चरैवेति -चरैवेति सिद्धाँत को अपनाते ये परिव्राजक पशु -पक्षी

January 2000

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जीवन का मूल मंत्र है- “चलते रहो- चलते रहो” इसे मानव ही नहीं , अन्य जीवों को भी अपनाना पड़ता है। जीवन उत्कृष्ट एवं सुखी हो, वातावरण के साथ शारीरिक स्थिति का समुचित तालमेल बैठ सके, इसके लिए यात्रा इतनी जोखिम भरी और इतने दूरस्थ क्षेत्रों के लिए होती है कि हैरत में रह जाना पड़ता है। सर्वसाधन संपन्न मानव ऐसी यात्राएँ करें तो समझ में आता है , परंतु साधनविहीन पक्षी एवं अन्य जीव यह कार्य संपन्न करें तो यही कहना पड़ेगा कि निश्चित ही प्रकृति ने इन्हें कुछ अलौकिक और अनूठे अनुदान दिए हैं। पक्षियों की यह रोमाँचक प्रव्रज्या मानवीय बुद्धि के लिए चुनौती से कम नहीं है।

देखा यही जाता है कि ज्यादातर जीव-जंतुओं को वातावरण और मौसम के परिवर्तनों से जूझना पड़ता है। इसी के अंतर्गत इन्हें प्रजनन एवं नवजात के पोषण व विकास के लिए उचित स्थान की खोज रहती है और ऐसी ही खोज में कुछ तो हजारों किलोमीटर लंबी यात्रा पर निकल पड़ते हैं। ह्वेल मछली की देशाँतर प्रव्रज्या कुछ इसी प्रकार की हैं, जिसे ठंडे ध्रुवीय क्षेत्रों से गर्म भूमध्य रेखीय क्षेत्रों की ओर देशाँतरण करना पड़ता है जा कि प्रजनन-पाषण के लिए सर्वथा उपयुक्त है। धूसर ह्वेल मैक्सिको के शाँत समुद्रतल में प्रजनन करती है, किंतु बसंत तक जब शिशु बड़े व सशक्त हो जाते हैं, तब वह आर्कटिक की लंबी यात्रा शुरू करती है आर पतझड़ तक वापस आ जाती है। यह यात्रा कुल मिलाकर 18000 किलोमीटर लंबी हो जाती है।

विश्व की सबसे आश्चर्यजनक एवं अपूर्ण प्रव्रज्या मैक्सिको एवं कनाडा के बीच होती है। इसकी नायिका है छोटा सा जीव मोनार्च तितली। मजेदार बात यह है कि इस यात्रा में इसकी कई पीढ़ियां खप जाती हैं। सर्दियां ये मैक्सिको की पहाड़ियों में बिताती हैं। लाखों की संख्या में यहाँ ये शीतनिद्रा की समाधि में चली जाती है। बसंत के आते ही सक्रिय हो उठती है। व जोड़ा बनाकर उत्तर की ओर उड़ान भरती हैं और संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों में विश्राम करती हैं। यहाँ अंडे देती हैं व शिशुओं का पालन पोषण करती हैं। बस इनका काम यहीं समाप्त हो जाता है। नई पीढ़ी अपनी यात्रा उत्तर की ओर जारी रखती है और वाशिंगटन डी.सी.तक पहुंचने में एक पीढ़ी और खप जाती है। वापसी की 3000 किमी. लंबी यात्रा कनाडा की गरमी में जन्में नवजातों द्वारा शुरू होती है, जिनके परदादे छह माह पूर्व मैक्सिको से चल पड़े थे।

अफ्रीका के मैदानों में विचरण करने वाले चितकबरे ‘ग्नू’ की प्रव्रज्या वर्षभर आहारपूर्ति के उद्देश्य से चलती रहती है। दिसंबर से अप्रैल तक दक्षिण -पूरब के मैदान हरी घास से ढके रहते हैं और जल भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहता है, जहाँ नवजात बछड़ों का भरण−पोषण भली भाँति हो जाता है, किंतु मई -जून का गरमी में मैदान बंजर हो जाते हैं और पानी के स्त्रोत भी सूख जाते हैं। जल एवं खाद्य के इस संकट के समाधान में ग्नू के झुँड विक्टोरिया झील की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। मार्ग की कोई बाधा इन्हें नहीं रोक सकती। थकान , तीव्र प्रवाहिनी नदियाँ , शेर -चीतों के हमलों की परवाह न करते हुए ये अपनी यात्रा उत्तर की ओर जारी रखते हैं और अगस्त तक विक्टोरिया पहुँच जाते हैं, जहाँ जल एवं घास पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहते हैं। नवंबर के तूफानी बादल वापसी का संदेश लेकर आते हैं और ये वर्षा का अनुसरण करते हुए अपनी प्रिय जन्मभूमि की ओर चल पड़ते हैं।

परिव्राजक जीव-जंतुओं में सबसे लंबी उड़ान उत्तरी ध्रुव का आर्कटिक पक्षी टर्न भरता है। जो एक वर्ष में 25000 किलोमीटर से भी लंबी यात्रा करता है। यह वसंत के बाद के मौसम में अंडे देता है व गरमी के मौसम में नवजात चूजों का पुष्ट करता है। पतझड़ के आते ही असाधारण तितिक्षा का परिचय देते हुए दक्षिणी ध्रुव की ओर लंबी यात्रा पर निकल पड़ता है और भूमध्यरेखा को पार करते हुए दक्षिण ध्रुवीय प्रदेश अंटार्कटिका पहुँच जाता है । यहाँ पर उपलब्ध प्रचुर खाद्य सामग्री का लाभ लेते हुए सर्दियां यही बिताते हैं और बसंत आते ही अपनी दूरस्थ यात्रा पर निकल पड़ता है तथा गरमी से पहल ही आर्कटिक के उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्र में पहुँच जाता है।

इसी तरह प्रत्येक वर्ष सरदी शुरू होते ही 300 से भी अधिक प्रजातियों के पक्षी अत्यधिक ठंड वाले मध्य एशियाई , पूर्वी यूरोप एवं साइबेरियाई क्षेत्रों से उड़ान भरकर यहाँ पहुँचते हैं। इनमें चार फीट ऊँची गरदन वाले सारस एवं नन्हें पाइप्स क्वैक कार्बलर्स झुँड के झुँड शोर मचाते जलपक्षी , लंबी टाँगों वाले पक्षी एवं रेड स्टार्ट जैसे सभ्य आगंतुक यहाँ आते हैं।इनकी प्रव्रज्या का प्रमुख कारण कड़ी सर्दियों में पर्याप्त भोजन की तलाश होती है। जाड़ों में उत्तरी गोलार्द्ध के मैदान , जहाँ ये पक्षी प्रजनन करते हैं, जम जाते हैं और पौधे एवं कीट मर जाते हैं।इस प्रकार इन पक्षियों के पास दक्षिण के गरम एवं आरामदायक मौसम की ओर जाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता। बाद में फिर वसंत आता है और इन उत्तरी मैदानों में जीवन मुस्कराने लगता है , तब ये पक्षी वापस जाते हैं।

अटलाँटिक महासागर में रहने वाली सालमन मछली की प्रव्रज्या इनमें से सबसे अधिक दुष्कर मानी जाती है। यह अपनी प्रव्रज्या जीवन में सिर्फ एक बार ही कर पाती है क्योंकि प्रव्रज्या का उद्देश्य पूरा होते ही उसके प्राण पखेरू भी उड़ जाते हैं। सागर में रह रही मछली अपना मार्ग खोजने में अपनी घ्राणशक्ति का उपयोग करती है। मार्ग की गंध का अहसास उसने केवल एक बार किया होता है। जब वह जन्म के बाद नदियों के शीतल क्षेत्र से सागर की यात्रा पर निकली थी। मुहाने में प्रवेश करते ही सालमन नदी की धारा चीरते हुए अपनी कठिन यात्रा शुरू करती है। उसका अदम्य उत्साह दस फीट तक ऊँचे जलप्रपातों को कूदकर पार कर जाता है। यहीं कुछ, सालमन के शिकार की प्रतीक्षा में बैठे ध्रुवीय भालुओं का भोजन बन जाती है। सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करते हुए अपने गंतव्य स्थल में पहुँचने पर ही सालमन विश्राम करती है। यहाँ के जमने वाले, किन्तु साफ पानी में मादा अंडे छोड़ती है और नर अपने शुक्राणु । थकी-हारी एवं जीर्ण शीर्ण अवस्था में सालमन जल्दी ही दम तोड़ देती है। यहाँ उसके मृत शरीर का अपघटन नदी के पोषक तत्वों की वृद्धि करता है व यह युवा सालमन के काम आता है। नवजात सालमन में प्रजनन शक्ति का विकास तीव्रगति के साथ अपने शारीरिक विकास के साथ शुरू हो जाता है। कुछ महीनों के बाद खुले सागर की तलाश में ये नदी प्रवाह के साथ यात्रा शुरू कर देते हैं। प्रौढ़ावस्था के तीन -चार वर्ष बाद पुनः उसी पथ से नदियों की सुदूर शीतल एवं स्वच्छ प्रजनन भूमि की ओर श्रमसाध्य प्रव्रज्या का लंबा दौर शुरू होता है।

पशु-पक्षियों , मछलियों की ये दूरस्थ व विकट यात्राएँ क्यों और कैसे संपन्न होती हैं? ये प्रश्न अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। गंतव्य स्थान की ओर बिना किसी सिग्नल के कैसे यात्रा तय ही जाती है, यह एक जटिल विषय है। लेदर बैंक कछुआ अंतर्जलीय पर्वत एवं घाटियों के सम्मोच नक्शे के साथ मार्गदर्शन पाता है। ईल व सालमन कुछ जलीय प्रवाह व कुछ सागर के तापमान व संरचना में परिवर्तन पर निर्भर करती हैं। वैसे सालमन में घ्राणशक्ति प्रमुख रहती है, क्योंकि उसका नासिका छिद्र यदि किसी तरह बंद हो जाए तो वह मार्ग भटक जाती है। चितकबरा ग्नू घ्राण व दृष्टि , दोनों शक्तियों की सहायता लेता है।

सबसे ध्यानाकर्षक किस्सा उन युवा पक्षियों का है, जो बिना किसी प्रौढ़ के संग के पहली बार दूरस्थ प्रव्रज्या पर निकलते हैं। परिव्राजक टर्न की प्रव्रज्या में भू-चिह्न का सहयोग भी नहीं दिखता , क्योंकि ये रात को उड़ते हैं और सागर को पार करते हैं, जहाँ ऐसे संकेत सूचनाएँ उपलब्ध नहीं होतीं। इस संदर्भ में कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि इन पक्षियों में ‘जेनेटिक कोड’ के रूप में यात्रा का समग्र आकाशीय चार्ट विद्यमान होता है। ये शायद इसके साथ अपनी दिशासूचक चुँबकीय सुई का उपयोग करते हैं, जो उनकी आँख मस्तिष्क के मध्य छोटे से ऊतक समूह के रूप में विद्यमान होती है। इन दोनों के सहयोग से ये पृथ्वी के चुँबकीय क्षेत्र के अनुरूप अपना मार्ग तय करते हैं, साथ ही यह भी रहस्योद्घाटन हुआ है कि ये पक्षी आकाश में ध्रुवीय प्रकाश को पकड़ने में सक्षम होते हैं, जो इनके मार्ग-बोध में सहायता करता है। वैज्ञानिक सत्य जो भी हो पर प्रकृति ने इन्हें अनूठा और अलौकिक उपहार अवश्य दिया है जिससे ये अपने जीवन सत्य का बोध पाते हैं -निरालस्य होकर अपने जीवन की चुनौतियाँ का सामना करते हैं। एक हम बुद्धिमान् एवं क्षमतावान् कहे जाने वाले मनुष्य हैं , जो तमोगुण और आलस्य में घिरकर, चरैवेति-चरैवेति का वैदिक सत्य भूल बैठे, जिसे हमारे पूर्वज महर्षियों ने दिया था।


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