परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी फिजा बदल देती है अवतार की आँधी

January 2000

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मित्रों! लोग अपनी अपनी जन्मभूमि की रट लगाते रहते हैं कि यह मेरी जन्मभूमि है , वह मेरी जन्मभूमि है। अरे, जन्मभूमि किसकी होती है? जो केवल शरीर को ही सब कुछ मान लेते हैं, उन्हीं की जन्मभूमि होती है, श्रेष्ठ मनुष्यों की कोई जन्मभूमि नहीं होती। हमारी तो हर जगह जन्मभूमि है। जहाँ कहीं भी हमारी आवश्यकता पड़ेगी , हम वहीं बस जाएँगे। नहीं साहब, हमारी तो अमुक जगह जन्मभूमि है और हम वहीं जाएँगे। नहीं कोई जन्मभूमि नहीं। शंकराचार्य कहाँ पैदा हुए थे? केरल में पैदा हुए थे, परंतु वे सारे हिंदुस्तान में घूमते फिरे । उनकी प्रेरणा से दक्षिण भारत में चले गए। कुमारजीव कश्मीर में पैदा हुए थे और सूडान होते हुए मंगोलिया चले गए और चीन में मर खपकर खत्म हो गए। ईसा कहाँ पैदा हुए थे? कहाँ जन्म लिया और कहाँ से कहाँ चले गए। वहाँ रहे और बाद में उस गाँव को छोड़कर और कहीं चले गए।

नहीं साहब! हम तो अपने गाँव में रहेंगे और गाँव को ही सब कुछ बनाएँगे और वहीं मरेंगे।नहीं मित्रों इसकी कोई जरूरत नहीं है। जहाँ कहीं भी जगह है, जहाँ कहीं भी भूमि है, जहाँ कहीं भी मौका है, जहाँ कहीं भी आपकी आवश्यकता है , आप वहाँ जाइए। नहीं साहब हम तो गाँव में ही रहेंगे। गाँव में ही हमारे बच्चे रहेंगे।हमारे ही गाँव में पुस्तकालय। गाँव गाँव चिल्लाते हैं। यह ’होमसिकनेस’ की औरों से अपने को अलग करने की प्रवृत्ति है। नहीं साहब, इसके कारण तो सब छोड़कर चले गए। चले गए तो चले गए, उनसे क्या मोहब्बत ? मोहब्बत करनी है तो सिद्धाँतों से कीजिए, आदर्शों से कीजिए।गाँव से क्या मोहब्बत क्या रिश्ता? इसका सबसे अच्छा उदाहरण हमें श्रीकृष्ण भगवान् के जीवन में देखने को मिलता है। भगवान् की ये कथाएँ और प्रेरणाएँ हमें यही सिखाती है कि जहाँ हमारी आवश्यकता है , हमें वहीं बादलों के तरीके से जाना चाहिए।

मित्रो! भगवान श्रीकृष्ण की कथाएँ और प्रेरणाएँ हमको जाने क्या-क्या सिखाती हैं। श्रीकृष्ण का जीवन हमें अध्यात्म का जाने क्या क्या अर्थ निकाल रखा है। आपके हिसाब से अध्यात्म हो सकता है-भजन , ध्यान, कुँडलिनी जगाना और आज्ञाचक्र जगाना। दंड कमंडल लेकर ठाले निठल्ले बैठे रहते हैं और बेकार की बातें करते हैं। जब मुसीबत आती है, जो यहाँ वहाँ मारे-मारे भागते फिरते हैं। सनक में जीते हैं। बैठे-बैठे योगीराज बनने का ढोंग करते और चित्र -विचित्र स्वाँग रचते रहते हैं। ऐसे लोग अफीमची की तरह सनकते रहते हैं और फालतू बकवास करते रहते हैं। इसे हम अध्यात्म नहीं कह सकते।

मित्रो! अध्यात्म क्या हो सकता है? अध्यात्म केवल वह है, जो हमारे क्रियाकलाप में शामिल हो। यह बात हमने शुरू में ही बताई है। अध्यात्म का हम आपके क्रियाकलापों में देखना चाहते हैं। आज्ञाचक्र जगने का मतलब आपका जीवन-चक्र धमा कि नहीं घूमा? नहीं महाराज जी, यह तो केवल सिर में घूमेगा , बेटे सिर में कोई चक्र नहीं घूमता । घूमता है तो सारे क्रियाकलापों में घूमता है। केवल घर में ही नहीं, सारे संसार में चक्र घूमता है। भगवान् ने अपनी लीला के माध्यम से धर्म चक्र में घूमता है। पागल कहीं का, सनकता रहता है और बेसिर पैर की बातें करता है। चक्र का जान क्या समझ लिया है।

इसलिए मित्रो! श्रीकृष्ण भगवान् ने गीता में अध्यात्म का सूत्र समझाया। गीता का कर्म गीता बतलाया। गीता के कर्मयोग में उन्होंने कहा कि कर्म करने का अधिकार मनुष्य को है, किन्तु फल प्राप्त करने के लिए हैरान होने की, उतावली करने की आवश्यकता नहीं है। काम करो, ईमानदारी से काम करो, शराफत से काम करो। बस , वही काफी है आपके आत्मसंतोष के लिए। फल मिला या नहीं? हम नहीं जानते कि फल क्या मिलेगा या क्या नहीं मिलेगा? बहुत से आदमी दुनिया में ऐसे हुए हैं जिन्होंने बेहद अच्छे अच्छे काम किए हैं, लेकिन ईसामसीह को फाँसी पर चढ़ा दिया गया, सुकरात को जहर का प्याला पिला दिया गया। न जाने कितने अच्छे अच्छे आदमियों को क्या क्या किया गया। अतः हम सफलता की कोई गारंटी नहीं ले सकते, लेकिन हम आपको शाँति की गारंटी दे सकते हैं।

मित्रों ! अगर आप शराफत के मार्ग पर चलेंगे और यह समझते रहेंगे कि हम नेक काम कर रहे हैं, शराफत का काम कर रहे हैं तो फिर जटायु के तरीके से आपको सफलता मिल जाए तो क्या और न मिले तो क्या -कोई अंतर नहीं पड़ेगा । रावण से सीता को छुड़ाते हुए जटायु मारा गया, उस नेक काम के लिए अपनी जिंदगी देनी पड़ी , लेकिन जटायु को आप हारा हुआ नहीं कह सकते। भगतसिंह का फाँसी लग गई-तख्त पर टाँगा। ईसा को कीलें गाड़ दी गई लेकिन हम ईसा को हारा हुआ नहीं कहेंगे, भगतसिंह को मरा हुआ नहीं मानेंगे, जटायु को मरा हुआ नहीं मानेंगे। सफलता -असफलता से क्या बनता-बिगड़ता है? सफलता -असफलता की कोई कीमत नहीं। आप ने सही काम किया, नहीं किया आपके लिए इतना ही काफी है।

साथियों! कर्मयोग में भगवान् ने यह बताया है कि आप यह मत देखिए कि उसमें फायदा हुआ कि नहीं? हमने जो चाहा था वह मिला कि नहीं मिला? मिलना , न मिलना आपके हाथ की बात नहीं है। यह परिस्थितियों और प्रारब्ध की बात है। यह आपके प्रारब्ध की बात है कि दूसरे लोगों की सहायता या बिना सहायता के आप क्या कर सकते हैं? किसी कार्य का क्या फल मिलता है, आपके हाथ में यह कुछ नहीं है। लेकिन एक बात पूरी तरह से आपके हाथ में है कि आप अपनी जिम्मेदारियाँ निभाएँ और कर्त्तव्य को पूरा करें। आप कर्त्तव्यों की परा करेंगे, जिम्मेदारियों को निभाएँगे, तो यकीन रखिए, आपको वह लाभ मिल जाएगा, जो कि योगी को मिलना चाहिए, संत को मिलना चाहिए और ज्ञानी को मिलना चाहिए। यही गीता का कर्मयोग है। गीता में अर्जुन का भगवान् ने कर्मयोग की शिक्षा दी और उसे कर्म में लगाया। उन्होंने अर्जुन से कहा कि कर्म कर, सारी-की सारी जिंदगी की प्रतिक्रिया को अपना योग मान। गृहस्थ को योग मान। समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को योग मानकर अपने कर्त्तव्य को पूरा करता जा। मित्रों यह उनका कर्मयोग था।

एक बार अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से कहने लगा कि भगवान् मैं तो आपके विराट् स्वरूप का दर्शन करना चाहता हूँ। उन्होंने कहा कि भगवान् के दर्शन इन आँखों से ही हो सकते। इन आँखों से मिट्टी देखी जा सकती है। पत्थर देखे जा सकते हैं। इससे हाड़ माँस देखा जा सकता है। पंचतत्त्वों से बनी आँखें सिर्फ पंचतत्व देख सकती हैं। भगवान् पंचतत्व से बड़ा है, इसलिए कभी किसी ने भगवान् को नहीं देखा और इन आँखों से कोई देख भी नहीं सकता। भगवान् को देखने के लिए आँखें ही काफी नहीं है और आँख से भगवान् को देखने की कोई गुँजाइश भी नहीं है। किसी के लिए भी गुँजाइश नहीं है।

तो फिर भगवान् को कैसे देखा जा सकता है? इस पर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- “दिव्यं ददामि ते चक्षुः” अर्थात् मैं तुझे दिव्य आँखें दूँगा, विवेक की आँखें दूँगा, ज्ञान की आँखें दूँगा। मात्र ज्ञान की आँख से ही भगवान् को देखा जा सकता है और किसी तरीके से नहीं। चमड़े की आँख से आप भगवान् को नहीं देख सकते। जब यह चमड़े का विषय ही नहीं तो आप देख कहाँ से लेंगे? आपने क्या ठंडक देखी है, नहीं साहब हमने तो केवल बरफ देखी है, ठंड तक नहीं देखी। तो क्या आपने गरमी देखी है? नहीं गरमी भी नहीं देखी है, आग देखी है।आग की बात हम नहीं पूछते गरमी की बात पूछते हैं। नहीं साहब, गरमी तो नहीं देखी है। अच्छा तो हमारा प्यार देखा है? महाराज जी! प्यार तो आपका नहीं देखा। हाँ आपके चेहरे की स्मिति , मुस्कान देखी है। मित्रो! हम प्यार की बात पूछते हैं मुस्कान की नहीं।

मित्रो! अच्छा बताइए आपने मेरा ज्ञान देखा है? नहीं महाराज जी ज्ञान भी नहीं देखा। ज्ञान आपने देखा नहीं प्यार देखा नहीं गरमी देखी नहीं ठंड देखी नहीं तो फिर आप भगवान् को कैसे देखेंगे? नहीं महाराज जी! भगवान् दिखा दीजिए। पागल कहीं का भगवान् देखेगा। भगवान् भी कोई देखने की चीज है! भगवान् किसी ने नहीं देखा है। अर्जुन भी कह रहा था कि भगवान् को दिखा ही दीजिए। श्रीकृष्ण न कहा चल तुझे दिखाते हैं। उन्होंने अपना विराट् रूप दिखाया और कहा-देख यही है भगवान्। यही स्वरूप उन्होंने अपनी माता यशोदा को भी दिखाया था। राम ने भी अपनी माता कौशल्या को अपना विराट् रूप दिखाया था। उन्होंने काकभुशुँडि का दिखाया था और कहा था कि देख यही मेरा विराट् रूप है।

साथियों ! अगर आप आँखों से भगवान् को देखा चाहते को तो संसार में जितनी दिव्यशक्तियाँ हैं, जितनी दिव्य विचारधाराएँ है ओर जितने दिव्य कर्म दिखाई पड़ते हैं, उनमें आप भगवान् की क्रीड़ा को देख सकते हैं। यही उनके क्रीड़ा करने योग्य स्थल हैं। उनको ही आप अक्षत चढ़ाइए, जल चढ़ाइए, अगरबत्ती जलाइए। उसमें ही अपनी अक्ल लगाइए अर्थात् ध्यान कीजिए। ध्यान करने का मतलब है- भगवान् के लिए अपनी अक्ल खरच करना। ‘अक्षता समर्पयामि ‘ का अर्थ है -अपनी कमाई का एक हिस्सा लोकमंगल में लगा देना। ‘आचमनं समर्पयामि’ एवं स्नानसमर्पयामि’ अर्थात् पानी चढ़ा देने का भी यही मतलब होता है-समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिए, लोगों को अच्छा बनाने के लिए, दुनिया में भलाई लाने के लिए अपना पसीना बहाइए, अपनी अक्ल लगाइए, अपना पैसा खरच कीजिए। नहीं महाराज जी, मैं तो तीन चम्मच पानी चढ़ाऊगा , तो पुण्य हो जाएगा।हाँ बेटे चाहे तीन चम्मच चढ़े, चाहे चार इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। अरे चढ़ाना है तो वह चढ़ा जो इसके पीछे कुछ शिक्षा है, प्रेरणा है। नहीं महाराज ! भगवान तो पानी चढ़ाने से ही प्रसन्न हो जाते हैं। तो फिर ठीक है चम्मच से क्यों चढ़ाता है ? सावन के महीन में तीन घड़े पानी भर ले और उनकी पेंदी में सुराख करके भगवान् के ऊपर के ऊपर टाँग दे। चौबीस घंटे पानी टपकता रहेगा। सारे दिन ‘आचमनं समर्पयामि’ का पाठ चलता रहेगा और चौबीस घंटे का स्नान भी। न बार-बार नहलाना पड़ेगा, अपने धुलाना पड़ेगा, न बार बार चममच डालना पड़ेगा अपने आप बैठे-बैठे भगवान् जी नहाते रहेंगे। अरे मूर्ख पानी चढ़ाने का अर्थ है -पसीना बहाना, श्रम करना। अच्छाई के लिए मेहनत करना। पूजा-अर्चना के पीछे, कर्मकांडों के पीछे छिपे हुए भाव शिक्षा एवं प्रेरणाओं को समझना बहुत जरूरी है।

भगवान् ने गीता में हमें यही उपदेश सिखाया और यह कहा कि कोई भी श्रेष्ठ कार्य बिना श्रम और सहयोग के संभव नहीं है। उदाहरण के लिए, जब उन्होंने पहाड़ उठाया, तो ग्वाल−बालों से कहा कि आप जरा हिम्मत कीजिए, हमारे साथ आइए और हमारी मदद कीजिए, अपनी लाठी का सहारा लगाइए। मित्रो! जनता को साथ लिए बगैर आप कुछ भी नहीं कर सकते। अकेले आप समाज को सुधारेंगे? नहीं आप अकेले कुछ भी नहीं कर सकते।आप लोगों को साथ बुलाइए साथ लेकर चलिए। नहीं साहब, हम बड़े ज्ञानी हैं, बड़े विद्वान् हैं। ठीक है , आप विद्वान् है तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन आपके साथ में लोकशक्ति है कि नहीं? आप जनता के पास जाइए और लोकशक्ति का बढ़ाइए। लोकशक्ति को जगाए बिना राम का उद्धार नहीं हो सका, कृष्ण का उद्धार नहीं हो सका। बुद्ध का उद्धार नहीं हो सका और गाँधी का उद्धार नहीं हो सका, किसी का भी उद्धार नहीं हो सका और न कभी हो सकता है।जनशक्ति को जगाइए, जनता के पास जाइए, जनता को साथ लीजिए। जनसहयोग लीजिए। श्रीकृष्ण भगवान् का गोवर्द्धन उठाना, महाभारत में सेना को खड़ा कर देना, इस बात का सबूत है कि उन्होंने जो काम किए,मेहनत से किए और लोगों की सहायता से किए है -जनशक्ति का साथ लेकर किए हैं।

श्रीकृष्ण भगवान् के ब्याह शादी के बारे में कितनी ही किंवदंतियाँ मालूम पड़ती है। अभी जो आपको हम भागवत् कथा बताने वाले थे, उसमें पहला विषय श्रीकृष्ण भगवान् के शादी-ब्याह वाला किस्सा ही था। लोगों न उनके विवाह और रास को इतना घिनौना बना दिया है।जिसे हम नहीं चाहते कि हमारे पिता के ऊपर-हमारे बुजुर्गों के ऊपर ऐसे गंदे और वाहियात आक्षेप लगाए जाएँ। हम इस बकवास को सुनना नहीं चाहते और न इस तरह की रासलीला को देखने का हमारा जरा सा भी मन है और न फुरसत है। नहीं गुरुजी रास देख लीजिए। नहीं बेटे, हम रास नहीं देखना चाहते। हम शिक्षा वाला नाटक देखना चाहते हैं, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण ने यह करके दिखाया था कि अपना राज्य सुदामा को सुपुर्द कर दिया था और तप करने चले गए। यह हमें पसंद है और इसे हम हजार बार देखेंगे। क्यों महाराज जी, आपने तो गोपियों वाली रासलीला और तप करने चले गए। यह हमें पसंद है और इसे हम हजार बार देखेंगे। क्यों महाराज जी आपने तो गोपियों वाली रासलीला ओर वह कपड़े चुराने वाली लीला देखी है? नहीं बेटे यह रासलीला हमें नापसंद है, क्योंकि यह समाज में अनाचार फैलाती है। हमारे आराध्य की हँसी उड़ाती है और हमारी संस्कृति के ऊपर कलंक लगाती है। यह हमें नापसंद है। इसे न हम देखना चाहते है और न सुनना चाहते हैं।

मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण के दाँपत्य जीवन के बारे जो वाहियात बातें सुनने को मिलती रही हैं, इसके संबंध में जब मैं गहराई में गया तो पता चला कि ये तमाम वाहियात बातें पीछे पंडितों ने मिलाई हैं। असल में उनका एक ही ब्याह हुआ था और रुक्मिणी को वे छीनकर नहीं लाए थे। रुक्मिणी के भाई रुक्म की रजामंदी से यह ब्याह हुआ था। जब महाभारत में यह कथा मैंने पढ़ी तो मुझे बहुत पसंद आई और तब से मैंने भगवान् श्रीकृष्ण की शादी ब्याह के बारे में भी जिक्र करना शुरू कर दिया। पहले मैंने यह फैसला किया था कि श्री कृष्ण के ब्याह के बारे में मैं कुछ लिखूँगा ही नहीं कि उनका ब्याह हुआ या वे कुँवारे रहे अथवा उन्होंने बहुत सी औरतों से ब्याह किया था। यह सब मैं लिखना नहीं चाहता था, जिन्हें साथ लेकर के वे बारह वर्ष तक बद्रीनाथ तप करने चले गए।

बद्रीनाथ किसे कहते हैं? बद्री माने बेर माने बद्री । बेरों का जंगल था वहाँ, जहाँ आज बद्रीनाथ है। वे वहीं चल गए थे आर अपनी धर्मपत्नी के साथ बारह वर्ष तक तप किया था। इसके पीछे सिद्धाँत छिपा हुआ था-आदर्श छिपा हुआ कि हमें एक ऐसी संतान चाहिए, जो कामुकता के संस्कारों से दूर हो। इसके पीछे उद्देश्य यह था कि श्रेष्ठ नागरिक होने के लिए संयम के साथ में तप के साथ में ज्ञान के साथ में एक सुसंस्कारी संतान देनी है। बारह वर्ष तक इसलिए तप करके आए थे।उनके केवल एक पुत्र उत्पन्न हुआ था। उसका नाम प्रद्युम्न था। नहीं बेटे, यह सब बातें गलत हैं और पीछे पंडितों के द्वारा जोड़ी गई है। बेकार की इन बातों से कोई फायदा नहीं है।

मित्रों ! भगवान् श्रीकृष्ण का दाँपत्य जीवन श्रेष्ठ वाला दाँपत्य जीवन रहा है। उसमें इस तरह के बकवास की कोई गुँजाइश नहीं है कि उनकी हजारों रानियाँ थी। उनकी जिंदगी की आखिर वाली दो घटनाएँ कितनी शान दार रही है। पहली घटना वह है जब उन्होंने संपत्ति इकट्ठी की और कहा कि इसका हिसाब होना चाहिए कि कितना धन किस राज्य में कहाँ-कहाँ स्थापित हो? एक बार जब सुदामा जी द्वारका राज्य में आए और कृष्ण भगवान् को बताया कि सुदामा नगरी का हमारा गुरुकुल टूटा -फूटा हुआ पड़ा है। हमारे यहाँ घन की कमी आ गई है। छात्रों के निवास के लिए स्थान की कमी पड़ गई है। पढ़ने के लिए पुस्तकें नहीं है। यह सुनकर उन्होंने सोचा कि पैसे का इससे अच्छा उपयोग और कुछ भी नहीं हो सकता है। आपके पास धन संपदा हो तो आप सोचेंगे कि इसे मेरा बेटा खाएगा, पाता खाएगा तो मैं उसकी जान ले लूँगा। अपनी सारी कमाई किसको देगा ? बेटे-पोते को देगा अगर और किसी को देगा तो तेरी जान निकल जाएगी।

मित्रो! क्या हुआ? भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि राज्य इकट्ठा किया, पैसा, इकट्ठा किया, लेकिन इसे खरच करना चाहिए था।आखिर इसे खरच कहाँ किया जाए? यह विचार कर ही रहे थे। कि सुदामा जी आ पहुंचे। उन्होंने सोचा बस हो गया मेरा काम। यही तो मैं तलाश कर रहा था कि कोई ऐसा ठीक स्थान मिले, जहाँ हमारे धन का अच्छे से अच्छा उपयोग हो सके। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किसको दूँ, किसको न दूं? माँगने वाले तो हजारों आते हैं, लेकिन जहाँ आवश्यकता है , ऐसा कोई संस्थान या व्यक्ति नहीं मिला। सुदामा जी आप ठीक समय पर आ गए। चलिए जो कुछ भी मेरे पास है, वह सब मैं आपको देता हूँ -सब आपके सुपुर्द करता हूँ । उनका जो सारे का सारा धन था, उसे सुदामापुरी भेज दिया और वहाँ का विद्यालय विश्वविद्यालय में बदल दिया गया।

मित्रो ! यह उनके जीवन की निस्पृहता थी, उनका कर्मयोग था। कर्मयोग में आदमी की आसक्तियाँ और मोह कटते जाते हैं और उसे यह दिखाई देने लगता है कि हमें क्या चाहिए? हमारे में कमाने का माद्दा है, लेकिन कमाने के माद्दे की सार्थकता तब है, जब इसे किसी अच्छे काम में लगा सकें । लेकिन आप तो कमाते जाते हैं और बेटों को, पोतों को चालाक बनाने के लिए, चोर बनाने के लिए हैवान बनाने के लिए, व्यसनी बनाने के लिए, और अनाचारी बनाने के लिए, पाप की कमाई उनके ऊपर जमा करते जा रहे है। आप भी क्या यही करते हैं? नहीं महाराज जी! हम ऐसा नहीं करते हैं। यदि आप भी ऐसा ही करते हैं तो अपना विचार बदल दें। मित्रो!प्राचीनकाल में ऐसा ही होता रहा है। भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना सारा धन सुदामा को सुपुर्द कर दिया और वे निस्पृह हो गए। ये सारी बातें उन्होंने अपने जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए साथ कर दिखाई।

उनके जीवन की अंतिम कथा यह है कि उन्हें याद आया कि पहल जन्म में हमने बाली को छिपकर मारा था। छिपकर मारना हमारी गलती थी। उसे छिपकर नहीं मारना चाहिए था। यह कोई कायदा नहीं है कि आप छिप करके किसी का मारें। छिपकर के मारने वाले को हत्यारा कहते हैं, कमाई कहते हैं और जल्लाद कहते हैं। लड़ाई का कायदा यह है कि आप सामने वाले को भी हथियार दीजिए और खुद भी हथियार लीजिए, फिर चैलेंज कीजिए कि आइए, आपको भी अपनी रक्षा करने का अधिकार है। इस लड़ाई में जान हमारी भी जा सकती है और आपकी भी जा सकती है। आप हमारे ऊपर हमला कीजिए और हम आपके ताड़ के पीछे से छिपकर के उसे मार दिया। सोए हुए को मार दिया, यह क्या घोटाला किया। रामचंद्र जी थे तो क्या हुआ, उन्होंने ऐसा करके गलती की थी।

मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण ने दिखाया कि गलती करने वाला कोई भी क्यों न हो, चाहे भगवान् ही क्यों न हो गलती की सजा से माफी नहीं माँग सकता। वही बाली इस जन्म में बहेलिया हो गया और आकर के जब श्रीकृष्ण भगवान् पेड़ के नीचे बैठे हुए थे, तब उनको तीर मारा। तीर उनके पाँव में लगा , जिससे सुराख बन गया और सेप्टिक हो गया, ब्बेनस हो गया डाक्टरों ने इंजेक्शन लगाए, बहुतेरा चिकित्सा उपचार किया, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा । भगवान् श्रीकृष्ण वहीं ढेर हो गए। उनकी लाश वहीं पड़ी रही। बलराम ने भी देखा कि मेरा भाई मारा गया। अर्जुन भी वहाँ आ गए और जाकर उनका अंतिम संस्कार किया। इस सारी कथा का महाभारत में विशद् वर्णन है।

मित्रो! इसी के साथ सारी कथा पूरी हो जाती है। रही बात अलौकिकता और चमत्कार की तो महान् व्यक्तियों के साथ इसका कोई लेना देना नहीं है। चमत्कार ता आप जैसे लोगों के लिए है , जो इसे ही सब कुछ मानकर किसी की महानता का आकलन करते हैं और कहते हैं कि यदि चमत्कारी होगा तो महात्मा होगा, चमत्कारी होगा तो भगवान् होगा, चमत्कारी होगा तो गुरु होगा और अगर चमत्कारी नहीं हुआ तो कुछ नहीं, मात्र सामान्य व्यक्ति है। नहीं साहब गुरु गोविंदसिंह ने तो एक से एक बड़े चमत्कार दिखाए थे, आप भी दिखाइए। नहीं भाई साहब गुरुगोविंद सिंह से जब एक व्यक्ति जिद करने लगा और कहने लगा था कि मेरा खुदा बड़ा चमत्कारी है । वह एक बीज से हजारों फल निकालता है। बादलों को पिघलाकर पानी की बूंदें बना देता है। आप भी बालों में से बालू निकाल दीजिए , कानों में से मेढ़क निकाल दीजिए तो हम आपको चमत्कारी मानेंगे। उन्होंने कहा-तू बाजीगरी को चमत्कार मानता है। वास्तविक चमत्कार ता यह है कि आदमी के हृदय में भगवान् पैदा किया जा सकता है। या नहीं। जो आदमी पापी और पतित की जिंदगी जी रहा है। भीरु और परावलंबी जिंदगी जी रहा है, यदि वह अब स्वावलंबी और शानदार जिंदगी जीता है श्रेष्ठ जिंदगी जीता है , लोगों को तारने वाली विकास वाली जिंदगी जीता है तो यही सबसे बड़ा चमत्कार है। इससे बड़ा और कोई चमत्कार नहीं हो सकता।

भगवान् श्रीकृष्ण चमत्कारी थे, लेकिन लौकिक दृष्टि से वे घोर असफल। गोपियों से प्यार करते थे, राधा से प्यार करते थे, लेकिन उन्हें छोड़कर वे कहाँ चले गए? गोपियाँ चिल्लाती रह गई। ब्याह किया , राजपाट बसाया , अर्जुन का राजा बनाया। आखिर में भागकर स्वयं द्वारका चले गए। अपना कुटुम्ब बसाया जो अंत में आपस में लड़ मरकर खत्म हो गए। ये कैसे भगवान् थे जिनके खानदान वाले सब खत्म हो गए। सारा खानदान चौपट हो गया। अर्जुन गोपियों को लेकर जा रहे थे। उनको रास्ते में भील मिल गए और गोपियों को ले गए। राधिका जी जाने कहा चली गई। सब कुछ बिखर गया। आखिर में जो कुछ बचा खुचा था, उसे भी लोग समेट ले गए और भगवान् श्रीकृष्ण खाली हाथ रह गए। आखिरी वक्त में यह भी नहीं हो सका कि कोई मुँह में गंगाजल ही डाल दे या गौदान करा दे। गौदान कराने वाले तो नहीं हुए उलटे उनकी लाश जंगल में पड़ी रही और वह भी अर्जुन को जलानी पड़ी।

मित्रो! इस तरह संसार की दृष्टि से भगवान् श्रीकृष्ण घोर असफल सिद्ध हुए, लेकिन आदर्शों की दृष्टि के -सिद्धान्तों की दृष्टि से घोर सफल सिद्ध हुए। वे भगवान् जो आज के दिन पैदा हुए, जिन्होंने न केवल अपने क्रियाकलापों से कितना शिक्षण दिया वरन् संख्या नी नारियां संसार सागर से पार लगाया। उनका शिक्षण इतना शानदार है कि अगर हम आज की जन्माष्टमी के दिन इन चरित्रों को इन प्रेरणाओं को, इन दिशाओं को अपने जीवन में धारण करने में समर्थ हो जाएँ तो मजा आ जाए और आज का जन्माष्टमी का पर्व सार्थ के हो जाए। हमारा समझाना भी सार्थक हो जाए। अगर ये प्रेरणाएँ जो भगवान् ने अपनी स्थूल जीवन की लीलाओं द्वारा दी थी। इनको हम धारण कर पाए तब-गीता में हमको जो बताया गया है, उसे हम धारण कर सकें। तब । अगर हममें से प्रत्येक के भीतर जीवंत भगवान् का वह सिद्धाँत आदर्शवादिता के रूप में उतर सके, हर क्षण उसकी आवाज और वाणी को हम सुन सकें तो हमारा जीवन धन्य हो जाए और धन्य हो जाए आज का दिन और आज का हमारा लेक्चर। बस , आज की बात यही समाप्त। ॐ शाँतिः।


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