युगगीता-9 स्थितप्रज्ञ-प्रज्ञावान की सही पहचान

January 2000

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(गीता के द्वितीय अध्याय के ‘स्थितप्रज्ञ’ की विवेचना की अगली किश्त)

श्रीमद्भगवद्गीता की युगानुकूल विवेचना विगत 9 माह से परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के क्राँतिकारी चिंतन के परिप्रेक्ष्य में ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका में निरंतर प्रकाशित हो रही है। अठारह अध्यायों के विभिन्न श्लोकों में वर्णित विषयों पर यह शृंखला अनवरत प्रकाश डालती रहेगी। विगत अंक में पाठक-परिजन ‘ स्थितप्रज्ञ ‘ की व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में आसक्ति से निवृत्ति होकर कैसे परमात्मा का साक्षात्कार करने वाले स्थितप्रज्ञ पुरुष की उच्चतम आध्यात्मिक प्रगति होती है, यह पढ़ चुके हैं। यह विषय अत्यंत गंभीर भी है। एवं आज जब मनीषियों -महापुरुषों का चारों ओर अकाल सा दिखाई देता है-बड़ा महत्वपूर्ण एवं सामयिक भी। बताया गया था कि जिसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित हो-चंचल गतिमान न हो, वही प्रज्ञावान् है। स्थिर बुद्धि वाला है- स्थितप्रज्ञ है। आसक्ति से निवृत्ति मिले तो ही व्यक्ति प्रज्ञा को जाग्रत् कर सकता है। संयम का महत्व बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने शिष्य अर्जुन को बताते हैं कि इंद्रियां ्र्र्र्र्र्र0161 अति प्रबल वेग से मन को बलात् भ्रमित कर गलत मार्ग पर चलने को विवश कर देती हैं। जब बुद्धिमान् व्यक्ति भी इनके वशीभूत हो मूर्खता पूर्ण व्यवहार करने लगाता है तो फिर औसत योग्यता या कम बुद्धि वाले की तो स्थिति क्या होगी, यह अकल्पनीय है। बार-बार भगवान् कहते हैं -’तानि सर्वाणि संयम्य’ अर्थात् साधक को संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके मेरा ही ध्यान करना चाहिए।विचार विज्ञान के मर्मज्ञ श्रीकृष्ण न केवल सुधीजनों को ध्यान का तरीका सिखाते हैं , अपितु आसक्ति से क्या क्या कठिनाइयाँ पैदा हो सकती है, यह भी बताते हैं। विषयों की कामना, उनमें बाधा पड़ने से क्रोध से मूढभाव -स्मृति भ्रम-ज्ञानशक्ति का नाष एवं अंततः पुरुष के, पतन, ये सभी परिणतियाँ हैं। अध्यात्म इन सबसे उबरने -अपने आपको ऊँचा उठाने की विधा है, जिंदगी का शीर्षासन है। इसी प्रक्रिया से मनुष्य अंतःकरण की प्रसन्नता व दुःखों से निवृत्ति की प्रक्रिया का विकास कर स्थितप्रज्ञ बनता चला जाता है। इसी प्रसंग को द्वितीय अध्याय की व्याख्या परक इस किश्त में सड़सठवें श्लोक की व्याख्या द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-इन्द्रियाणाँ हि चरताँ यनमनोनुविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञाँ वायुर्नावमिवाम्भवि॥

अर्थात् “जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है , वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों में से मन जिस इंद्रिय के साथ रहता है। वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है। “

प्रस्तुत श्लोक बड़े गहरे अर्थों वाला व सही अर्थों में एक औपनिषेदिक शैली में वर्णित काव्य की पराकाष्ठा का द्योतक हैं भगवान् कहते हैं कि नाव जो जल में चल रही है, हवा का प्रवाह आते ही न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचाया जा सके। भगवान् ने नाव की उपमा उस मन से दी है,जो किसी भी इंद्रिय से प्रभावित हो,उसके वशीभूत हो , स्वच्छंद बरताव करने लगता है एवं प्रवाह में बह जाता है। वह एक ही इंद्रिय से प्रभावित हो, उसके वशीभूत हो स्वच्छंद बरताव करने लगता है। एवं प्रवाह में बह जाता है। वह एक ही इंद्रिय, इस योगभ्रष्ट पुरुष की बुद्धि को दुर्गति में बदलने हेतु सक्षम है -इतना प्रबल है आसक्ति से जन्मी वासना का वेग -एक ही इंद्रिय काफी है मनुष्य को पतन की दिशा में ले जाने के लिए। वाणी ही काफी है, रसना ही काफी है, कर्णेंद्रियों-ज्ञानेंद्रियों से प्रविष्ट वासनाएँ ही काफी है। इतना सशक्त -प्रबल वेग होते है। चंचल स्वच्छंद इंद्रियों में जो मन का अपनी इच्छानुसार चलने को विवश कर देती हैं । इंद्रियां व मन मिलकर उनका पक्ष प्रबल हो जाता है तो फिर बुद्धि अपना काम नहीं कर पाती। बुद्धि कुबुद्धि बनकर अनर्थकारिणी बन जाती है। इससे विपरीत , बुद्धि के अनुकूल मन और मन के अनुकूल इंद्रियाँ हो जाती हैं तो जीवन का सारा व्यवहार आत्मा के अनुकूल होता चला जात है। संत विनोबा ‘ स्थितप्रज्ञ दर्शन’ में कहते हैं कि बुद्धि नौका की तरह तारक होती है। परंतु मन की पकड़ में आ जाए तो वही मारक होती है। जब सवार के हाथ में लगाम और लगाम के वश में घोड़ा हो, तब सवार बेखटके मुकाम पर पहुँचने की कोई आशा नहीं करनी चाहिए। इसी बात को कठोपनिषद् में भी ऋषि ने समझाया है। लगभग वही प्रतिपादन यहां योगीराज श्रीकृष्ण ने नाव की उपमा देकर समझाया है। बुद्धिरूपी तारक नौका यदि हवा के वश में बहने लगे तो फिर पार नहीं लगा जा सकता। हम कहते भी तो है कि ‘जमाने की हवा ही कुछ ऐसी है’ उसे जमाने की हवा लग गई है, इसीलिए कर्म ऐसे हो रहे हैं।’ इन सबके पीछे उस प्रबल वेग की संभावनाएँ बताई गई है। बुद्धि यदि मन की पकड़ में आ जाए ता फिर उसकी तारक शक्ति नष्ट हो जाती है और वह उस व्यक्ति को डुबोकर ही रखती है।

यह श्लोक कई माइनों में विशिष्ट है। संत ज्ञानेश्वर कहते हैं-यह श्लोक खतरे की घंटी का सूचक है । बताया गया है कि मनुष्य भले ही लगभग स्थितप्रज्ञ हो गया हो तो भी उसे असावधान नहीं रहना चाहिए । वे लिखते हैं -

प्राप्ते हिपुरुषें।इंद्रिये लालिली जरी कवतिके। तरी आक्रमिला जाण् दुखो। साँसारिके॥

मराठी में वर्णित इस कथन का भावार्थ है कि “पहुँचा हुआ पुरुष (प्राप्त पुरुष) भी यदि कुतूहल से इंद्रियों को दुलराए तो उस पर प्रापंचिक दुःखों का आक्रमण हुआ ही समझो।” कुतूहल का अर्थ है-सहज भाव से असावधानी से या गफलत में आकर। । श्री ज्ञानदेव ने गीता के सड़सठवे श्लोक के साथ सटीक विवेचना के रूप में उपर्युक्त तथ्य लिखा है। भावार्थ यही है कि मानव को किसी भी दशा में अपने मन को खुला नहीं छोड़ना चाहिए। समर्थ रामदास न भी यही बात इस तरह कही है - “मना गूजरे तूज हें राप्त झालें-तरी अंतरी पाहिजे यतन केले।” अर्थात् अरे मन तुझे जो कुछ मिलना था, सो मिल गया है। तू अपने मुकाम पर पहुँच ही गया है । फिर भी गफलत में मत रह। रहस्य पा लेने पर भी तू अपना हाथ कसा हुआ रख। ढीला मत छोड़ ( स्थितप्रज्ञ दर्शनः श्री विनोबा ) कितना सशक्त समर्थन है गीताकार का, बड़ी ही सीधी सादी भाषा में।

गीताकार ने ज्ञानी को विशेष रूप से सावधान इसलिए किया है कि जरा सा प्रमाद हुआ -असावधानी हुई , वह गड़बड़ाया। संयम के आधार पर स्थितप्रज्ञ हुआ व्यक्ति यदि स्वच्छंद आचरण कर बैठा - अहंता , वासना ,तृष्णा की किसी भी एक तेज प्रवाह वाली धारा में वह गया तो फिर उसका कोई ठिकाना नहीं है। संयम व्यवहार आर संयम स्थितप्रज्ञ के आचरण में कण-कण में बस जाना चाहिए, यही गीताकार की अपेक्षा है। इसी लिए श्री कृष्ण इसी बात का स्थापित करने के लिए अगले श्लोक में कहते हैं -

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

अर्थात् “इसलिए हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इंद्रियाँ इंद्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है। ऐसे ही सिद्धपुरुष की बुद्धि स्थिरता का प्राप्त होती है।

बड़ा ही स्पष्ट निर्देश अर्जुन की गुरुसत्ता का है कि संयम में ढिलाई नहीं चल सकती। ‘तस्मात्’ शब्द का अर्थ है -इसलिए अर्थात् अब तक जो बात स्थितप्रज्ञ के लिए-योगी के विषयों में आसक्ति से निवृत्ति के विषय में बताई , उसे हम पुनः दुहराते हैं। तर्कशास्त्र की निगमन पद्धति के अंतर्गत यह बात यहाँ पुनः कहा जा रही है कि बुद्धि की स्थिरता तभी होगी।जब संयम सिद्ध होगा। रेखागणित के ‘इति सिद्धम्’ की तरह का प्रतिपादन है यह जो बात ऊपर 58 वें श्लोक में ‘यदा संहरते चायं कूर्मोड्ढानीव सर्वशः ‘ के रूप में कछुए की उपमा देकर कही गई थी, उसी को ज्यों-का त्यों पुनः उच्चरित किया है श्रीकृष्ण ने। यही गीता की विशेषता है।

लोकसेवा की जब भी बात आती है-चरित्रनिष्ठा सर्वोपरि मानी जाती है। परमपूज्य गुरुदेव -अखण्ड ज्योति’ दिसंबर 1988 में लिखते हैं- “लोकसेवियों की जिस जमाने में कमी पड़ती है, उन दिनों विकास का स्तर घट जाता है। जनसाधारण का भावनात्मक परिष्कार व दृष्टिकोण का उदात्तीकरण निताँत आवश्यक है। इस कार्य को विलासी स्वार्थी एवं घटिया स्तर के लोग नहीं कर सकते, भले ही वे क्रियाकौशल में पारंगत अथवा ऊँचे पदाधिकारी ही क्यों न हों। मात्र सेवाभावना ही उच्चस्तरीय नहीं होनी चाहिए वरन् चरित्रनिष्ठा व आदर्शवादिता भी ऐसी होनी चाहिए, जिसे हर कसौटी पर खरा पाया जा सके।

अर्जुन को एक आदर्श पात्र मानकर एक सच्चा स्थितप्रज्ञ लोकसेवी कैसे बना जा सकता है, यह शिक्षण गीताकार द्वारा दिया जा रहा है। इसी क्रम में भगवान् आगे कहते हैं कि स्थितप्रज्ञ की जीवनचर्या सामान्य से औरों से भिन्न क्यों होती है-उसका दृष्टिकोण कैसा हो ना चाहिए? वे कहते हैं कि “संपूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि है, उसमें संयमी व्यक्ति नित्य ज्ञानस्वरूप परमानंद की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है। जिस नाशवान् साँसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मतत्त्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है।”

या निशा सर्वभूतानाँ तस्याँ जागर्ति संयमी। यस्याँ जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥

वस्तुतः इंद्रिय तुष्टि का उत्तेजनामय और विश्राँतिजनक जीवन बिताने वाले सामान्य लोग एक आत्मसंयमी व्यक्ति के पूर्ण सुख व आनन्द की कल्पना भी नहीं कर सकते। मुनेः शब्द मुनि के लिए-मननशील के लिए प्रयुक्त किया गया है। वह कामोद्वेगों के कोलाहलपूर्ण संसार से ऊपर उठ चुका होता है। यहाँ गीताकार ने स्पष्ट कहा है कि योगी जीवनक्रम को पूरी तरह उलट देता है। वह साँसारिक लोगों से ऊपर उठ चुका होता है। यहाँ गीताकार ने स्पष्ट कहा है कि योगी जीवनक्रम को परी तरह उलट देता है। वह साँसारिक लोगों से ऊपर चलता है। योगी की सबसे सटीक व्याख्या वाला श्लोक यही है जो गीता में बिलकुल सही स्थान पर स्थितप्रज्ञ की परिभाषा देता हुआ उद्धत है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि तीन प्रकार के व्यक्ति रात में जागते हैं -रोगी, भोगी, व योगी। भागी व रोगी को सब जानते हैं कि क्यों व रात में जागते हैं। हमें योगी की पहचान करनी होगी। जो स्थितप्रज्ञ की स्थिति में रहता है सोते रहते हुए भी जागता है, जागरुक करता है जा महानिशा का ध्यान करके सोता है, हमेशा परमसत्ता में स्थिति में रहता है वही योगी है, परमपूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि हर लोकसेवी को थोड़ी देर के लिए महानिशा का -प्रलय की स्थिति का-जब सारा जग सो जाएगा, ध्यान अवश्य करना चाहिए।यह ध्यान रात्रि में सामान्यतः प्रथम पहर में किया जाता है। किंतु जल्दी सोने व उठने वाले इसे ब्रह्ममुहूर्त में संपन्न कर सकते हैं। इससे बड़ी शीघ्र स्थितप्रज्ञ की स्थिति सिद्ध होती है।

उपर्युक्त श्लोक यदि हम सूक्ष्म अर्थों में समझ लें तो ही हम स्थितप्रज्ञ विषय के साथ न्याय कर पाएँगे। स्थितप्रज्ञ की जीवन दृष्टि और अज्ञानी भोग -विलासियों की जीवन दृष्टि में बड़ा अंतर होता है। श्री विनोबा कहते हैं कि जैसे दो समानान्तर रेखाओं का कहीं कोई स्पर्श बिंदु ही नहीं होता, वैसी ही स्थिति इन दोनों की जीवन दृष्टियों की है। मीरा के अनुसार ‘उलट भई मोरे नयनन की’ जैसी स्थिति हो जाती है। संसार की ही दृष्टि उलटी है, किंतु बहुसंख्य व्यक्ति उसी को सही मानते हैं। यदि यह क्रम उलट दिया जाए, तो सही अर्थों में जिंदगी के शीर्षासन के रूप में अध्यात्म चरितार्थ हो जाता है। यही स्थितप्रज्ञ की स्थिति का वर्णन है।

उनहत्तरवें श्लोक में जो वर्णन है, वह शाब्दिक अर्थ में न होकर बड़े ही महत्वपूर्ण सूक्ष्मतम अर्थों में है। सामान्य व्यक्ति भोजन करता है उदरपूर्ति हेतु स्थितप्रज्ञ का भोजन एक यज्ञ है -वह आद्यशंकराचार्य के शब्दों में औषध रूप में आहार ग्रहण करता है। यहाँ भोगवृत्ति नहीं है। इसी प्रकार सामान्य व्यक्ति निद्रा में तो जाते हैं, पर उनकी एक -एक रात ज्ञानक्षय का कारण बन जाती है, जबकि स्थितप्रज्ञ की निद्रा निर्दोष प्रमाद मुक्त और निस्स्वप्न होती है। उसकी नींद में नए-नए विचारों को पोषण मिलता रहता है -नई कल्पनाएं आती है। यह नींद तमोगुणी नहीं, सतोगुणी है। स्थितप्रज्ञ का जीवन व्यवहार स्वाभाविक , सरल और खुलासा होता है जबकि सामान्य व्यक्ति का शिष्टाचार के नाम पर दंभ और बनावटी ढोंग से भरा हुआ।वस्तुतः इस श्लोक का भावार्थ यह है कि दूसरे लोग (सामान्यजन) फल के प्रति जागरुक रहते हैं और कर्त्तव्य के प्रति सोते रहते हैं किंतु स्थितप्रज्ञ केवल फल के प्रति सोता है और कर्त्तव्य के विषय में जाग्रत् रहता है।

इस अति महत्वपूर्ण द्वितीय अध्याय की समापन की स्थिति में अगला श्लोक और भी गहरे अर्थों वाला है। सत्तरवाँ श्लोक कहता है -

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठंसमुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। तद्वत्कामा यं प्रतिशन्ति सर्वे स शान्तिमापनोति न कामकामी॥

अर्थात् “जैसे नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परमशाँति को प्राप्त होता है, न कि भोगों को चाहने वाला।”

समुद्र में सारी नदियाँ समाती चली जाती है।, पर समुद्र सदैव शाँत बना रहता है। अशाँत तीव्र प्रवाह वाली नदियाँ आकर एक शाँत समुद्र में अपनी अंतिम नियति को प्राप्त होती हैं। समुद्र अचल है, परिपूर्ण प्रतिष्ठित है। ठीक इसी प्रकार की उपमा स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की भगवान् ने यहाँ दी है।बिना किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न किए, हलचल मचाए इंद्रियभोग जिस महापुरुष में जाकर समा जाएँ , उसमें कोई भी विकृति पैदा न कर पाएँ , ऐसा ही पुरुष पूर्ण पुरुष बन आत्मशाँति को प्राप्त होता है । क्या ऐसा व्यक्तित्व विकसित किया जा सकता है? हाँ यह परमपूज्य गुरुदेव के जीवन में हम देखते हैं। एक कथानक पूज्यवर सुनाते थे। वह यहाँ सटीक बैठता है।

अरुंधती को दुर्वासा ऋषि के पास भोजन प्रसाद लेकर जाना था तो वे अपने पति वशिष्ठ ऋषि के पास आई व बोलीं कि नदी तो प्रबल वेग से उफन रही है। हम कैसे जाएँ? ऋषि बोले -नदी के पास जाकर कहना कि यदि वशिष्ठ ऋषि ब्रह्मचारी हैं तो मुझे रास्ता दे दें। पशोपेश में पड़ गई अरुंधती। हमारे तो बच्चे हैं। हमारे पति ब्रह्मचारी कैसे हुए? फिर भी सोचा कि ऋषि की वाणी हैं मिथ्या, नहीं हो सकती।गई नदी से बोलीं, नदी ने मार्ग दे दिया।दुर्वासा ऋषि को भोजन करा दिया। पूछा अब मैं वापस कैसे जाऊँ। नदी तो पुनः उसी वेग से बह रही है। ऋषि बोले-जाओ नदी से कहना कि यदि दुर्वासा ऋषि निराहारी हो तो मुझे रास्ता दे दा। सोचने लगीं अरुंधती की अभी तो इतना भोजन किया है। निराहारी कैसे हुए? फिर भी चल पड़ी। नदी से बोली और मार्ग मिल गया। लौटने पर वशिष्ठ मुनि ने समझाया कि मर्म तुम समझी कि नहीं? हमारी इंद्रियाँ भोग में लिप्त नहीं हैं। अंतःकरण निर्मल है। देह-व्यापार चलता रहता है। अंतरात्मा अपन विशुद्ध रूप में बनी रहती है। इसलिए हमने अपन विषय में ब्रह्मचर्य पालन की बात कही थी। दुर्वासा इंद्रिय तृप्ति के लिए आहार लेते तो ग्रहण करने वाले कहलाते। ईश्वरीय चिंतन में लीन ऋषि -महापुरुषों को इंद्रियभोग नहीं व्यापते। जहाँ इंद्रियों को तृप्ति मिलती है, वहाँ आदमी के समुद्र में हलचल पैदा हो जाती है। आत्मारूपी समुद्र में हलचल पैदा हो जाती है। आत्मारूपी समुद्र में यदि कोई हलचल न पैदा हो, ऐसा व्यक्ति इंद्रियभोग करता हुआ दिखाई देकर भी वैसा होता नहीं है।

इस श्लोक में एक शब्द आया है’न कामकामी’ अर्थात् जो कामों के पीछे दौड़ता है, उसे शाँति प्राप्त नहीं होती - वह सतत् उद्विग्न विक्षुब्ध -तनावग्रस्त एवं रोगी ही बना रहता है। काम शब्द से यहाँ जो आशय है -वह बाह्य इंद्रिय सुख देने वाले उपभोग्य विषयों से है। यह एक प्रकार का विकार है, जो अधोपतन का कारण बनता है। कामना शब्द काम से भिन्न है, इसीलिए इस भलीभाँति समझ लेना चाहिए। स्थितप्रज्ञ के समीप विश्व के अनंत विषय आते रहते हैं- इंद्रियाँ के सभी स्रोतों से , परंतु समुद्र जिस तरह सारे पानी का अपने स्वरूप में ग्रहण कर आत्मसात् कर लेता है, उसी तरह स्थितप्रज्ञ सारे विषयभोगों को अपने स्वरूप में मिला लेता है।

उपर्युक्त कथानक इसी संदर्भ में था। अभी इस श्लोक की व्याख्या और विस्तार माँगती है। अतः स्थितप्रज्ञ पर समापन परक विवेचन व द्वितीय अध्याय के अंतिम श्लोकों की व्याख्या आगामी मार्च 2000 अंक में पढ़ें। (क्रमशः)


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