प्राण विद्या पर आधारित एक निरापद चिकित्सा पद्धति -रेकी

January 2000

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प्राणविद्या से उपचार की पद्धति अति प्राचीन परंपरा है। दुनिया के अनेक देशों में इसके अलग प्रयोगों एवं परीक्षण की जानकारी मिलती है। अपना देश भारत तो सदा से इसका उद्गम स्त्रोत रहा है।इसी क्रम में इन दिनों रेकी चिकित्सा की बहुचर्चित एवं बहुप्रचलित होती जा रही है। जहाँ तक ‘रेकी’ शब्द का संबंध है, यह जापानी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है -विश्वव्यापी जीवनी शक्ति । रेकी में ‘रे’ का तात्पर्य है -विश्वव्यापी तथा ‘की’ में जीवनीशक्ति का बोध निहित हैं। रेकी अर्थात् वह शक्ति जो सभी पदार्थों में स्थित रहकर उसकी क्रिया का कारण हैं। यह समस्त जड़−चेतन में व्याप्त है। यह प्राणशक्ति का एक स्वरूप है। इस प्राणशक्ति के नियोजन से ही इस चिकित्सा के अंतर्गत विभिन्न रोगों का उपचार किया जाता है। समस्त विश्व में इसका प्रचलन चल पड़ा है।

इन दिनों इसे प्राणशक्ति के माध्यम से उपचार की एक नवीन प्रणाली माना जा रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि कालप्रवाह में यह लुप्त हो गई थी। इस लुप्त विधि के पुनर्जागरण का श्रेय जापान के डॉ.मेकाओं उशी को जाता है। इन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में इस चिकित्सा विधि का नाम दिया। दरअसल यह एक सचेतन शक्ति है। भारत में इसे प्राणशक्ति के नाम से जाना जाता है। डॉ. दृ उशी इस परंपरा की नींव डालने से पूर्व भारत आए थे। यहाँ आकर उन्होंने प्राणशक्ति का विशद् अध्ययन एवं अन्वेषण किया। इसके पश्चात् वे जापान लौटे और पीड़ा निवारण का अपना महत्कार्य संपन्न किया। उनके शिष्यों ने बाद में इसे नूतन स्वरूप एवं गति प्रदान की।

सन् 1940 में डॉ. मेकाओं उशी की सहयोगी शिष्य डॉ. चिजिरो हमाशी ने पहले पहल टोकियो में एक प्राइवेट रेकी क्लीनिक की स्थापना की।इस क्लीनिक में अनेक असाध्य रोगों का उपचार किया जाता था। इसके पश्चात् हवायोतकाताने वर्ष 1980 में अमेरिकन रेकी एसोसिएशन की स्थापना की। सन् 1982 में फिलिप ली फूरो मोतो ने एक दूसरी संस्था रेकी एलायंस की नींव डाली। इस संस्था ने बाद में आध्यात्मिक रूप धारण किया। इस संस्था की मान्यता है कि किसी का हृदय उसके स्वयं के प्रति खुला हो तो सत्य अपना मार्ग स्वयं खोज लेता है। सन् 1982 में डॉ. बारबरा बेयर ने अमेरिकन इंटरनेशनल रेकी एसोसिएशन की स्थापना की। भारत में इसका प्रसंग सन् 1989 में एक महिला रेकी मास्टर पाँला होरेन ने किया। यह धीरे धीरे अहमदाबाद व मुंबई से आरंभ होकर देश के अन्य भागों में फैल गई है अभी भी इसका काफी प्रचार विस्तार हो रहा है।

डॉ. मेहाओ उसी ने रेकी देने वाले व्यक्ति के लिए पाँच सिद्धाँत निश्चित किए हैं। ये सिद्धान्त है - 1. क्रोध न करना 2. चिंता से मुक्त होना, 3. कर्त्तव्य के प्रति ईमानदार होना 4. जीव मात्र के प्रति प्रेम व आदर का भाव रखना 5. ईश्वरीय कृपा के प्रति आभार मानना। ये नियम व्यक्ति के स्वयं के अपने मानसिक संतुलन को बनाए रखने के लिए अनिवार्य हैं। मानसिक विकृतियाँ ही मन का असंतुलित करती है। जिसकी वजह से प्राण प्रवाह में अनियमितता आती है और शरीर में रोगों का जन्म होता है। इन नियमों का पालन करने वाला ही सफल उपचारक हो सकता है।

रेकी विधि में अंतरिक्ष में सर्वव्याप्त प्राण शक्ति का उपयोग किया जाता है। प्राणऊर्जा अंतरिक्ष में व्याप्त है। पृथ्वी के लिए इसका मुख्य स्त्रोत सूर्य है। सूर्य से विभिन्न प्रकार के तापीय एवं विद्युत् चुंबकीय तरंगें निकलकर पृथ्वी पर अपना प्रभाव डालती है। ठीक इसी तरह प्राणशक्ति भी एक जैव विद्युतीय तरंग है, जो धरती में सभी जड़ जंगम एवं जीवों में संचरित होती है और इन्हें क्रियाशील व गतिशील बनाती है। इसी कारण धरती उर्वर बनती है और वनस्पति तथा जीव जगत में समृद्धि बनी रहती है। यह सब और कुछ नहीं, बस प्राणशक्ति का चमत्कार है। मनुष्य भी अपनी आवश्यकतानुसार इसी प्राणशक्ति को अंतरिक्ष से ग्रहण करता रहता है। इसमें अवरोध एवं रुकावट ही बीमारी का कारण बनता है। रेकी चिकित्सा के माध्यम से रुग्ण व्यक्ति का अतिरिक्त प्राणशक्ति दी जाती है। भारत में भी प्राणविद्या के आचार्य सूर्योपासना एवं अन्य अनेक विधियों का इसके लिए सफल प्रयोग करते रहे हैं।

वैज्ञानिकों ने इस क्रम में न्यूरान्स तंत्र को सूक्ष्मशरीर के सदृश माना है। ये न्यूरान्स ब्रह्माँडीय ऊर्जा को ग्रहण करने में सक्षम हैं। ये अपनी क्षमता के अनुरूप विद्युत चुंबकीय तरंगों का सृजन उत्पादन भी करते हैं और वातावरण से उनको ग्रहण एवं उसमें संप्रेषण भी करते हैं और वातावरण से उनको ग्रहण एवं उसमें संप्रेषण भी करते हैं। शरीर के विभिन्न स्थानों पर साइनेप्सिस के द्वारा इस ऊर्जा को प्रवाहित करते हैं। रेकी चिकित्सा में प्राणशक्ति का आहरण इन न्यूरान्स की लयबद्धता की स्थिति में लाया जाता है। इसे एट्यूनमेंट कहते हैं। न्यूरान्स का सर्वाधिक केंद्रीकरण मस्तिष्क के सेरिब्रल कार्टेक्स में होता है। यह सहस्रार चक्र के आसपास होता है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह चक्र नयूराँस द्वारा गृहीत या सृजित विद्युत चुंबकीय तरंगों के विभिन्न तरंग दैर्ध्य के शक्ति केन्द्र हैं। रेकी चिकित्सा में एट्यूनमेंट के दौरान प्राप्त चार प्रकार के अनुभव का आधार , इन न्यूरान्स की विभिन्न शक्ति और क्षमताओं को बताया गया है।

रेकी चिकित्सा से स्वयं के साथ दूसरों का भी उपचार होता है। इससे मानसिक शाँति मिलती है तथा शरीर में तत्त्वों का संतुलन बना रहता है ।यह चिकित्सा मानसिक तनाव को दूर करती है। इसी के साथ इससे शारीरिक -मानसिक एवं आत्मिक शक्ति में अभिवृद्धि होती है। इससे न तो किसी को किसी तरह का नुकसान पहुँचाया जा सकना संभव है और न ही इससे शरीर में किसी प्रकार का साइड इफेक्ट होता है। इसे निरापद पद्धति माना जाता है। रेकी से प्रेमभावना विकसित होती है। इसे विधायक एवं रचनात्मक शक्ति की संज्ञा दी जा सकती है यह रोगी की आवश्यकतानुसार शरीर में प्रवेश करती है। इसके प्रवेश से शारीरिक कार्यक्षमता में वृद्धि होती है शरीर में नवस्फूर्ति आती है और मन प्रसन्न रहता है।

सृजनशक्ति होने के कारण रेकी से स्थूलशरीर की क्रिया को त्वरित गति मिलती है। इस शक्ति को ग्रहण एवं धारण करने से घाव शीघ्रता से भरते हैं एवं सहज आराम मिलता है। इस चिकित्सा के द्वारा विषाणु नष्ट होते हैं और शरीर से दूषित पदार्थों का परिष्कार होता है। इस प्रकार यह शारीरिक क्रियाप्रणाली को सुचारु रूप से चलाने में सहायता करती है। शरीर के विकारग्रस्त क्षेत्र को प्रभावित कर उस विकार को मुक्त करती है। यह मनोविकारों का कम करने में भी सहायक है। इस तरह रेकी चिकित्सा से रचनात्मकता व चेतना का विकास , शक्ति संतुलन व संवर्द्धन,संवेगों पर प्रभाव आदि स्वयमेव नजर आने लगते हैं।

रेकी विशेषज्ञों के अनुसार यह दूर बैठे किसी व्यक्ति को भी दी जा सकती है। इस क्रम में मानसिक तरंगों का ईश्वर में संप्रेषित किया जाता है। टेलीपैथी के समान इसमें भी विचारों का संप्रेषण किया जाता है। हाँ इसमें दूर के उस व्यक्ति को इसकी जानकारी होना आवश्यक है। इस चिकित्सा के माध्यम से पशुओं को भी आरोग्य लाभ मिलता है। पौधों को रेकी देने से वे अच्छी तरह फलते फूलते हैं। बीजों पर रेकी का अच्छा प्रभाव देखा गया है। चूँकि यह वैश्विक प्राणशक्ति है, अतः सभी पर यथाक्रम में इसका प्रभाव पड़ना वाजिब एवं लाजिमी हैं, परंतु यह सब रेकी देने वालों के आत्मबल एवं प्राणशक्ति पर निर्भर करता है। रेकी विशेषज्ञ इसका समन्वय योगविद्या के साथ करते हैं। योगविद्या के साथ समन्वय करने से रेकी द्वारा व्यक्ति दूरश्रवण सृजनात्मक शक्ति का विकास दिव्यदर्शन का आभास एवं अनुभूति भी प्राप्त करने की क्षमता रख सकता है।

रेकी चिकित्सा के अलावा भी अन्य उपचारों की विधियाँ विश्व में प्राचीनकाल से प्रचलित हैं। इसके अंतर्गत फेथहीलिंग संकल्पचिकित्सा, स्पर्शचिकित्सा , मंत्रचिकित्सा, आदि प्रमुख तौर पर आती है। लंदन के हैरी एडवर्ड्स ने फेथहीलिंग पर महत्वपूर्ण कार्य किया था। ये अपने सूक्ष्म शरीर से रोगी के पास पहुँचकर उसका उपचार कर दिया करते थे। इन्होंने अपनी अतींद्रिय क्षमताओं को विकसित करके विलक्षण एवं आश्चर्यजनक उपलब्धि प्राप्त की थी। वे इसका उपचार कष्ट पीड़ितों की सेवा सहायता में करते थे। एडवर्ड्स न इसका नाम ‘एक्सेट हीलिंग’ रखा था। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द साइंस ऑफ स्प्रिट हीलिंग’ में इसकी विशद् व्याख्या एवं विवेचना की है। एडवर्ड्स भारत भी आए थे और यहाँ आकर उन्होंने श्री अरविंद एवं रमण महर्षि से भेट की थी।

थियोसॉफी की एक शाखा ‘थियोसॉफिकल ऑर्डर ऑफ सर्विस’ के अंतर्गत रोगोपचार की विधि का प्रयोग किया जा रहा है। वहाँ इसे ‘द ऑर्डर ऑफ हीलिंग’ के नाम से जाना जाता है। इस विधि में दैवीय शक्तियों का सहयोग लेते हैं। इसके अनुसार मनुष्य की इच्छा अति बलवान एवं शक्तिशाली हो सकती है। इच्छा प्रबल हो तो वह सूक्ष्म शक्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है॥ इस प्रबल इच्छाशक्ति का ही संकल्प कहते हैं। संकल्प बल के माध्यम से भी रोगों का उपचार किया जा सकता है। इन उपचार विधियों के अलावा और भी अनेक उपचार विधियाँ प्रचलित हैं। इन सभी का एक ही उद्देश्य एवं मकसद है - व्यक्ति में चुक रही प्राणशक्ति को पुनः प्रदत्त करना एवं उसे निरोग स्वस्थ एवं सुखी बनाना।

इस प्राणशक्ति को यदि चुकने , रीतने , नष्ट होने से बचा लिया जाए, तो शायद हममें से कोई कभी बीमार हीन पड़े। हमारी प्राणशक्तिके नष्ट होने -बरबाद होने का सबसे बड़ा कारण है असंयम फिर वह इंद्रियों का हो या फिर विचारों का।यदि इस असंयम को रोक लिया जाए तो पल पल क्षण क्षण बरबाद हो रहा प्राणशक्ति का भंडार बरबाद होने से बच सकता है। इसी के साथ रेकी विधि से अथवा योगविद्या में बताई गई ध्यान पद्धति से यदि वैश्वप्राण को प्रचुर मात्रा में ग्रहण कर लिया जाए, तो औरों के जीवन का भी स्वस्थ, सुखी एवं नीरोग किया जा सकता है। प्राणचेतना सर्वव्यापी -विश्वव्यापी है। यही वह सर्वमान्य कारण है। जिसकी वजह से इस विधि से किए जाने वाले उपचार में रोगी का पास होना या दूर होना कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता है। इसमें महत्त्वपूर्ण होती है -प्राण स्पंदनों की पारस्परिक समरसता, जो ध्यानयोग के अभ्यासी या रेकी विद्या में प्रवीण व्यक्ति के लिए सहज संभव है। यह निरापद चिकित्सा प्रणाली ही भविष्य को समुज्ज्वल के साथ स्वस्थ बनाने में सक्षम है ऐसा कहना कोई अत्युक्ति न होगी।


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