एक सेठ के यहाँ गुणसुँदरी नामक कन्या थी। वह अपना जीवन साधना-स्वाध्याय में लगाना चाहती थी, किंतु मानसिक धरातल पर वह अपरिपक्व ही थी। वयस्क होने पर भी वह विवाह के लिए तैयार न होती थी। पिता का बहुत आग्रह पर उसने एक विद्वान् वयोवृद्ध से विवाह की स्वीकृति दे दी, ताकि उसका व्रत भी निभता रहे और लोकापवाद भी वन रहे। वयोवृद्ध पति की सेवा करते और उनसे ज्ञान-अनुदान का पाते बहुत समय बीत गया।
एक रात घर में चोर घुस आया। वह बड़ा रूपवान् था। गुणसुँदरी का मन विचलित हुआ और उस पर आसक्त होकर घर में रख लिया। एक दिन विचार आया कि क्यों न पति को मार दिया जाए, ताकि कोई कंटक ही न हरे। दोनों ने मिलकर बूढ़े को गला दबाकर मार डाला। चोर प्रातः होते ही नित्य की भाँति घर से जान लगा तो ऊपर से दरवाजा टूट पड़ा और उसकी भी वहीं मृत्यु हो गई।
गुणसुँदरी को मन की चंचलता पर बड़ा दुःख हुआ। उसने दोनों पतियों के साथ चिता में शरीर को जला देने का निश्चय किया। वह मन की दुष्टता पर बार-बार पछताती और अपने कुकृत्य का विवरण सभी को बताती हुई प्राण त्याग गई।
सभी लोग कहने लगे-मन की उच्चता और निकृष्टता का कोई ठिकाना नहीं। उसे तनिक भी ढील नहीं मिलनी चाहिए।हर समय कड़ा अंकुश रखने से ही काम चलता है।
गृहस्थ का निर्वाह ऐसे ही कठिन उत्तरदायित्वों से बँधा है, जिसमें अनुबंध , अनुशासन , आत्मनियंत्रण को सर्वोपरि महत्त्व दिया जाना चाहिए।