चेतना जगत् के रहस्यों का उद्घाटन करता है प्रतीकों का विज्ञान

January 2000

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प्रतीक जीवन का मनोविज्ञान सत्य है। ज्ञान -विज्ञान का अंबार, शिक्षण -प्रशिक्षण का विस्तार , अगर कहीं अपने को समेट-सिकोड़कर संक्षिप्त एवं बोधगम्य बनाता है तो प्रतीकों के रूप में सत्य चाहे वैज्ञानिक हो, सामाजिक हो अथवा फिर धार्मिक-आध्यात्मिक, हमें उसे हृदयंगम करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना ही पड़ता है। कार्बन डाइऑक्साइड के स्वरूप एवं गुणों को समझने के लिए CO2 पर्याप्त है। इसी तरह जल के संगठन एवं गुण H2O कहने भर से जान लिए जाते हैं। युगद्रष्टा स्वामी विवेकानन्द के अनुसार , यह अनिवार्य आवश्यकता दार्शनिक ज्ञान एवं आध्यात्मिक उपासना के क्षेत्र में भी है। उनके अनुसार उपासना के लिए प्रतीक ऐसे हों, जो ब्रह्म के स्वरूप का बोध करा सकें। उस परमसत्य की ओर इंगित कर सकें। सच तो यह है कि परमात्मा का सबसे सार्थक प्रतीक तो स्वयं विश्व ही है, जिसके द्वारा हम उसके परे विश्वात्मा को जानने , उसका बोध पाने का प्रयत्न किसी -न किसी रूप में, अपनी किसी न किसी क्रिया के माध्यम से करते रहते हैं।

आचार्यों ने प्रतीकोपासना की व्याख्या अपने-अपने ढंग से करने की कोशिश अपने-अपने ढंग से करने की कोशिश की है। ब्रह्मसूत्र के श्री भाष्य में आचार्य रामानुज कहते हैं- “अब्रह्मणि ब्रह्मदृष्टया अनुसंधानम्” अर्थात् जो वस्तु ब्रह्म दृष्टि करना ब्रह्म का अनुसंधान है। आचार्य शंकर कुछ इस तरह इस सत्य का विवेचन करते हैं -

मनो ब्रह्मोत्युपासीतेत्यध्यात्म अदाधि दैवात्मा काशौ ब्रंह्मति तथा आदित्यो ब्रंह्मत्योदशः स य नाम ब्रंतयुपास्ते इत्येवमादिपु प्रतीकोपासनेषु संशयः।

अर्थात् मन की ब्रह्म रूप से उपासना करो, यह आभ्यंतर उपासना है और आकाश की ब्रह्मरूप से उपासना अधिदैविक है। मन आभ्यंतर प्रतीक है और आकाश ब्रह्म । इन दोनों की उपासना ब्रह्म के रूप में करनी होगी। श्री अरविंद के अनुसार प्रत्येक पदार्थ किसी उच्चतर सत्य का प्रतीक है।

संसार के प्रत्येक पदार्थ किसी उच्चतर सत्य का प्रतीक हैं संसार के प्रायः सभी धर्मों में उपासक बिना किसी आपत्ति के प्रतीकों का उपयोग करते हैं। केवल इस्लाम और प्रोटेस्टेंट ये ही दो ऐसे पंथ हैं, जो इसकी सहायता की आवश्यकता नहीं मानते। वैसे समग्र रूप से देखा जाए तो विश्व की संपूर्ण मानवजाति किसी -न किसी रूप में प्रतीकों का उपयोग करती है।

प्रतीकों का इतिहास काफी लंबा एवं विस्तृत है। जनार्दन मिश्र ने अपना रचना भारतीय प्रतीक विद्या में बताया है कि युगीन सृष्टि के आरम्भ के साथ ही प्रतीक की संकल्पना आरंभ हुई। गुफावासी आदिमानव भी अच्छे लगने वाले मृग-पक्षियों के रूप को रंगीन पत्थरों से अपनी गुफाओं की दीवारों आदि पर अंकित करते थे। यहीं से प्रतीकों का विकासक्रम शुरू हुआ। ज्यों ज्यों मनुष्य के विचार विकसित होते गए, प्रतीकों का जुड़ाव तो मानव-स्वभाव के साथ है। समुन्नत प्रतीक तो उस जाति के विकसित होने का प्रमाण है। महाभारत , रामायण , वेद उपनिषद् प्रतीकों से भरे पड़े हैं।

वेदों में प्रयुक्त हुआ “प्रतीक“ शब्द सामान्य धारणाओं के अर्थ में नहीं बल्कि वह सतह और मुख के अर्थ में व्यवहृत होता है। वेदों में देवताओं का स्वरूप ऋषि-मंत्रों में गुँथे सहज व्यंजक , अर्थ सब कुछ प्रतीकात्मक दिखता है।

विचारों के विकास के इतिहास को पलटने से जाहिर होता है कि मनुष्य पहले अपना काम चिन्हों और संकेतों के द्वारा ही चलाता था। उसके पास भाषा का अभाव था। श्री सुदर्शनसिंह ने हमारी संस्कृति में उल्लेख किया है कि सारे कल्पित प्रतीक पुराने नित्य प्रतीकों के आधार पर ही निश्चित होते हैं। प्रतीक की उत्पत्ति के बारे में भले ही मताँतर हो, पर इतना सच है कि इसका आविर्भाव भारत में हुआ और बाद में यह समस्त देशों में प्रसारित हुआ। भारतीय दर्शन में प्रतीक -प्रतीकवाद , संकेत वाद, प्रतीक प्रक्रिया , प्रतीक विज्ञान आदि अनेक रूपों में मिलता है। पश्चिमी दर्शन में इसे सिंबालिज्म , सिग्निफिक्स , सीमियोसिस, सीमियोलाँजी व सीमियोरिल्स आदि अवधारणाओं में व्यक्त किया गया है। प्रतीकवाद प्रतीक के दार्शनिक , भाषिक , मनोवैज्ञानिक , सामाजिक तथा साँस्कृतिक पहलुओं को समाहित कर लेता है।

महर्षि अरविंद के अनुसार प्रतीक निम्न प्रकार के होते हैं। 1. रूढ़ प्रतीक - वे जो वैदिक ऋषियों ने आसपास के पदार्थों से गढ़े थे । इस प्रकार का प्रतीक प्रकट होते ही जीवंत हो उठता है। ऋषियों न इसमें प्राण फूंके और वह उनकी उपलब्धि का एक अंग बन गया। वह उनके अंतर्दर्शन में आध्यात्मिक प्रकाश की मूर्ति के रूप में प्रकट हुआ। 2. जीवंत प्रतीक - ये प्रतीक व्यावहारिक जीवन में अथवा उन परिस्थितियों से स्वभावतः विकसित होते हैं, जो जीवन के साधारण मार्ग को प्रभावित करती हैं। 3. वे प्रतीक जिनमें एक सहज औचित्य होता है। आकाश अथवा आकाशीय देश सनातन ब्रह्म का प्रतीक है। किसी भी जाति में इसका अर्थ एक समान होगा। सूर्य अखिल विश्व में अतिमानस प्रकाश का दिव्य विज्ञान की व्यक्त करता है। 4 दृ मानसिक प्रतीक, इनके उदाहरण हैं अंक या वर्ण । ये मान्य होते ही कार्य करने लगते हैं प्राचीन लोग अंकों के विषय में भी इसी प्रकार विचार करने में दक्ष थे। एक ही प्रतीक से कई तरह के भाव भी व्यक्त किए जा सकते हैं।

युग नायक स्वामी विवेकानंद की मान्यता है कि प्रतीकों को मुख्य रूप से दो तरह से समझा जा सकता है - नित्य प्रतीक एवं कल्पित प्रतीक। नित्य प्रतीक अपने भाव या पदार्थ से सतत् संबंध बनाए रखता है। उस भाव को किसी अन्य प्रकार से सूचित करना संभव नहीं है, जैसे आकाश का प्रतीक शून्य है। कल्पनाओं के द्वारा कल्पित प्रतीक प्रकाश में आए। जैसे शक्तियों के नाम, राष्ट्रों के ध्वज तथा अन्य चिह्न कल्पित होते हैं। कल्पित प्रतीक किसी भाव , घटना या बहुलता को सूचित करता है। जब कोई देश , संस्था या व्यक्ति अपने ध्वज , पदक या चिह्न निश्चित करता है तो उस चिह्न में उसका भाव सन्निहित होता है। ईसाई धर्म में क्रास ईसामसीह की शूली का स्मारक है। रूस का भालू , अमेरिका का साँड , आस्ट्रेलिया का कंगारू तथा भारत का सिंह इसी भाव का प्रदर्शित करते हैं। तेजोवलय देवताओं के आभामंडल का सूचक है। जब कोई जाति किसी श्रेष्ठ प्रतीक को अपनाकर उसका दुरुपयोग या अत्याचार करती है तो वह प्रतीक उसके अत्याचार का द्योतक हो जाता है। हिटलर की क्रूरता ने हिन्दू संस्कृति के माँगलिक स्वस्तिक को कलंकित कर डाला। इसी तरह प्रेम -शौर्य का प्रतीक लाल ध्वज रूस में नास्तिकता तथा जड़ साम्यवाद के प्रतीक में परिवर्तित हो गया।

भारतीय संस्कृति में प्रतीक यथार्थ एवं वास्तविक हुआ करते थे। दृष्टा ऋषि अपनी अनुभूति एवं साक्षात्कार द्वारा आकाश में इन प्रतीकों को देखते थे, फिर इन्हें समाज में प्रसारित करते थे। अक्षर वर्ण रंग प्रकाश आदि लाक्षणिक प्रतीक उन्हीं की देन है। उपासना के लिए प्रयुक्त भिन्न देवी देवताओं के चित्र एवं मूर्तियों के पीछे यही तथ्य काम करता है। ऋषिगण स्थूल सीमाओं का अतिक्रमण कर गए थे तथा मन के उस पार भाव जगत् के सत्यों को उनके प्रतीकों से संबंधित करते थे। इस प्रकार जिस प्रतीक का जिस भाव से संबंध है। वह उसी भाव का नित्य प्रतीक है, क्योंकि मन में उस प्रतीक से वही भाव का नित्य प्रतीक है। नित्य प्रतीक कई प्रकार के होते हैं- चिह्न प्रतीक , शस्त्र प्रतीक, वृक्ष प्रतीक , वेश प्रतीक आदि।

चिह्न प्रतीक में तंत्र उपासना के यंत्र सामुद्रिक शास्त्र के त्रिभुज , चतुर्भुज अक्षर आदि आते हैं। ये प्रकृति के मूल अर्थ से संबंधित हैं। तंत्र में वज्र शक्ति को अभिव्यक्ति करता है।

भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक सर्वप्रधान चिह्न है। जिस प्रकार समस्त अक्षर अकार से उत्पन्न हुए है। उसी प्रकार सारी रेखाकृतियाँ स्वस्तिक के अंतर्गत आ जाती हैं। प्रणव ॐ की आकृति नाद रहित होने पर स्वस्तिक मानी जाती है। स्वस्तिक की संख्या में केंद्र के चारों ओर प्रगति , रक्षा और उन्मुक्त द्वार दिखलाई पड़ता है। यह कल्याण के अर्थ में प्रयुक्त होता है। स्वस्तिक बुद्धिदाता गणेश जी का यंत्र है। इस मंगल चिह्न को पारसियों ने उलटा कर अपस्तिक का प्रतीक माना। ईसाइयों का क्रास भी इसी का संक्षिप्त रूप है।

चिह्न प्रतीक की ही भाँति रंग प्रतीक का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इसका प्रयोग मुख्यतः उपासना पद्धतियों में किया जाता है। सत, रज, तम - त्रिविध गुणों के आधार पर रंग। प्रतीक होते हैं। श्वेत रंग मतोगुणी है और यह प्रतिभा , यश शाँति सत्य व धर्म का प्रतीक है। लाल रंग रजोगुण का संकेत करता है। तमोगुण का सूचक काला रंग है, जो अभाव अंधकार , मृत्यु आदि का बोध कराता है। दो या दो से अधिक गुणों से मिलकर बने कार्य का रंग मिश्रित होता है। क्रोध में रजस एवं तमस् का मिश्रण होता है, परंतु इसमें रजोगुण का विशेष प्रभाव होता है। अतः इसका रंग कालिमा लिए हुए नीललोहित माना गया है। मुस्कान का प्रतीक हलका गुलाबी रंग माना गया है । श्री अरविंद के अनुसार रंग और प्रकाश हमेशा एक दूसरे के आस पास होते हैं । रंग अधिक साँकेतिक होता है और प्रकाश अधिक गतिशील । रंग उत्तप्त होकर प्रकाश बन जाता है। सत्ताओं के अलग रंग नहीं होते। मन का रंग पीला होता है तथा हृदय का गुलाबी एवं प्राण का साँकेतिक रंग बैंगनी होता है।

पदार्थ प्रतीकों में शंख मंगलकारी प्रतीक माना जाता है। यह पवित्रता का सूचक है। पदार्थ प्रतीक केवल भाव का मूर्त रूप है। समष्टि कर्त्ता के भाव ही पदार्थों में परिवर्तित हुए, जिनके प्रतीक भिन्न-भिन्न होते हैं। स्वर्ण दृढ़ता एवं स्थिरता का प्रतीक है। दूध उच्चतर चेतना के प्रवाह का प्रतीक है। नदी चेतना की गति का संकेत करती है। पर्वत आरोहण शील चेतना को दर्शाता है। पृथ्वी क्षमा का भाव दर्शाती हैं। प्राणी प्रतीकों में गाय, हंस अश्व आदि आते हैं। अध्यात्म जगत् में इनका विशेष महत्व है। साधक अपन गहन ध्यान में देखे गए इन प्रतीकों से अपनी स्थिति का आकलन करता है। वेदों में गाय का अर्थ है -दिव्य प्रकाश । वृषभ सामर्थ्य एवं धर्म का द्योतक है। अश्व एवं गज बल के द्योतक है। हंस ज्ञान के भाव को प्रदर्शित करता है।

नाग प्रकृति में ऊर्जा का प्रतीक है। अनंत नाग असीम दिक्−काल में निस्सीम ऊर्जा है, जो विश्व को थामे हुए है। हरिण आध्यात्मिक पथ में तीव्रता को सूचित करता है। हंस मुक्त अंतरात्मा है एवं पुरुष का प्रतीक है। सफेद कबूतर शाँति , मोर विजय सूचक सारस सुख का संदेशवाहक तथा शुतुरमुर्ग गति की तीव्रता के रूप में प्रयुक्त होते हैं। सुअर राजसिक सामर्थ्य और प्रचंडता की ओर संकेत करता है। भैंस अविचारी और अंधकारमय प्राणिक शक्तियों के स्वभाव का एवं स्वभाव की तामसिक उग्रता के भाव को सूचित करता है। बकरा कामुकता का द्योतक है। कुत्ता स्वामिभक्ति से भरे अनुराग और आज्ञाकारिता का प्रतीक है। मेढ़क विनम्रता , उपयोगिता तथा मछली हमेशा सभी प्रकार की रचनाएँ करने वाला चंचल प्राणिक मन है। मक्खियाँ क्षुद्रतम प्राण की कोई छोटी-सी वस्तु हैं। दीमक भौतिक सत्ता में क्षुद्र परंतु विनाशक शक्तियों का प्रतीक है।

पुष्प प्रतीकों में कमल ऐश्वर्य व सुख का सूचक हैं । यह खुली हुई चेतना की ओर इंगित करता है। लाल कमल प्रतीक है पृथ्वी पर भगवान् की उपस्थिति का। सामान्यतः कमल शृंगार , शोभा और क्रीड़ा के लिए बराबर प्रयुक्त होता रहता है। वृक्ष प्रतीकों में दूर्वा , कुश, तुलसी , अश्वत्व , वट, आँवला , पलाश , अशोक , बिल्व आदि वृक्षों को देवताओं के प्रतीकों के रूप में पूजा जाता है। वैसे वृक्ष अवचेतन प्राण को भी दर्शाता है। वृक्षों की तरह वाद्ययंत्र भी प्रतीक हैं। इनमें से शंख आध्यात्मिक पुकार तथा बाँसुरी भगवान् की पुकार है। शंख विजय की भी घोषणा है। वीणा सामंजस्य सूचक है। मृदंग नृत्य एवं डमरू उद्दाम नृत्य का प्रतीक है। भेरी युद्ध की ओर इशारा करती है। बाण लक्ष्य का संकेत करता है। गदा शक्ति , तलवार शस्त्रबल और त्रिशूल बेधन करने का सूचक है। ढाल का अर्थ है -संरक्षण। चक्र प्रकृति पर क्रिया करती हुई शक्ति है। सुदर्शनचक्र श्रीकृष्ण की शक्ति की क्रियाशीलता का द्योतक है।

शिखा, यज्ञोपवीत, मेखला, तिलक , माला , दंड, गेरुआ एवं पीत वस्त्र आदि वेश प्रतीक के अंतर्गत आते हैं। यज्ञोपवीत गायत्री की स्थूल प्रतीक है। उसकी तीन ग्रंथियाँ क्रमशः ब्रह्मग्रंथि एवं रुद्रग्रंथि का संकेत करती हैं। मेखला संयम का सूचक है। तिलक निष्ठा , शोभा शृंगार एवं विभूति को दर्शाता है। गैरिक वस्त्र वैराग्य के सूचक हैं। वासंती रंग मन की चंचलता एवं असंयम को दूर कर उल्लास का संचार करता है। दंड का अर्थ है- मन , वाणी तथा शरीर से उत्पीड़ित होने पर भी किसी को दंड न देना। इसीलिए संन्यासी दंड व्रतस्थ होने का परिचायक है।

इनके अलावा भी अन्य प्रतीक हैं। जिनका अर्थ भिन्न भिन्न होता है। सूर्य का अर्थ है - आँतरिक सत्य। चंद्रमा आध्यात्मिक आनंद का द्योतक है। तारे का तात्पर्य है- सृजन या निर्माण अथवा इसके लिए आश्वासन या सामर्थ्य। अग्नि शक्तिशाली क्रिया को सूचित करती है। इंद्रधनुष शाँति और मुक्ति का चिह्न है। बादल अंधकार का प्रतीक है -पाताल पृथ्वी के नीचे अचेतना को दर्शाता है। बरफ भगवान् की कृपा का अवतरण है, जो वैभव अर्थात् आध्यात्मिक समृद्धि का उद्गम है।

प्रतीकों का यह विज्ञान मानव मन के रहस्यों को ही नहीं ,समस्त सृष्टि में गतिशील चेतना के रहस्यों का भी बोध कराता है। प्रतीक विज्ञान की ही वजह से सागर जितने विशाल ज्ञान को गागर जितने लघु आकार में संजोया जा सका है। समुचित जानकारी के अभाव में प्रतीक विज्ञान का अधिकाँश रहस्यमय भाग विकृत होकर मात्र कल्पना बनकर रह गया है। आज जरूरत है - इस समृद्ध विज्ञान को फिर से उजागर करने की। इसके उजागर होने का मतलब है, जीवन के मनोवैज्ञानिक सच का सही अर्थों में बोध पाना।


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