पर्यावरण संरक्षण की एक सुदीर्घ एवं अति प्राचीन परंपरा

January 2000

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जीवनदायी तत्त्वों की शुद्धता संरक्षित हो तो जीवन भी शुद्ध और सुरक्षित रहता है। समूची सृष्टी पंचमहाभूत अर्थात् पंचतत्त्वों से विनिर्मित है। अग्नि , जल, पृथ्वी , वायु और आकाश यही किसी न किसी रूप में जीवन का निर्माण करते हैं, उसे पोषण देते हैं। इन सभी तत्वों का सम्मिलित , स्वरूप ही पर्यावरण है। ‘पर्यावरण संरक्षित तो जीवन सुरक्षित ‘ यह उक्ति मात्र एक कहावत भर नहीं बल्कि अनिवार्य एवं अकाट्य सत्य है। पर्यावरण का संतुलन ही जीवनचक्र को नियंत्रित करता है और इसमें गतिरोध आते ही जीवन संकट में पड़ जाता है। यही कारण है कि इसकी सुरक्षा की चिंता प्राचीनकाल से होती आ रही है। वेदकालीन महर्षिगणों ने इसकी आवश्यकता एवं महत्ता को ध्यान में रखकर इसे शुद्ध एवं संरक्षित रखने हेतु नियम बना लिए थे। धर्म इन्हीं नियमों का व्यावहारिक रूप है।

वेदों को सृष्टि विज्ञान का मुख्य ग्रंथ माना गया है। इनमें सृष्टि के जीवनदायी तत्वों की विशेषताओं का काफी सूक्ष्म व विस्तृत विवरण है। ऋग्वेद में अग्नि के रूप, रूपांतर और उसके गुणों की व्याख्या की गई है। यजुर्वेद में वायु के गुणों , कार्य और उसके विभिन्न रूपों का आख्यान मिलता है। अथर्ववेद पृथ्वीतत्व का वर्णन सभी वेदों में हुआ है। वैदिक महर्षियों ने इन प्राकृतिक शक्तियों को देवता स्वरूप माना इसीलिए उन दिनों जड़-चेतन , सभी रूपों की उपासना व अभ्यर्थना की जाती थी और इसीलिए निश्चित तौर पर समस्त सृष्टि में सुख-शाँति व समृद्धि का वातावरण था।

यजुर्वेद का अध्ययन इस तथ्य का संकेत करता है कि उसके शाँतिपाठ में पर्यावरण के सभी तत्त्वों को शाँत और संतुलित बनाए रखने का उत्कट भाव है, वहीं इसका तात्पर्य है कि समूचे विश्व का पर्यावरण संतुलित और परिष्कृत हो। इसमें उल्लेख है कि द्युलोक से लेकर पृथ्वी के सभी जैविक -अजैविक घटक संतुलन की अवस्था में रहें। अदृश्य आकाश पृथ्वी एवं उसके सभी घटक , जल औषधियां वनस्पतियाँ संपूर्ण संसाधन एवं ज्ञान शाँत रहें। पर्यावरण के प्रति इतना गहन एवं सूक्ष्म ज्ञान का दिग्दर्शन अन्यत्र दुर्लभ है।

ऋग्वेद में वायु के महत्त्व को भेषज गुणों से युक्त स्वीकारा गया है। ऋग्वेद की ऋचा कहती है-हे वायु! अपनी औषधि ले आओ और यहाँ से सब दोष दूर करो, क्योंकि तुम ही सभी औषधियों से भरपूर हो। ऋग्वेद का एक अन्य मंत्र जल की शुद्धता का वर्णन करते हुए कहता है, ओह! प्रशंसा के गीत गाएँ -प्रवाहित जल के , जो हजारों धाराओं से स्फटिक की तरह बहकर आँखों को आनंद देता है। ऊर्जा के अपरिमित स्त्रोत सूर्य को ‘जगत् की आत्मा ‘ कहकर उसकी अभ्यर्थना की गई है। उपनिषद्कारों ने सूर्य को प्राण की संज्ञा दी है। यज्ञों के माध्यम से वायुमंडल को शुद्ध करना भी वेदों का विषय रहा है। वैदिककाल में पर्यावरण के परिष्कार के लिए यज्ञ-हवन संपन्न किए जाते थे।

सामवेद में जीवन की मंगलकामना और प्रकृति की अविरल उपासना के भाव वर्णित हैं। इसमें वनस्पतियों और पशुजगत तथा औषधि विज्ञान के सुँदर मंत्रों के उद्धरण हैं। सामवेद कहता है -इंद्र ! सूर्य रश्मियों और वायु से हमारे लिए औषधि की उत्पत्ति करो। हे सोम! आपने ही औषधियों, जलों और पशुओं को उत्पन्न किया है। अथर्ववेद में भी पर्यावरण संरक्षण और संवर्द्धन संबंधी चिंतन का गौरवगान हुआ है। अथर्वण ऋषि अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में धरा की महानता उदारता , सर्वव्यापकता आदि अनंत गुणों पर विस्मय−विमुग्ध हो कह उठे, हे माता! आपके लिए ईश्वर ने शीत वर्षा तथा वसंत ऋतुएँ बनाई हैं।दिन-रात के चक्र स्थापित किए हैं। इस कृपा के लिए हम आभारी हैं। मैं भूमि के जिस स्थान पर खनन करूं , वहाँ शीघ्र ही हरियाली छा जाए। आपसे प्रार्थना है कि मुझे ऐसी सद्बुद्धि दें जिससे मैं आपके हृदय स्थल को न तो आहत करूं और न ही आपको दुःख पहुँचाऊँ। इस तरह अथर्ववेद मानव जगत के अधिक सन्निकट है। व्यक्ति स्वस्थ, सुखी दीर्घायु रहे, नीति पर चले और पशु वनस्पति एवं जगत् के साथ साहचर्य रखे, यही अथर्ववेद की विशेषता है।

वैदिक कर्मकाँडों की अनेक विधाओं ने भी पर्यावरण संरक्षण और सुरक्षा का दायित्व निभाया है। अरण्यों में रहकर पर्यावरण के प्रति विशेष जागरुक रहने वाले ऋषियों ने आरण्यक साहित्य का सृजन कर विश्व में पर्यावरण के महत्व को रेखांकित किया है। आरण्यक ब्राह्मण ग्रंथों एवं उपनिषदों के बीच की कड़ी हैं। ‘अरण्ये भवमेति आरण्यकम्’ कहकर आरण्यक का अर्थ स्पष्ट किया गया है। बृहदारण्यक भी ‘अरण्येनूत्यमानत्वात् अरण्यकम्’ के रूप में इसका समर्थन करता है। इसका विषय प्राणविद्या है। अंतरिक्ष और वायु से प्राण का संबंध अन्योन्याश्रित है। पर्यावरण के जैविक और अजैविक तत्वों में भी वायु और अंतरिक्ष का विशेष योगदान रहता है। सृष्टि के सभी तत्वों में इन दोनों का समावेश है। इन्हीं गुणों के कारण सृष्टि के सभी तत्वों का प्राणशक्ति मिलती है। जिससे विकास की गति अग्रसर होती है।

उपनिषदों में भी जल वायु पृथ्वी और अंतरिक्ष का विशद् वर्णन हुआ है। इसमें प्रकृति की महत्ता को पर्याप्त मान्यता प्रदान की गई है। इनके अनुसार पदार्थ की उत्पत्ति एवं जीव-जगत् की सृष्टि अग्नि जल और पृथ्वी के विनियोग से हुई है। श्वेताश्वेतर उपनिषद् ने इस त्रिगुणात्मक प्रकृति की विवेचना की है। छाँदोग्य उपनिषद् स्पष्ट करता है कि सात्विक ओर से परिष्कृत में का सीधा संबंध है। इसमें आगे और स्पष्ट करते हुए उल्लेख है कि पृथ्वी जल और पुरुष सभी प्रकृति के घटक हैं।पृथ्वी का रस जल है और जल का रस औषध है। औषधियों का पुरुष , रस है , पुरुष का रस वाणी , वाणी का ऋचा, ऋचा का साम और साम का रस उद्गीथ हैं, अर्थात् पृथ्वीतत्व में ही सब तत्वों को प्राणवान बनाने के प्रमुख कारण है।

रामायणकाल में भी पर्यावरण चेतना पर्याप्त सक्रिय थी। वाल्मीकि रामायण में राम के वन गमन के समय प्रकृति के मनोरम दृश्य का उल्लेख किया गया है-इस समय पर्वत प्रदेश, घने -जंगल एवं रम्य नदियों के किनारे सारस और चक्रवाक पक्षी आनंद में विचर रहे थे। सुँदर जलाशय में कमलदल खिले हुए थे। जंगलों में में झुँड के झाँड हिरन , गैंडे वाराह और हाथी निर्भय घूम रहे थे अर्थात् उन दिनों पर्यावरण अत्यंत समृद्ध था। इस काल का चित्रण करने वाले महाकवि भवभूति ने भी प्रकृति का अत्यंत हृदयग्राही चित्रण करते हुए कहा है किसी ता का आवास स्थल हरियाली से भरापूरा था। यहाँ यहाँ वे हरिणों को हरी-हरी घास देती थी। रामायण कालीन सभी ग्रंथों में जड़ व चेतन सभी तत्त्वों को चेतना संपन्न बताया गया है। रामचरितमानस के उत्तरकांड में वर्णन मिलता है कि चरागाह तालाब हरित भूमि , वन उपवन के सभी जीव आनंद पूर्वक रहते थे। इस तरह रामायणकाल में पर्यावरण एवं प्रकृति को मानव से घनिष्ठ मानत हुए इसे विशेष संरक्षण प्रदान किया गया था।

महाभारतकालीन मनीषियों ने पर्यावरण की गौरवगरिमा को सहज रूप से स्वीकारा था। इस काल में भगवान् कृष्ण द्वारा गाई गीता में प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण बताया गया है प्रकृति के कण -कण में सृष्टि का रचयिता समाया हुआ है। प्रकृति के समस्त चमत्कारों को परमेश्वर का स्वरूप बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके सभी भूत-प्राणियों को धारण करता हूँ।चंद्रमा बनकर औषधियों का पोषण करता हूँ महाभारतकाल में प्रत्येक तत्व को देवता सदृश स्वीकार कर उनकी अभ्यर्थना की जाती थी। उन दिनों वृक्षों की पूजा का प्रचलन था।वृक्षों को काटना महापाप समझा जाता था।

महाभारत के आदिपर्व में वर्णन है कि गाँव में जो जगह पेड़ फूल और फलों से भरपूर हो वह स्थान हर तरह से अर्चनीय है। इसमें प्रकृति का अनेक उपमाओं से अलंकृत किया गया है। नदियों के पानी को स्फटिक के सदृश स्वराज्य आँदोलन के दिनों की बात है। राजकोट में काठियावाड़ राज्य प्रजा परिषद् का अधिवेशन हो रहा था। बापू अन्य नेताओं के साथ मंच पर बैठे थे। तभी उनकी दृष्टि दूरी पर बैठे एक वृद्ध पर पड़ी। वे गाँधीजी का कुछ जाने पहचाने से लगे। स्मरण शक्ति पर जरा जोर देने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि ये तो मेरे बचपन के अध्यापक हैं। बापू शीघ्र ही मंच से उतरकर उनके पास गए और प्रणाम करके उनके चरणों के समीप बैठ गए। गुरुजी ने बापू से कहा- “अब आप मंच पर पधारिए। नेतागण आपकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।” बापू बोले -”नहीं नहीं मैं यहीं पर ठीक हूँ । अब मैं मंच पर नहीं जाना चाहता। यहीं बैठकर सारा कार्य देखूंगा। आप चिंता न कीजिए। “ सभी समाप्त होने पर चलने लगे, तो अध्यापक ने गदगद होकर आशीर्वाद दिया - जो व्यक्ति तुम जैसा अहंकार रहित हो , महान् कहलाने का अधिकारी वही हो सकता है। “

स्वच्छ और सुँदर बताया गया है। महाभारतकाल में पवित्र और शीतल जलाशय तथा जंगल पहाड़ व पर्वतों आदि को प्रकृति व पर्यावरण के अद्भुत प्रसंगों से महाभारत के प्रायः सभी पर्व भरे पड़े है। कालिदास ने भी अपने नाटकों एवं काव्यों में पशु -पक्षी वृक्षादि से मानवीय जीवन का अपूर्व संबंध स्थापित किया है। अभिज्ञान शाकुँतलम् ने तो इन रिश्तों व संबंधों को सजीव कर दिया है। कण्व आश्रम में पली बढ़ी शकुंतला अपने चारों ओर के परिवेश एवं वातावरण से इतना एकात्म एवं तदाकार हो गई थी कि उसका विछोह सभी को विह्वल कर रहा था। उसकी विदाई के समय पशु पक्षी ही नहीं वनस्पति जगत् भी उदास हो गया था।

काव्य की ही भाँति दर्शन , दार्शनिक एवं दार्शनिकता भी पर्यावरण की चिंतन चेतना से ओतप्रोत रहे हैं। साँख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष के समवाय का सृष्टि का कारण माना है। प्रकृति जड़ एवं स्थूल होते हुए भी अति सूक्ष्म है। अतः प्रकृति समस्त सृष्टि की उत्पत्ति का प्रमुख कारण है। चूँकि प्रकृति को यहाँ इतना सूक्ष्मातिसूक्ष्म दर्शाया है, इसलिए इसमें पर्यावरण अनायास ही जीवंत हो उठा है। न्यायदर्शन में ईश्वर एवं जीव के साथ प्रकृति भी महत्वपूर्ण घटक है। वैशेषिक दर्शन में पंचमहाभूत तत्वों का वर्णन है। यही तत्त्व सृष्टि के मुख्य कारक तत्त्व हैं। योगदर्शन भी साँख्य की तरह ही प्रकृति का विवेचन और विश्लेषण प्रस्तुत करता है। अतः सभी दर्शन प्रकृति के रूप में पर्यावरण के महत्व को प्रतिपादित करते हैं।

वैदिक एवं दार्शनिक साहित्य की ही भाँति पुराणों में भी पर्यावरण के घटकों को पूजनीय माना है, प्रकृति के इन घटकों में देवत्व का भाव भी दर्शाया गया है। यहाँ मिट्टी प्रस्तर के पहाड़ को देवात्मा हिमालय बताया है तो नदियों को देवी का पर्याय माना है, जिसमें पुण्यतोया गंगा का स्वरूप तो अवर्णनीय है। पुराणों के अनुसार ईश्वर संसार के कल्याणार्थ कभी मत्स्य का आकार ग्रहण करते हैं तो कभी कछुआ, हंस बनकर इनकी महत्ता प्रतिपादित करते हैं। सिंह और वाराह के रूप में आकर सभी जीवों की श्रेष्ठता घोषित करते हैं। इसी लिए भारतीय संस्कृति में सभी जड़-चेतन का दिव्य माना है। पुराणों की रचना का आधार भी सृष्टि के तत्वों को लेकर बना है। अनेक पुराणों का नामकरण भी इन तत्त्वों के नामों को लेकर हुआ है। अग्निपुराण , वायुपुराण आदि में यही भाव दिखाई देता है। इन सभी पुराणों में दिव्य प्रकृति का सहज वास है।

ब्रह्मानंदपुराण ने अपने एक श्लोक में जलतव की महत्ता प्रतिपादित की है। गंगाजल की विशेषता इसमें खासतौर पर परिलक्षित होती है। वृक्ष मानवमात्र के लिए सतत् प्राणदायक वायु का संचार करते हैं। यही वजह है कि भारतीय ऋषियों महर्षियों न वृक्षों के प्रति अगाध अनुराग भावना प्रदर्शित की है। यहाँ पर वृक्ष पूजा का प्रचलन अति प्राचीन है। देवदार का देवताओं का प्रिय वृक्ष कहा जाता है । तुलसी को वायुशोधन एवं पवित्रता के लिए हर आँगन में रोपने की प्रथा है। पौराणिक मान्यता के अनुरूप ही अपने यहाँ पीपल, पलाश , नीम अशोक बरगद कदंब आँवला आदि अनेक वृक्षों को देवता के सदृश पूजा जाता है। प्राचीनकाल में तो वृक्षों के साथ वनों की भी पूजा होती थी। इसीलिए मधुवन , वृहदवन बहुलवन , कुमुदवन , श्रीवन, नंदनवन आदि वनों का वर्णन मिलता है। इन सभी उपक्रमों एवं प्रयासों के पीछे पर्यावरण को संरक्षित करने की विशेषता ही झलकती है।

पुराणों का उदयकाल वेदकाल से प्रारम्भ होकर सोलहवीं शताब्दी के अंतिम कालखंड तक माना गया है। अतः इस दीर्घावधि में पर्यावरण के प्रति पर्याप्त सजगता एवं जागरुकता का रुझान मिलता है। इसके अलावा इतिहास के पृष्ठों में दब तमाम तथ्यों का उभारने पर पता चलता है कि इन दिनों भी पर्यावरण के प्रति दृष्टिकोण विधेयात्मक था। सिंधु सभ्यता के युग में द्रविड़ों की जीवनशैली न पर्यावरण प्रेम को दर्शाया है। वे विशेष रूप से वृक्ष पूजा करते थे। द्रविड़ों के द्वारा प्रारम्भ की गई यह प्रक्रिया एवं परंपरा बाद में भी जीवित रही। चंद्रगुप्त मौर्य के समय वन की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अभ्यारण्यों की पाँच श्रेणियाँ होती थी। सम्राट अशोक के शासनकाल में सर्वप्रथम वन्य जीवों के संरक्षण हेतु नियम बनाए गए थे। इसके पश्चात् भी यह सिलसिला चलता रहा।

पर्यावरण संरक्षण की इस सुदीर्घ एवं अतिप्राचीन परंपरा का आधुनिकता की आग ने भारी नुकसान पहुँचाया है। दोहन और शोषण , वैभव एवं विलास की रीति नीति से पर्यावरण को संकट में डाल दिया है, फलतः जीवन भी संकटग्रस्त है, सब ओर विपन्नता है, प्राकृतिक आपदाओं का क्रूर ताँडव है। वैज्ञानिक हो या राजनेता ,सभी प्रकृति के क्रोधावेश से डरे-सहमे हैं। समाधान की खोज के इन पलों में सार्थक निदान के लिए जरूरी है कि हम अपनी विरासत को सँभाले। पर्यावरण संरक्षण की टूट-बिखर रही कड़ियों को पुनः जोड़े। हममें से प्रत्येक मन-वाणी-कर्म से इस सत्य का वेदकालीन महर्षियों के स्वर-में-स्वर मिलाकर सस्वर उद्घोष करें-ॐ द्यौ शाँतिः अंतरिक्ष शाँति पृथ्वी शाँतिः आपः शाँतिः। जब हम अपने आचरण व्यवहार से माता प्रकृति के कोप को शाँत करेंगे, तभी हमारा अपना जीवन भी शाँत और सुखी होगा।


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