गरुड ने अपने बच्चे को पीठ पर बिठाया और उसे अपने साथ दूसरे सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया। दिन भर दोनों दाना चुगते रहे, सायंकाल घर लौटे। गरुड़ अपने बच्चे को यातायात प्रयोजन में भी साथ दिया करता था। यह क्रम बहुत दिन चला। गरुड़ ने बहुतेरा कहा, पर बच्चे ने उड़ना न सीखा। उसकी धारणा थी-जब तक निःशुल्क साधन उपलब्ध हो , तब तक स्वयं श्रम क्यों किया जाए? गरुड़ बच्चे की इस दुर्बलता का बड़ी सतर्कता से देखता रहा। एक दिन जब चह आकाश में उड़ रहा था, तब धीरे से अपने पंख खींच लिए। बच्चा गिरने लगा, तब चेत आया -पंख फड़फड़ाए। गिरते -गिरते बचा। पर अब उसने उड़ना सीखने की आवश्यकता अनुभर कर ली। सायंकाल बालक गरुड़ ने माँ से कहा -”माँ आज पंख न फड़फड़ाए होते तो पिताजी ने बीच में ही मार दिया होता।” मादा गरुड़ हँसी और बोली-”बेटे! जो अपने आप नहीं सीखते, स्वावलंबी नहीं बनते, उन्हें सिखाने -समझाने का यही नियम है।”
सुभाषचंद्र बोस आजीवन कुँवारे रहे। अपनी सामर्थ्य को उन्होंने पारिवारिक झंझटों में से बचाकर उच्च प्रयोजनों में लगाए रहने के लिए सुरक्षित रखा। उनकी आजाद हिंद फौज का निर्माण और विश्वमत का भारत के पक्ष में करने का प्रयास सर्वविदित है। अपनी संपत्ति का वेट्रस्ट बना गए ताकि विदेशों में भारतीय पक्ष को उजागर करने का प्रचार कार्य उस धन से होता रहे।
थाईलैण्ड संसार का एकमात्र देश है, जहाँ बौद्धधर्म -राजधर्म भी है । अन्य देशों ने तो भारत की परंपरा व संस्कृति इन थोड़े ही दिनों में गँवा दी, पर यह अकेला देश ऐसा है जिसमें वर्तमान भारत की परिधि से आगे जाकर यह देखा जा सकता है कि प्राचीनकाल में भारत की रीति-नीति का क्या स्वरूप था? वहाँ जो देखने का इन दिनों भी मिलता है, उससे यह पता लगाया जा सकता है कि भारत किन मान्यताओं और आदर्शों के कारण उन्नति के उच्चस्तर पर पहुँचा था और शाँति का संदेश सुदूर क्षेत्रों तक पहुँचाने में किन परंपराओं के कारण सफल हुआ?
थाईलैंड में धर्म -आस्था अन्य देशों की तरह डगमगाई नहीं है। वहाँ के नागरिकों को अभी भी प्राचीनकाल के धर्मनिष्ठ और कर्त्तव्यपरायण लोगों की तरह जीवनयापन करते हुए देखा जा सकता है। जनता अपनी धर्मश्रद्धा की अभिव्यक्ति एक बार अनिवार्य रूप से भिक्षु दीक्षा लेने की प्रथा है। थोड़े समय के लिए लोग भिक्षु बनते हैं और फिर अपने सामान्य साँसारिक जीवन में लौट जाते हैं। थाईलैंड के प्रत्येक बौद्ध धर्मानुयायी का विश्वास है कि “एक बार भिक्षु बने बिना उसकी सद्गति नहीं हो सकती। उसके बिना उसकी धार्मिकता अधूरी ही रहेगी।” इस आस्था के कारण देर सवेर में हर सुयोग्य नागरिक एक बार कुछ समय के लिए साधु अवश्य बनता है। घर छोड़कर उतने समय विहार में निवास करता है। बुद्ध संघ इन भिक्षुओं का व्यवस्थित, नियंत्रित एवं परिष्कृत कर सृजनात्मक कार्यों में नियोजित करता है। सीमित समय के लिए साधु-दीक्षा लेने वाली प्रव्रज्या पद्धति छोटे से देश के लिए बहुत अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है। यही कारण है कि इस देश को अपने ढंग से अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रगति करने का अवसर मिला है।