गूँगे का गुड़ बन गई , यह अनुभूति

January 2000

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पिछले दिनों प्रवास पर जोधपुर -राजस्थान के प्राँतीय सम्मेलन के दौरान जाना हुआ ।कुछ ऐसी अनुभूतियाँ हुई कि मन किया कि सभी को इसमें भागीदार बनाया जाए।सभी जान सकें कि किस विराट महापुरुषार्थ में कितनी बड़ी चैतन्य सत्ता के साथ हम सभी जुड़े हैं। बात बात में पारस्परिक चर्चा के दौरान डूँगरपुर-बाँसवाड़ा के परिजन बोल उठे कि भाई साहब ! आप कभी हमारे क्षेत्र में तो आइए। आदिवासियों का बाहुल्य है जिस क्षेत्र में एवं जहाँ जंगल जंगल घूमकर एक महाराणा ने राष्ट्र को समर्पित गिरिवासियों के स्नेह से मेवाड़ का शासन चलाया आपको जरूर आना चाहिए। उदयपुर से लगा सिरोही से लेकर सलुँबर-बाँसवाड़ा डूँगरपुर -भीलवाड़ा प्रतापगढ़ का क्षेत्र आदिवासी बहुल क्षेत्र है। हमने और कुरेदा परिजनों से उस क्षेत्र के बारे में विस्तार से जानकारी लेने का प्रयास किया, तो कई ऐसी चीजें पता लगीं कि रोम रोम हर्षित हो उठा। पाठकों का भी बताने का मन है।

उदयपुर के ग्रामीण क्षेत्र में आसपुर -डूँगरपुर क्षेत्र में अपने गायत्री परिवार ने पिछले दिनों बड़े विराट् स्तर पर कार्य किया है। प्रतापगढ़ के खराड़ी जी एवं रामसमंद शक्तिपीठ के परिजनों ने जन-जन तक जाकर वहाँ संदेश पहुँचाया है। आदिवासी समुदाय के मीणा समाज में माव जी महाराज की बड़ी प्रतिष्ठा है । उनकी गद्दी बेणेश्वर धाम में आज भी विद्यमान है, जिसमें स्वामी अच्युतानंद जी विराजते हैं। सफेद पहनने वाले संत समुदाय के ये सभी लाग गायत्री परिवार के कार्यों में पूरी भागीदारी करते हैं। कारण वे बताते हैं कि आज से साढ़े तीन सौ वर्ष पहले अवतरित हुए माव जी महाराज न वेणेश्वर धाम में गायत्री मंत्र के जप से ही सिद्धि पाई। उस अवधि में वे सभी कुछ वे बातें बता गए, जो आज गायत्री परिवार वाले कर रहे हैं या उनके गुरुजी द्वारा की जा चुकी हैं- कहीं जा चुकी हैं। निष्कलंक दशावतार का एक अंश भी माव जी महाराज को माना जाता है। स्थानीय आदिवासी बोली में वे जो कुछ भी काव्य में लिख गए, वह हम अर्थ सहित अगले अंकोँ में प्रकाशित करेंगे। यहाँ हम कुछ अंश ही दे रहे हैं। जिससे परिजन अपने मिशन के माहात्म्य को समझ सकें।

श्रंदाजति समारोह के बाद से ही ज्यों ज्यों आश्वमेधिक प्रयाज्ञों का क्रम चला- हमारे परिजन रजवंदन यात्राओं पर सुदूर गाँवों में पहुँचे। जब उन्होंने ढपली पर गीत प्रस्तुत किए, कलश यात्राएँ निकाली व दीपयज्ञ किए तो आदिवासी समाज की इस सिद्धपीठ के महात्माओं न विस्तार से गायत्री परिवार की गतिविधियों के बारे में पूछा। परमपूज्य गुरुदेव परमवंदनीया माता जी व विराट् गायत्री परिवार के बारे में जानकर वे हर्षोन्मत्त हो उठे व उन्होंने कहा कि हमारे महाराज जी का कथन सत्य होने जा रहा है कि पूर्ण निष्कलंक अवतार के प्रकटीकरण के साथ साथ सतयुग के आगमन की वेला आ पहुँचेगी। हमारे कार्यकर्त्ताओं ने कुछ विस्तार से जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि हमारे महाराज पत्तों पर कूँची से स्केच बनाकर हमें इस जमाने के बारे में बता गए थे कि हवा में चीलें उड़ेगी, बड़े बड़े भवन बनेंगे। आज हवाईजहाज एक देश से दूसरे देश जा रहे हैं व बड़े बड़े भवन बन रहे हैं तो उनका कथन सही हो रहा है। विश्वयुद्ध की विभीषिका का वर्णन भी व लिखकर गए हैं। फिर उन्होंने कहा है कि आसपुर के इस पवित्र नदियों के संगम पर एक कुँआरी देवी का मन्दिर बनेगा, सूर्य की साधना करने वाले -स्थान स्थान पर दीपक जलाकर आहुति देने वाले आएँगे व तब समझ लेना कि नया युग आ गया है। मसीहा आ गया है। परमपूज्य गुरुदेव का चित्र व माथे का चंद्रमा देखते ही उन्होंने कहा कि यही कुछ तो हमें हमारे गुरुदेव भी बता गए है कि ऐसे महापुरुष आएँगे। यों स्पष्ट नहीं लग रहा था किंतु अब, जब आपका आसपुर में शक्तिपीठ बना व वहाँ गायत्री स्तवन के पाठ के साथ साथ दीपयज्ञ हुआ, हमारा विश्वास सुनिश्चित हो गया कि पूर्ण निष्कलंक प्रज्ञावतार के प्रकटीकरण की वेला आ पहुँची है।

माव जी महाराज के शिष्य गण बताते हैं कि डुली बजाते, घर घर शंखनाद करते , संस्कृति का अलख जगाते धर्मप्रेमी सारे भारत का सारे विश्व का नेता बनाएँगे, ऐसा हमारे गुरुजन गद्दी की परंपरा में बताते आए है। अब आपसे सब सुनकर -देखकर विश्वास हो गया कि महाराणा प्रताप के वंशधर उनके संगी सहयोगी के रूप में जन्में हम सभी व आप सभी एक ही अवतारी चेतना के अंश हैं आपके हर कार्य में हमारा सहयोग सहकार है।

नोस्ट्राडेमस हमें फ्राँस से बैठा बताता है तो हम विश्वास करते हैं। हमारे आदिवासी समाज में बैठा एक सिद्धसंत यदि हमें बताता है तो हमें विश्वास नहीं होता भले ही वह सब स्थानीय भाषा में हो-माव जी महाराज के शिष्यगण जो विगत साढ़े तीन सौ चार सौ वर्ष पूर्व से उनकी मान्यताओं को जन-जन तक पहुँचाते रहे हैं अब पूरा विश्वास करते हैं कि यही निष्कलंक प्रज्ञावतार के पूर्व रूप में - विचारधारा के जन-जन तक पहुँचाने के रूप में प्रकट होने की वेला है। परमपूज्य गुरुदेव द्वारा सेधवा के साली कलाके डेमण्याभील को पीपल के पत्ते पर अपना एवं माँ गायत्री शक्तिपीठ स्थापित होने पर गुरुसत्ता द्वारा दस मील पैदल जाकर प्राण प्रतिष्ठा करने का वृत्ताँत हम सभी को याद है। हमें स्मरण है केन्या -ताँजानिया सीमा पर मसाई कबीले के अफ्रीकी आदिवासियों से उनकी उन्हीं की भाषा में प्रेमभरी वार्ता । इतने सब स्पष्ट चिह्न देखकर भी हम गुरुसत्ता को , जिसने समाज के सबसे पिछड़े वर्ग को अपना दिग्दर्शन करा दिया, पहचान क्यों नहीं पाते, क्यों वह अहसास नहीं जगा पाते?


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