महानता के बीज (kahani)

January 2000

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एक शेर ने कुछ सियारों के सहयोग से बारहसिंगा मारा। माँस के बँटवारे का निपटारा सिंह को ही करना था। उसने शिकार के टुकड़े किए। कहा- एक टुकड़ा राजवंश का कर। दूसरा टुकड़ा अधिक पुरुषार्थ करने से मेरा। तीसरा स्वयंवर जैसा है। उसे पाने के लिए जो प्रतिद्वंद्विता में आना चाहे, सो संघर्ष के लिए तैयार हो। सियार चुपचाप खिसक गए। सिंह ने पूरा बारहसिंगा खा डाला। शिक्षा यही है कि धूर्त के साथ सहयोग भी हितकारी नहीं होता। जहाँ तक हो, उससे बचना ही चाहिए।

राष्ट्रमंडलीय प्रधानमंत्रियों के सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री को लंदन जाना था। उनके पास कोट दो ही थे। उनमें से एक में काफी बड़ा छेद हो गया था। शास्त्रीजी के निजी सचिव श्री वेंकटरमण ने नया कोट सिलवाने का आग्रह किया, पर शास्त्री जी ने इनकार कर दिया। फिर भी वंकटरमण कपड़ा खरीद लाए और दरजी काबुलवालिच। जब कोट कानापलिचा जाने लगा तो शास्त्रीजी हँसे और बोले -”इस समय तो इसी पुराने कोट को पलटवा लो। नहीं ठीक जमा तो दूसरा सिलवालूँगा।”

जब कोट दरजी के यहाँ से आया तो कोट की मरम्मत का पता तक नहीं चला। तब शास्त्री ने कहा-”जब कोट की मरम्मत का पता हमें ही नहीं चल पा रहा है, तो सम्मेलन में गलन वाले भला क्या पहचानेंगे!”

और वे उसी कोट को पहनकर लंदन राष्ट्रमंडलीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए गए।ऐसी थी शास्त्रीजी की सादगी। यह वृत्ति राष्ट्र को अपना एक परिवार मानने व स्वयं को उसका एक अभिन्न अंग मानने के कारण विकसित होती है। क्षुद्र व्यक्ति इसे कृपणता समझ सकते हैं, पर सत्य यही है कि इस सादगी में अपव्यय की रोकथाम में ही महानता के बीज छिपे पड़े हैं।


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