बचें चाय से , पिएँ प्रज्ञापेय

January 2000

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चाय ठंड के दिनों का प्रचलित गरम पेय है इसके सेवन से चुस्ती और स्फूर्ति आती एवं आलस्य दूर भागता है। यह सर्वसुलभ और सस्ती भी है। इसका प्रयोग प्रायः हर वर्ग और हर क्षेत्र के लोग करते देखे जाते हैं।

वर्तमान समय में स्वागत का यह सर्व सरल साधन है। जल के बाद आतिथ्य हेतु इसी का इस्तेमाल होता है। यों तो यह चीन देश का उत्पाद है, पर उसे पृथक कर पाना अब संभव नहीं।

भारत में इसका प्रचार और प्रचलन सर्वप्रथम अंग्रेजों ने किया। वे इंग्लैण्ड जैसे शीतप्रधान देश के निवासी थे। उन्हें चाय लेने की आदत-सी थी, इसलिए गरम देश होने के बावजूद उन्होंने यहाँ इसको बढ़ावा दिया।

किंतु कई कारणों से अब यह सुरक्षित नहीं रही।इनमें पहला है, इसमें विद्यमान लेड धातु की घातक मात्रा। हैदराबाद उपभोक्ता शोध संस्थान द्वारा की गई जाँच से ज्ञात हुआ है कि भारत में पाए जान वाले चाय के करीब 50 ब्राँडों में से कोई भी ऐसा नहीं है , जो पूर्णतः लेडरहित हो। ऐसा कदाचित हो भी नहीं सकता, कारण यह कि चाय के प्रसंस्करण के दौरान इसकी कुछ मात्रा डालनी आवश्यक होती है।शरीर में पहुँचकर यही नुकसान पहुँचाती है। यों तो यह मात्रा खाद्य सुरक्षा कानून द्वारा निर्धारित सीमा के अंतर्गत ही होती है, पर हाल के वर्षों में हुए शोधों में अब यह सीमा भी सुरक्षित नहीं रही। परीक्षणों से विदित हुआ है कि भारत में पाई जाने वाली विभिन्न किस्मों में एक भाग प्रति दस लाख से लेकर 1.5 भाग प्रति दस लाख तक लेड मौजूद होता है। जाँच के दौरान चाय के गोल दाने और पाउडर में इसकी सर्वाधिक मात्रा देखी गई। पंद्रह अन्य ब्राँडों में यह एक भाग से लेकर 4.2 भाग तथा दूसरे अठारह ब्राँडों में 2.8 भाग से 9.5 भाग प्रति दस लाख के हिसाब से पाई गई । इसके अतिरिक्त सात पत्तीदार किस्मों में कुछ नशीले तत्त्व भी वर्तमान थे। इनकी मात्रा 3 भाग से 4.8 भाग प्रति दस लाख थी। ब्रिटेन में लेड की स्वीकृत मात्रा 5 भाग प्रति दस लाख है।

वर्तमान अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि पिछले दिनों रक्त में लेड की जितनी मात्रा निरापद मानी जाती थी। अब वही स्तर घातक साबित हुआ हैं। ऐसी स्थिति में चाय जैसे लोकप्रिय और प्रचलित पेय में उसकी मान्य मात्रा पर पुनर्विचार की आवश्यकता है और उसे इतनी न्यून किए जाने की जरूरत है कि उसका अवाँछनीय प्रभाव शरीर पर न पड़े।

ऐसा पाया गया है कि लेड की बढ़ी हुई मात्रा से सर्वाधिक नुकसान गुर्दे, यकृत, श्वसन नलिका, स्नायुतंत्र, हृदय, रक्तवाहिनियों एवं आँतों को पहुँचता है। प्रातःकाल खाली पेट चाय के साथ जब यह खून में मिलता है तो इससे रक्त में लौह और कैल्शियम तत्त्वों की कमी हो जाती है। इसके कारण रक्त एवं अस्थि संबंधी तरह तरह के विकार पैदा हो सकते हैं। गर्भवती महिलाओं में यह प्लासेंटा को हानि पहुँचाती है।

इसके अतिरिक्त चायपत्ती में डी.डी.टी., टैनिन, कैफिन, नमी एवं दूसरी धातुओं की उपस्थिति की भी जाँच होती है। कीटों से सुरक्षा के लिए चाय के पौधों में डी.डी.टी का छिड़काव किया जाता है, जो पत्तियों द्वारा अवशोषित होकर उसमें धुल-मिल जाती है।वर्तमान समय में भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा इसकी निर्धारित सीमा 5 भाग प्रति दस लाख है। इसे भी घटाने की जरूरत है। टैनिन और कैफिन चाय के मौलिक तत्व हैं। टैनिन से चाय की खुशबू और रंग निश्चित होता है, किंतु इसकी मात्रा कितनी हो? इस संबंध में कोई नीति-निर्धारण नहीं है। इसी प्रकार कैफिन चाय के मौलिक तत्व है। टैनिन से चाय की खुशबू और रंग निश्चित होता है, किंतु इसकी मात्रा कितनी हो? इस संबंध में कोई नीति निर्धारण नहीं है। इसी प्रकार कैफिन की सीमा भी तय नहीं है, लेकिन ईराक आदि देशों में इसका मानक एक प्रतिशत तक निर्धारित है।

चाय का सिरमिक (चीनी मिट्टी) प्याला में रखकर पीने से उसमें लेड का प्रतिशत और अधिक बढ़ जाता है। तथा चाय विषाक्त हो जाती है। कारण यह कि प्यालों में चमक लाने के लिए लेड धातु की पालिश चढ़ाई जाती है, जो चाय गरम पेय के संपर्क में आकर घुलने लगती और चाय को विषैला बनाती है। अस्तु , अधिक निरापद यही है कि चाय अथवा दूसरे गरम पेय काँच या स्टील के कपों में पिए जाएँ।

चाय पत्ती में विद्यमान लेड धातु की हानियों से बचने के लिए उसका कोई उपयुक्त विकल्प हो सकता है। एक कप पानी में एक छोटी चुटकी पाउडर के साथ कुछ तुलसीपत्र एक-दो कालीमिर्च , थोड़ा अदरक एवं जराँकुश डालकर बनाया गया पेय स्वाद और सुगंध की दृष्टि से अति उत्तम है। अधिक पेय के लिए इसी अनुपात का इस्तेमाल करना चाहिए।

चाय एक उद्दीपक है। इसे लेने से सुस्ती मिटती और आलस्य घटता है किंतु साथ−साथ नींद और भूख भी कम लगने लगती है। अस्तु , इसके सेवन से जितना बचा जा सके बचना चाहिए।


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