीर विक्रमदेव को इनमें से कोई भी उत्तर ठीक मालूम न हुआ। अतएव उन्होंने अपनी राजधानी में डाँड़ी पिटवा दी कि जो पुरुष इन तीन सवालों का जवाब देगा, उसे बहुत-सा इनाम दिया जाएगा। अब अनेक बुद्धिमान् पुरुष आकर महाराज को इन प्रश्नों के उत्तर देने लगे। उनके उत्तरों में बौद्धिक कुशलता रहती, तर्क प्रवणता रहती, परंतु साथ ही अनुभव शून्यता भी दिखाई देती। उत्तर देने वालों के मनों में भारी इनाम पाने का लोभ भी था। इनमें से कुछ ऐसे भी थे, जो राजदरबार में स्थान पाना चाहते थे।गहरी जीवन -साधना से उपजा समाधान इनमें से किसी के पास भी न था।

दिन बीतते गए, साथ ही महाराज की जिज्ञासा भी तीव्र से तीव्रतर होती चली गई। हर नए दिन कोई नया व्यक्ति आता। अपनी बात को तरह-तरह की नवीन युक्तियों से पुष्ट करने की चेष्टा करता, परंतु इन नए-नए तर्कों से वीर विक्रमदेव का समाधान न हो पाता।

एक दिन एक गृहस्थ ने महात्मा रामानुज से प्रश्न किया कि “महात्मन् ! क्या कोई मार्ग नहीं है कि यह संसार भी न छोड़ना पड़े और स्वर्ग भी पा लूँ।” रामानुज हँसे और बोले -”हाँ , है ऐसा मार्ग। तुम जो कुछ कमाओ, दूसरों की भलाई के लिए करो।” गृहस्थ को संदेह हुआ उसने पूछा- “मगर ऐसे कठिन मार्ग पर कौन चल सकता है?” रामानुज ने दृढ़ विश्वास के साथ कहा “जो नारकीय यातनाओं से बचना चाहता होगा और जिसे ईश्वरप्राप्ति की सच्ची लगन होगी।”

अपनी इसी चेष्टा में एक दिन उन्हें यह पता चला कि राजधानी से काफी दूर एक जंगल में महर्षि आयुष रहते हैं। उनकी तप साधना एवं योगविद्या उत्कृष्टतम है। उनके पास जो ज्ञान है, वह तपोधन महर्षि को लोग स्वयं भगवान् का प्रतिनिधि मानते हैं। आसपास की ग्रामीण जनता इन्हें देवपुरुष समझती है।राजा ने सोचा- इन महर्षि से ही अपने प्रश्नों का समाधान पाया जाए।

ये महर्षि कुटिया छोड़कर कहीं बाहर नहीं जाते थे। उनका मिलना जुलना भी किन्हीं यशस्वी-वर्चस्वी एवं राजा महाराजाओं से नहीं बल्कि दीन, दुःखी, पीड़ितजनों से होता था। इसी वजह से महाराज वीर विक्रमदेव ने साधारण वस्त्र पहने और इन महर्षि आयुष की कुटिया के पास जा पहुँचे। उन्होंने देखा कि महर्षि आयुष कुटिया के पास जमीन को फावड़े से खोद रहे हैं। राजा को देखते ही महर्षि ने उन्हें प्रणाम किया और फिर अपना काम करने में जुट गए। महर्षि शरीर से बहुत दुबले-पतले एवं कमजोर थे। वह फावड़ा चलाते -चलाते हाँफने लगते थे।

महाराज ने उनके प्रणाम का प्रत्युत्तर देते हुए कहा-ऋषिवर ! मैं आपसे तीन बातें पूछने आया हूँ। पहली बात यह कि मैं ठीक कम करने का ठीक समय किस प्रकार जान सकता हूँ? दूसरी बात यह कि मेरे लिए किन लोगों का संग साथ करना उचित है? तीसरा प्रश्न यह कि कौन सा विषय सबसे उत्तम है ?

महर्षि आयुष न काई उत्तर नहीं दिया, वह आत्मनिमग्न हो खुदाई करते रहे। वीर विक्रमदेव बोले - महर्षि! आप थके मालूम पड़ते हैं, लाइए मुझे फावड़ा दीजिए और आप विश्राम कर लीजिए।

महर्षि आयुष ने राजा को धन्यवाद दिया और फावड़ा उनके हाथ में दे दिया और स्वयं जमीन पर बैठ गए।

महाराज जब दो क्यारियाँ खोद चुके तो रुक गये और उन्होंने फिर से अपने तीनों सवाल दोहराए। महर्षि ने सिर्फ एक शब्द कहा- हाँ और फावड़ा जमीन पर रख दिया और बोले -ऋषिवर! मैं तो आपसे अपने सवालों के जवाब लेने आया था। यदि आप उत्तर नहीं दे सकते तो मैं लौट जाता हूँ।

तभी महर्षि अचानक बोले -देखो कोई भागा हुआ चला आ रहा है।

विक्रमदेव ने मुँह फेरकर देखा कि एक दाढ़ी वाला मनुष्य जंगल की ओर दौड़ता हुआ आ रहा है। उसने अपने पेट को हाथ से दबा रखा था और हाथ के बीच से रुधिर बह रहा था। राजा के पास पहुँचकर वह बेसुध होकर गिर पड़ा। राजा और महर्षि ने कुरता उठाकर देखा तो उसके पेट में बड़ा घाव पाया। राजा ने घाव को पानी से धोकर अपना रुमाल उस पर बाँधा, रुधिर बंद हो गया। कुछ काल उपराँत उसे सुधि आई तो पानी माँगा। राजा ने तुरंत जल लाकर पिलाया। इतने में सूर्यास्त हो गया। राजा ने महर्षि की सहायता से उस व्यक्ति को कुटिया में लिटा दिया। घायल व्यक्ति को नींद आ गई। विक्रमदेव भी थके होने के कारण सो गए। भोर होने पर वह उठे तो घायल ने कहा -राजन् ! आप मुझे क्षमा कीजिए।

विक्रमदेव बोले -क्षमा कैसी? मैं तो तुम्हें जानता भी नहीं।

उस व्यक्ति ने कहा -आप मुझे नहीं जानते, परंतु मैं आपको जानता हूँ। आपने मेरे भाई को एक अपराध में दंड दिया था। तभी मैंने प्रतिज्ञा की थी कि मैं आपसे बदला लूँगा। मैं जानता था कि आप महर्षि से मिलकर संध्या समय अकेले लौटेंगे। इसी उद्देश्य से मैं जंगल में छिप गया था। आपके सिपाहियों ने मुझे पहचान लिया और मुझ पर वार किया। यदि आप मेरा घाव न बाँधते तो मैं अवश्य मर जाता। आपने मुझ पर दया की। मैं आपको मारना चाहता था, परन्तु आपने मेरी जान बचाई। अब भविष्य में मैं आपका सेवक बनकर रहूँगा।

विक्रमदेव बड़े प्रसन्न हुए कि ऐसा प्राणघातक शत्रु सहज में ही मित्र बन गया। उन्होंने अपने राजवैद्य को उसकी दवा करने के लिए बुला भेजा। उसकी सब प्रकार से व्यवस्था करके राजा ने महर्षि से विदा माँगते हुए कहा -ऋषिवर ! आपने मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं दिए, कोई बात नहीं। अच्छा प्रणाम , अब हमें आज्ञा दें।

महर्षि ने कहा - देखो, यदि कल तुम मुझे थका देख सहज सौजन्यवश धरती न खोदते और शीघ्र लौट जाते तो वह मनुष्य राह में तुम्हें कष्ट देता और तुम पछताते कि महर्षि के पास क्यों बेकार में गया। इसलिए विदित हुआ कि उत्तम समय वह था , जब तुम खुदाई कर रहे थे और उचित मनुष्य मैं था, अतः मेरा भला करना तुम्हारा परम कर्त्तव्य था।

महर्षि आयुष ने अपनी बात का साराँश बताते हुए कहा कि सदैव वर्तमानकाल ही उचित समय है, क्योंकि केवल वर्तमान पर ही मनुष्य का अधिकार है। जो मनुष्य मिल जाए वही उचित मनुष्य है। कौन जानता है, पल में क्या हो जाए और कोई मिले अथवा न मिले। सर्वोत्तम कर्त्तव्य परोपकार है, क्योंकि उपकार के लिए ही मनुष्य इस मृत्युलोक में शरीर धारण करता है।


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