मन की तल्लीनता ही है ‘चित्तवृत्ति ‘ निरोध की धुरी

January 2000

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मन को वश में रखने के लिए अध्यात्म प्रसंगों में सदा कहा और दोहराया जाता है, पर यह नहीं बताया जाता कि यह किस प्रकार किया जाए? इसके लिए ध्यान, प्राणायाम जैसी विधियाँ बताई जाती है , पर देखा गया है कि इन विधाओं को अपनाने पर भी मन एकाग्र नहीं होता, पकड़ पकड़कर बिठाने पर भी मेंढक की तरह उछल जाता है । क्षणभर का अवसर मिलते ही कहीं से कहीं पहुंचता है। इस पकड़ -धकड़ में प्रयत्न क्र्र्र्र्र्र्र्र्र 0217 ही थकता है। चंचलता तो मन का स्वभाव ही ठहरा। वह पवन की तरह एक जगह स्थिर नहीं रह सकता। पखेरू की तरह उसके उड़ते रहने जैसी आदत जा है। हिरन को पकड़कर बाँधना उसे हाथ पाँव तोड़ लेने के लिए बाध्य करता है।

मन रस की खोज में मारा-मारा फिरता है। उसे उसी की लगन और ललक है। कस्तूरी हिरन को उस गंध के प्रति अत्यधिक लगाव होता है। उसी को खोजने के लिए, पाने के लिए वह लालायित होता है। जिधर भी मुँह उठता है, उधर ही दौड़ पड़ता है। यह भाग दौड़ तब तक जारी रहती है, जब तक कि उसे गंध के उद्गम का पता नहीं चल जाता।

मन को सरसता चाहिए- ऐसी स्थिति , जिसमें रसास्वादन का अवसर मिले, आनन्द की अनुभूति हो। नीरस क्रियाकलापों में उसे रुचि नहीं हो पाती, इसलिए वह अपना अभीष्ट तलाशने दूसरी जगह चल पड़ता है।तितलियाँ , भौंरे जहाँ तहाँ उड़ते फिरते हैं, पर जब उन्हें सुगंध भर फूल मिल जाते हैं, तब शाँति के साथ स्थिरतापूर्वक बैठ जाते हैं और प्रमुदित होकर समय गुजारते हैं । फिर उन्हें उचटने-उखड़ने की आवश्यकता नहीं रहती। यहाँ बंधन उसके लिए कारगर होता है कि जिसकी तलाश है, उसे उपलब्ध करा दिया जाए। डोरी से जकड़ने पर तापशु भी अपने हाथ-पैर तुड़ा लेते हैं। विवशता में ही कोई कैद में रहना स्वीकार करता है। हथकड़ी बेड़ी बैरक , ताला संतरी आदि की व्यवस्था न हो तो कोई कैदी जेल में रहना स्वीकार न करे। खिड़की खुलते ही तोता पिंजरे से निकल भागता है। और फिर पीछे की ओर देखता तक नहीं। यही बात मन के संबंध में भी कही जा सकती है। उसे नीरसता पसंद नहीं, इसलिए उसे जिस-तिस खूँटे से बाँधने पर भी स्थिरता अपनाते नहीं बनती। उसे उन्मुक्त आकाश के मनोरम दृश्य देखने का चाव जो है। “

मन को वश में करने के अनेकानेक लाभ हैं। वह शक्तियों और विभूतियों का पुँज है। मन जिस काम में भी लगता है उसे जादुई ढंग से पूरा करके रहता है। कलाकार , वैज्ञानिक , सिद्धपुरुष , महामानव , सफल , संपन्न सभी को वे लाभ मन की एकाग्रता और तन्मयता के आधार पर मिल हुए होते हैं। इस तथ्य को जानने वाले इस कल्पवृक्ष का पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं। भला दुधारू गाय को , अरबी घोड़े को कोई क्यों नहीं चाहेगा? पर वह हाथ आए तब न।

आमतौर से कामुकता, जिह्वा-स्वाद , सैर-सपाटे विलास वैभव यश सम्मान पान की सभी की इच्छा होती है। उन्हीं को खोजने की मन कल्पनाएँ करता और उड़ानें उड़ता रहता है। विकल्प जब दूसरा नहीं दीखता तो उसी कुचक्र में उलझे रहना पड़ता है। जहाज के मस्तूल पर बैठे कौवे को कोई और गंतव्य भी तो नहीं दीखता। मन का कोई ऐसा स्थान या ऐसा काम जो उसकी रुचि का हो, उसे सुहाए, मिलना चाहिए।

अधिक के पास मनुष्य वही थकता। थकता है अन्यमनस्कता और अस्तव्यस्तता से।

रुचियाँ न किसी की सदा एक-सी रही हैं, न आमतौर पर रहती है। वे बदलती रहती हैं या बदली जा सकती है। छोटे बच्चे खिलौनों के लिए मचलते हैं। कुछ बड़े होने पर सामर्थ्यों के साथ खेल-खिलवाड़ के लिए उत्सुक रहते हैं। तरुण होने पर धन कमाने गृहस्थ बनने की इच्छा होती है। बूढ़े होने पर विश्राम करना और चैन से दिन काटना सुहाता है। ये परिवर्तन बताते हैं कि मन का कोई एक निश्चित रुचि-केन्द्र नहीं है। व्यक्तित्व के विकास और परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ वह अपना रुझान बदलता रहता है। जमीन के ढलान के अनुरूप नदी -नाले अपनी दिशा मोड़ते और चाल बदलते रहते हैं। मन का भी यही हाल है। वह चट्टान की तरह हठीला नहीं, मिट्टी की तरह उसे गीला किया जा सकता है और चतुर कुम्हार की तरह किसी भी साँचे में ढाला जा सकता है। इस बदलाव में आरंभिक अड़चने तो आती हैं, पर सिखाने साधने पर सरकस के जानवरों की तरह ऐसे तमाशे दिखाने लगता है , जो उनकी जन्मजात प्रकृति के अनुरूप नहीं होते। मन को भी इसी प्रकार एक दिशा से दूसरी दिशा में ले जाया जा सकता है। एक प्रकार के अभ्यास से विरत करके दूसरे प्रकार के स्वभाव का बनाया जा सकता है।

जंगली वन्य पशु अनाड़ियों की तरह भटकते हैं, पर जब वे पालतू बन जाते हैं तो मालिक की इच्छानुसार अपनी गतिविधियों को बदल देते हैं। मन के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। उसकी रँगीली उड़ानें वासना तृष्णा की जन्म-जन्मांतरों से अभ्यस्त रही है, इसलिए इस जन्म में भी वही पुराना-पहचाना मार्ग ही जाना पहचाना, समझा-बुझा लगता है, अतएव स्वेच्छाचार के लिए वह आतुर फिरता है। किंतु मनुष्य पर अनेक बंधन है। पशुओं की तरह वह कुछ भी कर गुजरने के लिए स्वतंत्र रहने के लिए विवश करती हैं ।मर्यादाएँ वर्जनाएँ जिम्मेदारियाँ एक सीमा तक ही उसे स्वतंत्र रहने के लिए विवश करती हैं। अस्तु, एक जगह काम बनता न देखकर मन दूसरी जगह दौड़ता है।मृग तृष्णा में भटकने वाले हिरन की तरह उसकी कुलाँचे मार्ग कुमार्ग पर भटकती रहती है। कल्पनाओं के अंबार छाए रहते हैं। बंदर जैसी उछल कूद जारी रहती है। किसी डाली पर दर तक बैठे रहने की अपेक्षा उसे जिस-तिस का रंग-ढंग देखने और उन्हें हिलाने पर मिलने वाले चित्र विचित्र अनुभव की तरह विभिन्नताएँ और विचित्रताएँ देखने की उमंग उठती रहती है। यही है मन की भगदड़ जिसे रोकने के लिए मूलभूत आधार बदलने की आवश्यकता पड़ती है।

मन का केंद्र बदला जा सकता है। पशु -प्रवृत्तियों की पगडंडियाँ उसकी देखी भाली हैं, पर मानवी गरिमा का स्वरूप समझने और उसके शानदार प्रतिफल का अनुमान लगाने का अवसर तो उसे इसी बार इसी शरीर में मिला है, इसलिए अजनबी मन की अड़चन होते हुए भी तर्क , तथ्य, प्रमाण तथा उदाहरणों के सहारे उसे यह समझाया-जताया जा सकता है कि पशु -प्रवृत्तियों की तुलना में मानवी गरिमा की कितनी अधिक श्रेष्ठता है? विवेकशीलता के आधार पर यह निर्णय निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आदर्शवादिता और कर्त्तव्यपरायणता अपनाने पर उसके कितने उच्चस्तरीय परिणाम प्रस्तुत हो सकते हैं?

जप-तप द्वारा मन को निग्रहित तो किया जा सकता है, पर आज हथेली पर सरसों जमाने की तरह उसका प्रतिफल लोग तत्काल चाहते हैं। धैर्य और निष्ठा के अभाव में यह असंभव है । इसके अतिरिक्त जप ध्यान की कुछ परंपराओं में यहाँ तक कहा जाता है कि मन को अपना कार्य करे। उनका तर्क है कि मन का अपना रास रचाते रहने देने की छूट देकर हम उसके विकार और विकृति को निकलने देने में सहायक होते हैं। इससे उसे बलपूर्वक रोकना उसकी शुद्धि प्रक्रिया में बाधा डालता और विकृति को निकलने देने में सहायक होते हैं। इससे उसे बलपूर्वक रोकना उसकी शुद्धि प्रक्रिया में बाधा डालता और स्वाभाविकता का भंग करता है। यह तो वैसी ही बात हुई, जैसे किसी साधक को असंयम की छूट मिल जाए। वह यौनाचार भी बरते और साधन भी करे। यौन सुख चाहने वालों को साधना में सफलता नहीं मिल सकती । इसी प्रकार जो सिद्ध -साधक बनना चाहते हैं, उन्हें यौन इच्छा को तिलाँजलि देनी होगी। इतना ही नहीं, हर प्रकार से मन को नियंत्रित करना पड़ेगा।ये दो विपरीत और विरोधाभासी स्थितियाँ हैं। इससे असमंजस पैदा होता और दुविधा उत्पन्न होती है, अतएव वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मानसिक निरोध के लिए कोई सरल और सुविधाजनक उपाय ढूंढ़ना पड़ेगा। यह कर्मयोग के अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं हो सकता।

पुराने ढंग की ईश्वरभक्ति में मन लगाने और साधनाओं में रुचि लेने के लिए परामर्श दिया जाता है, किंतु पुरातन तत्वज्ञान को हृदयंगम कराए बिना उस दिशा में न तो विश्वास जमता है , न मन टिकता है। बदली हुई परिस्थितियों में हम कर्मयोग का ईश्वरप्राप्ति का आधार मान सकते हैं। कर्त्तव्य को, संयम को, नीति-नियम एवं पुण्य -परमार्थ को ईश्वर का निराकार रूप मान सकते हैं। कार्यों के साथ आदर्शवादिता का समावेश रखा जा सके तो वह सम्मिश्रण इतना मधुर एवं सरस बन जाता है कि उस पर मन टिक सके। बया अपने घोंसले को प्रतिष्ठा का प्रश्न मानकर तन्मयतापूर्वक बनाती है। हम भी अपने क्रियाकलापों में मानवी गरिमा एवं सेवाभावना का समावेश रखें तो उस केंद्र पर भी मन की तादात्म्यता स्थिर हो सकती, उसे इस प्रकार भी नियमित-नियंत्रित किया जा सकता है।


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