बंधनमुक्त विज्ञान अध्यात्म के और निकट होगा

January 2000

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प्रकृति के दो स्तर हैं -एक ‘परा’ दूसरा ‘अपरा’। अपरा वह, जिसे पंचभौतिक कह सकते हैं अर्थात् इंद्रिय चेतना से जो अनुभूति की जा सकती है अथवा यंत्र-उपकरणों की सहायता से जो प्रत्यक्ष हो सकती है। भौतिक विज्ञान का कार्यक्षेत्र यहीं तक सीमित है। कुछ समय पूर्व तक वैज्ञानिक इतने को ही सब कुछ मानते थे और पराशक्ति अथवा ब्रह्माँडीय चेतना से इनकार करते थे।

किंतु अब जैसे-जैसे उसकी गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती जा रही है, वे इस बात को परोक्ष रूप से स्वीकार करते जा रहे हैं कि पदार्थ की परा-प्रकृति जैसी कोई सत्ता अवश्य है। यह सत्ता आणविक गतिविधियाँ नहीं कही जा सकती, न ही ताप, प्रकाश शब्द जैसे कंपनों से इसकी तुलना की जा सकती है। वह इनसे कुछ और भिन्न एवं सूक्ष्म है। अध्यात्म -विज्ञान में इसे ही ‘समष्टि चेतना’ या ‘समष्टि मस्तिष्क’ नाम दिया गया है। विज्ञान कहता है कि जो विद्युत से यह अंतरिक्ष भरा पड़ा है। बरसात के दिनों में हम उसी को चकाचौंध के रूप में देखते और गर्जन -तर्जन के रूप में सुनते हैं। बल्ब की रोशनी तो उसकी एक चिनगारी मात्र है। दोनों में याँत्रिक और प्रकृतिगत आधार भूत भिन्नता होने पर भी परस्पर सघन संबंध है - इस तथ्य को वैज्ञानिक अब दबी जुबान से स्वीकार करने लगे हैं।अध्यात्म में इसी के अनुरूप व्यष्टि और समष्टि मन की सत्ता को स्वीकार किया गया है। व्यक्तिगत मस्तिष्क की अपनी सत्ता और क्षमता है, किंतु वह सर्वथा स्वतंत्र नहीं है, वरन् समष्टि मस्तिष्क का एक अंग है, जिसे इन दिनों वैज्ञानिक क्षेत्र में ‘ब्रह्माँडीय चेतना’ नाम दिया गया है। व्यक्ति समाज का एक अविच्छिन्न अंग है। एकाकी रहने लगे, तो भी वह समष्टि से पृथक होने का दावा नहीं कर सकता । उसे अब तक जो ज्ञान अनुभव संस्कार कौशल आदि मिला है, शरीर पोषण हुआ है, वह सब समाज का ही अनुदान है। एकी निर्वाह में भी आखिर कुछ उपकरण तो साथ रखे ही गए हैं। माला आसन , अधोवस्त्र जैसे साधनों के बिना तो गुफा में रहने वाले भी काम नहीं चला पाते। अग्नि का आविष्कार किसी एकाकी व्यक्ति ने स्वयं नहीं किया है, उसमें भी अदृश्य की स्फुरणा का ही प्रमुख हाथ रहा है। इस प्रकार एकांतवासी कहलाने वाले के भूतकालीन और वर्तमान क्रियाकलाप समाज-संबद्ध रहे। आगे भी अंतरिक्ष में चलने वाले असंख्य व्यक्तियों की असंख्य विचार तरंगें अप्रत्यक्ष रूप से उसे प्रभावित करेंगी और वह स्वयं दूसरों को भी अपनी मनः तरंगों से प्रभावित करेगा। यह भी सामाजिक आदान-प्रदान हुआ। व्यक्ति का शरीर निर्वाह एवं विकास पर आश्रित है आर अविच्छिन्न रूप से संबद्ध है। ठीक इसी प्रकार व्यक्ति -मस्तिष्क स्वतंत्र दिखने पर भी वह समष्टि मस्तिष्क का एक अंग है।

‘सामूहिक मस्तिष्क’ के आस्तित्व आर उसक व्यक्तिगत मस्तिष्क’ के साथ आदान प्रदान की बात अब दिन -दिन अधिक स्पष्ट होती और अधिक प्रामाणिक बनती चली जा रही है। प्रसिद्ध अँगरेज भौतिकीविद् पॉल डेविस अपनी पुस्तक ‘सुपरफोर्स ‘ में लिखते हैं कि जब कोई व्यक्ति किसी संकटग्रस्त के पास किसी अज्ञात प्रेरणा से खिंचा चला जाता है तो यह स्वीकार करने के लिए विवश होना ही पड़ता है कि दोनों व्यक्तियों के बीच संपर्क जोड़ने वाला कोई सूक्ष्म स्तर का सशक्त माध्यम अवश्य है। इसी बात का और अधिक स्पष्ट करते हुए एच. मोरोविज अपने ग्रंथ ‘ अदर वर्ल्ड्स’ में लिखते हैं कि प्रत्यक्ष इंद्रियगम्य जगत् वह है जिसे हम आँखों से देखते हैं, पर उसकी सामर्थ्य उन अनेकानेक इंद्रियातीत लोकों की तुलना में अति न्यून है, जा हमें दिखाई नहीं पड़ते। वे कहते हैं कि उनके अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि हमारा भौतिक विज्ञान लगातार उन उन स्तरों की ओर अग्रसर होता चला जा रहा है। और हम शनैः-शनैः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर लोकों से अधिकाधिक संबद्ध होते जा रहे हैं। उनके अनुसार पाषाणकाल में आदिमानवों ने प्रस्तर के जो हथियार विकसित किए, उसमें उनकी ही बुद्धिमत्ता का हाथ था, ऐसी बात नहीं है। वह तो उपकरण मात्र थी । उसे चलाने वाली चेतना और दिशा देने वाली प्रेरणा तो अदृश्य की ही थी। विकास के क्रम में मनुष्य जैसे-जैसे सभ्य, सुशिक्षित और बुद्धिमान बनता गया, वैसे-वैसे उसका संपर्क अधिकाधिक सूक्ष्मलोकों से होता चला गया। वहाँ से उसे अधिक उन्नत व विकसित स्तर की पदार्थपरक प्रेरणाएँ मिलती चली गई। इस प्रकार विज्ञान का विकास पदार्थ की सूक्ष्मता की ओर चलता चला गया। इस क्रम में आज वह इस स्थिति में पहुँच गया है, जहाँ उसने चारों भौतिक शक्तियों (स्ट्राँग न्यूक्लियर फोर्स, वीक न्यूक्लियर फोर्स ) को एक सूत्र में पिरोकर समग्र (ग्राँड यूनिफिकेशन ऑफ फोर्सेज) बना दिया और कहा कि अति आरंभकाल मं सारी शक्तियाँ में शक्तियाँ एक थी। वे लिखते हैं कि पाँच दशक पूर्व यह विचार किसी के मस्तिष्क में नहीं उठा, क्योंकि तब हमारा वैज्ञानिक विकास उस स्तर का नहीं था कि आगे के विकास के लिए किसी अन्य स्तर का नहीं था कि आगे के विकास के लिए किसी अन्य उन्नत लोक ही प्रेरणा मिले। उनके अनुसार एक लोक की भूमिका से हमारी चिंतनशक्ति , ज्ञान और बुद्धि के ऊपर उठ जाने पर ही आगे के लोक से आगे की उन्नति के लिए संपर्क स्थापित हो पाता है। यदि बात ऐसी नहीं होती तो दुनिया में क्रमिक और क्रमबद्ध विकास के स्थान पर छलाँगने जैसी प्रक्रिया दिखलाई पड़ती, जो न केवल अनबूझ होती वरन् अनुपयोगी भी।

एक समय था, जब परमाणु को पदार्थ का सबसे छोटा कण माना जाता था और उस आधार पर उसका नाम ‘एटम’ रख दिया गया अर्थात् जो और आगे अविभाज्य हो। तब इसी को सत्य मानकर सारे अन्वेषण और अनुसंधान किए गए। जब इस स्तर का संपूर्ण वैज्ञानिक विकास हो चुका तो आगे की प्रेरणा मिली और इलेक्ट्रॉन, प्रोट्रान, न्यूट्रान एवं अन्य अनेकानेक मूल कणों की खोजें हुई। इस प्रकार भविष्य में बढ़ते बढ़ते विज्ञान यदि पदार्थसत्ता से परे उस क्षेत्र में -परोक्ष जगत् के केंद्र में प्रविष्ट हो जाए, जहाँ से हर प्रकार के सूक्ष्म संकेत आते हैं तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। जिस दिन यह संभव हुआ, उसके आगे यह सिद्ध करने की तनिक भी आवश्यकता न रहेगी कि स्थूल जगत् सूक्ष्म की ही प्रकाश प्रेरणा है।

स्पष्ट है - चेतना मन की बुद्धि , क्षमता का अपना महत्व है, पर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण अचेतन की सामर्थ्य है। चेतन मन तो उसके आगे सागर के समक्ष बूँद जैसा है। इसी प्रकार अंतरिक्ष में मनुष्यों के छोड़े हुए विचार और उनके आदान-प्रदान की जानकारी भी ऐसी ही उथली और कम महत्त्व की समझी जाने लगी है तथा रहस्यमय उस प्रवाह का माना जान लगा है, जो समष्टि की अचेतन चेतना से संबद्ध है। मानवी चेतना मोटेतौर से शरीर निर्वाह एवं अहंता की तुष्टि तथा विस्तृति में संलग्न हलचल मात्र दृष्टिगोचर होती है। उसका प्रयोजन शरीर को सुखी तथा सक्रिय बनाए रखना भर होता है। लगता है, शरीर मुख्य है और उसकी तृप्ति तुष्टि सुरक्षा एवं प्रगति के लिए सरंजाम जुटाने भर के लिए उसका सृजन एवं उदय हुआ है उपयोग भी इसी स्तर पर होता है। मस्तिष्क का शरीर सुख के लिए जितना अधिक उपयोग हो सके। उतनी ही सफलता एवं सार्थकता मानी जाती है।

गहराई में उतरने पर बात कुछ दूसरी ही दृष्टिगोचर होती है। मस्तिष्क चेतना के निवास का केंद्रीय शक्ति संस्थान है। यहाँ ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ जीवचेतना का मिलन संगम होते हैं और इस आदान -प्रदान के आधार पर प्राणि जगत् को अनेकानेक सुविधाएँ एवं संवेदनाएँ उपलब्ध होती है। यह मस्तिष्कीय केन्द्र इतना अधिक शक्तिशाली है कि इसके माध्यम से पिंड और ब्रह्माण्ड की एकता का अनुभव एवं लाभ आश्चर्यजनक मात्रा में उपलब्ध किया जा सकता है।

योग-साधनाओं में यही किया जाता है। उसका प्रयोजन अपनी मसीमता को असीमता के साथ जोड़ देना है। इस उद्देश्य में जितनी सफलता मिलती जाती है उतनी ही मात्रा में मनुष्य उस वैभव पर आधिपत्य जमाता जाता है, जिसके प्रभाव को हम जड़ चेतन जगत् में अपने चारों और फैला हुआ देखते हैं। सीमाबद्ध स्थिति में हम तुच्छ और दरिद्र होते हैं, पर असीम के साथ जुड़ जाने में-महानता प्राप्त करने में कोई कमी नहीं रहती। अध्यात्म इसी प्रयोजन की पूर्ति करता है। जबकि विज्ञान अब भी अपनी ससीमता के बंधन से मुक्त नहीं हो पाया है। आइंस्टीन ने एक बार कहा था कि जिस दिन विज्ञान इस बंधन को तोड़ लेगा तो फिर वह विज्ञान न रहकर अध्यात्म -तत्वज्ञान -बन जाएगा। बनना भी चाहिए, क्योंकि दोनों अपने-अपने ढंग से एक ही सत्य के शोध में लगे हुए हैं। उनका उद्देश्य और लक्ष्य भी समान होना चाहिए।


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