महा का मूर्द्धन्य (kahani)

January 2000

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कोर्टमार्शल के सम्मुख तात्या टोपे को उपस्थित करने के बाद अँगरेज न्यायाधीशों ने पूछा -”यदि तुम चाहो तो अपने बचाव में कुछ कह सकते हो।” तात्या टोपे का स्वाभिमान जाग उठा।उनने कहा- “मैंने ब्रिटिश शासन से टक्कर ली है।मैं जानता हूँ कि इसके बदले में मुझे मृत्यु दंड प्राप्त होगा। मैं केवल ईश्वरीय न्याय और न्यायालय में ही विश्वास रखता हूँ, इसलिए अपने बचाव के लिए मैं कुछ नहीं कहना चाहता।” तात्या को जब फाँसी स्थल पर ले जाया गया, तो उसने कहा- “तुम लोग कष्ट क्यों करते हो, लाओ, फाँसी का फंदा मैं स्वयं ही अपने गले में डाल लूँ।” इन अंतिम शब्दों के साथ सन् सत्तावन के स्वतंत्रता संग्राम का वह सेनानी अमर हो गया।

एक छोटी नदी तालाब के किनारे से बह रही थी। तालाब बरसात भर भरा रहता, इसके बाद सूख जाता। नदी थी तो छोटी , पर उसका स्त्रोत हिमालय था, आगे चलकर गंगा में मिलती और विशाल सागर में विलीन हो जाती। तालाब नदी को समझाता -इतनी लंबी और कष्टसाध्य यात्रा क्यों करती हो? मेरा घर क्यों नहीं बसा लेती? हम दोनों मिलकर रहें, तो क्या हर्ज है? नदी ने कहा-तुम तक सीमित होने के बाद मैं अन्यत्र कहीं न जा सकूँगी और किसी के काम न आ सकूँगी। इसलिए मुझे रोको मत। प्रवाहित होते रहने में मेरा और संसार का कल्याण है।

एक चिड़ियाघर के जानवरों ने इकट्ठे होकर विचार किया कि निरस्त्रीकरण की नीति पर चलना चाहिए। गैंडे ने कहा -दाँत और पंजे सबसे अधिक खतरनाक होते हैं, उन पर प्रतिबंध लगाया जाए, सींग तो केवल रक्षा के साधन मात्र है। भैंसा और हिरन से लेकर काँटों वाली सेंई तक ने गैंडे का समर्थन किया। शेर ने दाँत और पंजों को खाने और चलने का साधारण साधन बताते हुए कहा -”सींग ही निरर्थक वस्तु है, सर्वसम्मति से उसी का प्रयोग निषिद्ध किया जाए।” बाघ, चीता और सियार से वन विलाव तक ने इस तर्क की प्रशंसा की। रीछ की बारी आई तो उसने कहा - “सींग और दाँत , पंजे यह सभी हानिकारक हैं। जरूरत पड़ने पर आलिंगन करने के मित्रतापूर्ण ढंग पर छूट रखी जानी चाहिए। “ जो लोग रीछ की आदत जानते थे, वे उसकी चालाकी को ताड़ गए और मन ही मन बहुत कुढ़े। अपने पक्ष का समर्थन और प्रतिपक्षी का विरोध करने के जोश में बहुत शोर मचने लगा, एक दूसरे पर गुर्राने लगे, यहाँ तक कि टूट पड़ने की बात सोचने लगे। चिड़ियाघर के मालिक न यह शोर सुना तो उसने उन सबको अपने अपने बाड़े में खदेड़ दिया और कहा - मूर्खों ! तुम भलमनसाहत से अपनी-अपनी मर्यादाओं का पालन करो, तो बिना निरस्त्रीकरण का भी काम चल सकता है।

आशा करनी चाहिए कि मनुष्य में सद्बुद्धि आएगी एवं विनाश का यह वातावरण पारिवारिक की मनःस्थिति के विकसित होते ही बदलेगा। सन्मति ही प्रज्ञा है। चिंता की भ्रष्टता एवं आचरण की दृष्टता चारों ओर समझदारी का वातावरण बनने पर ही मिटेगी। इस दिशा में मनीषियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। ऋषिसत्ता का यह आश्वासन है कि महा का मूर्द्धन्य प्रतिभाओं के माध्यम से सारे विश्व को एक सूत्र में अगले दिनों आबद्ध करके ही रहेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118