वास्तु विज्ञान पर लेखमाला घर में रसोईकक्ष की स्थिति क्या हो।

January 2000

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रसोईकक्ष में सामान रखने के लिए टाँड आदि यों तो आवश्यकतानुसार चारों ओर की दीवारों पर बनाए जा सकते हैं, किंतु उसे दक्षिणी एवं पश्चिमी दीवार में बनाना सबसे उपयुक्त माना गया है। मात्र पूर्वी तथा उत्तरी दीवारों पर टाँड नहीं बनाना चाहिए। वास्तुदोष होने के कारण इससे कई प्रकार की हानियाँ होती हैं। इसी तरह उत्तर -पश्चिम की ओर बरतन आदि रखने की आलमारी बनाई जा सकती है। स्लैब या गैस पट्टी के ऊपर विशेषकर चूल्हे के ऊपर कोई रैक या आलमारी नहीं रखनी चाहिए। इससे सामान निकालते समय बरतन आदि गिरने और दुर्घटना घटित होने की सदैव आशंका बनी रहती है।

रसोईघर में यदि फ्रिज या रेफ्रिजरेटर रखना हो तो इसे आग्नेयकोण, दक्षिण , उत्तर, पश्चिम दिशा या वायव्यकोण में स्थापित किया जा सकता है। ईशान एवं नैऋत्य कोण में इन्हें कदापि नहीं रखना चाहिए अन्यथा ये बराबर खराब होते रहेंगे। यदि इन कोनों में रखना ही पड़े तो इन्हें कोनों से दो तीन फीट के अंतर से रखना चाहिए । माइक्रोओवन , मिक्सी ग्राइंडर आदि की व्यवस्था दक्षिण वआग्नेयकोण के बीच की जा सकती है। हलका सामान पूरब अथवा उत्तर में तथा भारी सामान पश्चिम यादक्षिण में रखे जाने चाहिए। सिल-बट्टा, मूसल, झाडू व इस तरह के दैनिक उपयोग की अन्य वस्तुएँ नऋत्य कोण में रखनी चाहिए।किंतु भूलकर भी इन्हें ईशानकोण में नहीं रखना चाहिए। इसी तरह ओखल, चक्की आदि भारी वस्तुएँ दक्षिण तथा नैऋत्यकोण में या संबंधित कमरों में सुविधानुसार इन्हीं दिशाओं में रखी जा सकती है।उत्तर पश्चिम की ओर या नैऋत्य कोण में रसोई का छोटा सास्टोर रूम बनाया जा सकता है जहाँ चावल, दाल, गेहूँ, आटा आदि का भंडारण किया जा सकता है। अन्नादि के भारी डिब्बे कभी नहीं रखने चाहिए। उनमें कुछ-न-कुछ दो चार दाने अवश्य पड़े रहने चाहिए। इससे घर में अन्न आदि की कम नहीं होने पाती। ईशान और आग्नेयकोण की मध्य पूर्वी दीवार के सहारे खाद्य भंडार करना भी उपयुक्त रहता है।

दूध दही धी तेल मथानी आदि का प्रबंध प्राचीनकाल में अलग कमरे में रसोईकक्ष के समीप पूरब-आग्नेय दिशा में किया जाता था।किंतु आजकल इन्हें रसोईघर में ही रखा जाता है। ऐसी दशा में दूध -दही सदैव उत्तर पूर्व में रखने चाहिए। छाछ या मक्खन निकालने की रई यामथानी का प्रबंध भी यदि रसोई में ही करना हो तो पूर्वी दीवार से सटाए बिना पूरब व आग्नेयकोण के बीच खूँटी गाड़कर अथवा दीवार में कीलें या हुक गाड़कर किया जा सकता है। इस प्रकार बिलोने वाले का मुँह पूरब की ओर रहेगा जो कि शुभ दिशा है।

रसोईघर का शुभ-अशुभ होना बहुत कुछ उसके द्वार व खिड़कियों की स्थिति पर भी निर्भर करता है। वास्तु नियमों के अनुसार रसोई कक्ष का प्रवेशद्वार पूरब, पश्चिम या उत्तर में से किसी भी दिशा में रखा जा सकता है। दक्षिण दिशा में रसोई का प्रवेश द्वार नहीं होना चाहिए। इस ओर दरवाजा रखने पर हमेशा संघर्ष होता रहेगा और मुसीबतें झेलनी पड़ेगी, साथ ही साथ इस दिशा में खुलने वाले दरवाजे युक्त रसोई में खाने वालों को तृप्ति नहीं मिलती। इतना किया जा सकता है कि समानाँतर स्लैब वाले रसोईघर में आग्नेयकोण की तरफ एक अतिरिक्त दरवाजा हो जिसका निकास डाइनिंग हाँल -भोजनकक्ष-की ओर हो। रसोईकक्ष ठीक प्रवेशद्वार के सामने भी शुभ नहीं माना जाता।

रसोईघर के कमरे में उत्तर और पूरब की ओर खिड़कियों का होना जरूरी है, जिससे सूर्य किरणों का लाभ मिलता रहे। दक्षिण में खिड़की नहीं होनी चाहिए। यदि दक्षिण में खिड़कियां रखना अनिवार्य हो तो कम से कम संख्या में छोटी खिड़कियाँ बनाई जा सकती है। रसोई में आमने सामने खिड़कियों को होना अधिक अच्छा होता है। इससे आसानी से अशुद्ध वायु बाहर निकलती एवं शुद्ध वायु भीतर प्रवेश करती रहती है। ड्राइंगरूम बैठक की खिड़की के ठीक सामने रसोई की खिड़की नही रखनी चाहिए। रोशनदान या धुँआ निकलने की चिमनी ईशानकोण में स्थापित की जा सकती है। इसी तरह रसोईकक्ष में उत्तर या पूरब दिशा में एक एक्जास्टफैन अवश्य लगाना चाहिए, जिससे दूषित वायु बाहर निकलती रहे और खाना बनाने वाले के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव न पड़े। एक्जास्ट फेन चूल्हे की लपट भभककर ऊपर उठ सकती है और भोजन बनाने वाले को हानि पहुँचा सकती है। अतः इसे दरवाजे के पास या चूल्हे से हटकर दीवार में ऊपर लगाना चाहिए।

रसोईकक्ष से संबंधित कुछ छोटी छोटी बातें औरभी हैं जिन्हें यदि ध्यान में रखा जाए तो घर का वातावरण सुख शाँतिमय बना रहता है। तथा समृद्धि के नए स्त्रोत हाथ लगते हैं। उदाहरण के लिए आग्नेयकोण में बने रसोईकक्ष के ऊपर पानी की टंकी कभी भी नहीं बनानी चाहिए। ऐसा करने पर स्वास्थ्यसंकट का खतरा मँडराता रहता है। स्नानघर एवं रसोईघर अथवा डाइनिंग हाँल एवं बाथरुम आमने सामने नहीं होने चाहिए और न इनकी खिड़कियाँ ही एक दूसरे के सामने पड़े। रसोईकक्ष में या उसके सामने मेकअप रूप अर्थात् प्रसाधन कक्ष नहीं होना चाहिए। इससे बीमारियों के संक्रमण का भय बना रहता है। पूजाकक्ष, शयनकक्ष एवं शौचालय के सामने या ऊपर रसोईकक्ष नहीं बनाना चाहिए। रसोई में गैसपट्टी अथवा सिंक के नीचे पूजास्थल भी नहीं बनाना चाहिए। स्थानाभाव या अन्य किन्हीं आवश्यक कारणों से रसोईघर में पूजास्थली बनानी ही पड़े तो उसे उसी कक्ष के ईशानकोण में अथवा पूरब में, पश्चिम में या वायव्य में स्थापित करना चाहिए। उत्तर दक्षिण एवं नैऋत्य में पूजास्थल नहीं बनाए जाते ।

रसोईकक्ष में सदैव आपातकालीन प्राथमिक चिकित्सा की व्यवस्था रखना बहुत जरूरी है। अनहोनी कभी सूचना देकर घटित नहीं होती। अतः कटने ज जाने पर फर्स्ट एड जैसी व्यवस्था अवश्य रखनी चाहिए, जिसमें बरनाँल डिटोल, गाजपट्टी रुई आदि की व्यवस्था हो। आग बुझाने की छोटी अग्निशमन जैसी आपात्व्यवस्था भी रसोई में रखनी चाहिए। कीटाणुनाशक दवाइयाँ रसोई में न रखी जाएँ ता ही अच्छा है। इन्हें बच्चों की पहुँच से सदा दूर ही रखा जाए। इस तरह छोटी छोटी बातों को ध्यान में रखने से किसी भी दुर्घटना से सहज ही बचा जा सकता है।

रसोईकक्ष की दीवारों का रंग-रोगन भी व्यक्ति को प्रभावित करता है। अंतः इस कक्ष की दीवारों तथा छत का रंग हलका नीला भूरा या ग्रे होना चाहिए। लाल रंग तो भूलकर भी न कराएँ । पीला रंग भी रसोई के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता।

रसोईकक्ष के फर्श की सतह अन्य कमरों की सतह की अपेक्षा कुछ ऊँची रखना शुभ दायक माना जाता है। प्रायः लाग रसोईघर भोजनकक्ष एवं ड्राइगरुम अर्थात् अतिथि कक्ष आदि के फर्श की सतह अन्य कमरों की सतह से नीची रखते है। वास्तु नियमों के अनुसार ऐसा करना हानिकारक होता है, क्योंकि नैऋत्य वायव्य आग्नेय दक्षिण एवं पश्चिम दिशा में कोई भी कमरा नीची सतह वाला नहीं होना चाहिए। जहाँ तक हो सके सभी कमरों को उत्तर या पूरब की ओर ढलान लिए हुए समान तल वाला बनाना चाहिएं । पश्चिम या दक्षिण की तरफ भवन के फर्श का ढलान नहीं रखा जाता, ऐसा नियम है।

प्राचीन भारतीय परंपरा रही है कि परिवार के सभी सदस्य एवं अतिथि भोजनकक्ष में ही बैठकर भोजन करते थे। वास्तुशास्त्र में उल्लेख भी है - भोजन पश्चिमायाँ च वायव्याँ धन संचयम्। अर्थात् भोजनकक्ष पश्चिम दिशा में तथा धनसंग्रह कक्ष वायव्यकोण में होना चाहिए, किंतु आज के बदलते परिवेश में भोजनकक्ष का स्थान ‘डाइनिंग हाँल-ड्राइंगरुम ने ले लिया है।वास्तुशास्त्र में ऐसे कक्षों की कोई व्यवस्था नहीं है। अतः ऐसी स्थिति में पूरब में ड्राइंगरुम-अतिथिकक्ष की व्यवस्था हो सकती है अथवा पश्चिम दिशा में ड्राइंगरुम एवं डाइनिंगहॉल का निर्माण किया जा सकता है। आग्नेयकोण सिित रसोई में भोजन बनाने के बाद पश्चिम में या पश्चिम वायव्य में भोजन किया जा सकता है।यदि भोजन करने की व्यवस्था रसोईकक्ष में ही करना हो तो इसी कक्ष के पश्चिमी भाग में की जा सकती है। भोजनकक्ष की टेबल-मेज चौकोर , वर्गाकार या आयताकार होनी चाहिए। गोलाकार, अंडाकार तिरछी या तिकोनी मेजों को प्रायः अशुभ व अकल्याणकारी पाया गया है। अतः इनके उपयोग से बचना चाहिए। डाइनिंग टेबल की व्यवस्था पश्चिम दिशा में की जानी चाहिए। पूरब या उत्तर दिशा में भी टेबल स्थापित की जा सकती है। टेबल की ऊँचाई इतनी ही हो जो बैठने वाले की नाभिस्थल से थोड़ी ऊँची हो। टेबल को दीवार से सटाकर रखने की अपेक्षा सदैव कक्ष के मध्य में रखना चाहिए। कुर्सियों की संख्या सम हो अर्थात् दो, चार, छह, आठ इस प्रकार की संख्या में हो।

भवन के कक्षों का निर्माण वास्तु नियमों के अनुसार इस प्रकार करना चाहिए। जो संबंधित क्रियाकलापों के प्रति प्रवेश करते ही सहज भावना का उद्रेक करें। उदाहरण के लिए जिस तरह बैठक में प्रवेश करते ही सामूहिकता की भावना अध्ययनकक्ष में जागरुकता एवं निरालस्य तथा शयनकक्ष में प्रवेश करते ही विश्राम की अनुभूति होने लगे। हमेशा पूरब की ओर मुँह करके भोजन करना अहितकर एवं अस्वास्थ्यकर माना गया है। पश्चिम दिशा में पूर्वाभिमुख होकर भोजन करने में जितना अधिक सुख -शाँति संतोष व तृप्ति मिलती है। उतना अन्य दिशाओं में बैठकर नहीं मिलतीं।

भोजनकक्ष में वाशबेसिन की व्यवस्था के लिए उत्तर या पूरब का कोना सबसे उपयुक्त स्थल माना गया है। यदि ऐसा न बन पड़े तो पश्चिम की ओर भी रख सकते है। शौचालय को भोजनकक्ष से जोड़कर नहीं बनाना चाहिए।

यदि भोजनकक्ष पश्चिम के अतिरिक्त किसी अन्य दिशा में बना हो ता उस कक्ष में पश्चिम की ओर बैठकर पूरब की ओर मुँह करके भोजन करना चाहिए। भोजन हमेशा शाँत एवं प्रसन्नचित होकर करना चाहिए। प्राचीनकाल में हाथ पाँव धोकर एवं कुल्ला करके तब भोजन करने के लिए बैठा जाता था। भोजन की थाली का पट्टे पर रखकर अन्न देवता को सम्मान देते हुए ईश्वर अर्पित करके तब भोजन ग्रहण किया जाता था।ऐसा करने से शरीर और मन स्वस्थ एवं स्फूर्तिवान् बने रहते हैं। भोजन करने एवं रसोईकक्ष के निर्माण की यही उक्त प्राचीन परंपरा रही है। हमें भी इन वास्तु नियमों का यथा संभव पालन करना चाहिए और सुख-शाँति एवं समृद्धि का भागीदार बनना चाहिए।


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