वन में खड़े एक पौधे के साथ लिपटी हुई एक लता भी धीरे-धीरे बढ़कर पौधे के बराबर हो गई। पौधे का आश्रय लेकर उसने फलना -फूलना आरंभ कर दिया। बेल को फलते-फूलते देखकर वृक्ष को अहंकार हो गया कि मैं न होता तो लता कब की नष्ट हो गई होती। उसने धमकाते हुए कहा -”ओ री बेल! मैं तो तुझे मार भगा दूँगा।”
अभी वह लता को डाँट ही रहा था कि दो पथिक उधर से निकले। एक बोला -”बंधु ! देखिए, यह वृक्ष कसा शीतल और सुँदर है। इस पर कैसी अच्छी लता पुष्पित हो रही है। आओ यहाँ कुछ देर बैठकर विश्राम करें।”
अपना सारा महत्व लता के साथ है, यह सुनकर वृक्ष का सारा अभिमान नष्ट हो गया, उस दिन से उसने लता का धमकाना बंद कर दिया।
कथा का मर्म समझाते हुए संत बोले - “भक्तों ! नारी के साथ जुड़ा होने से ही नर का महत्व हैं। दोनों एक दूसरे के सहयोगी सहचर हैं। ऐसे में किसी एक का कनिष्ठ-वरिष्ठ नहीं माना जाना चाहिए।”
वनवास काल में पाँडव काम्यक वन में थे। श्रीकृष्ण सत्यभामा समेत उनसे मिलने गए। सत्यभामा ने द्रौपदी के प्रति पाँडवों की अत्यधिक संतुष्टि और प्रसन्नता देखकर उन्हें एकाँत में ले जाकर कारण पूछा और कहा -”हम इतनी पत्नियाँ होते हुए भी कृष्ण का मन जीत नहीं पाती?”
द्रौपदी ने कहा- “तुम लोग हास-विलासिता को प्रसन्नता का माध्यम मानती हो, जबकि मैं व्यवस्था और परामर्श देकर उनके अनेक समाधान करती रहती हूँ। इसीलिए काले वर्ण की होने पर भी एक नहीं पाँचों पतियों और छठी सास की प्राणप्रिय हूँ। तुम लाग आलस्य आर विलास अपनाकर उपयोगिता की दृष्टि से घटिया हो गई हो।”
सत्यभामा ने बात गाँठ बाँध ली और वापस लौटने पर यह रहस्य अपनी अन्य सहेलियों को बता दिया। असंतोष दूर हो गया।