विवेकानन्द जयपुर के पास एक छोटी रियासत में मेहमान थे। जिस दिन विदा हो रहे थे उस दिन वहाँ के जागीरदार ने उनके विदाई समारोह में नाच गाने का कार्यक्रम रखवा दिया। एक वेश्या भी बुलाई गई। विवेकानन्द को मालूम पड़ा तो वे बड़े हैरान और गुस्से में भर कर तम्बू में बैठे रहे। किन्तु समारोह में बुलाने पर भी नहीं गये। वेश्या को ज्ञात हुआ कि स्वामी जी नहीं पधारे तो वह बड़ी दुखी हुई और उसने भजन गाया।
“एक लोहा पूजा में राखत-एक घर बधिक परयो, पारस गुन अवगुन नहिं चितवत कंचन करत खरो।
प्रभू जी मेरे अवगुन चितनधरो।”
अब तो विवेकानन्द और सचेत हुए। सोचने लगे। यदि मुझे पारस समझा जा रहा है। तब निश्चय ही मुझे भेद अभेद किये बिना समारोह में जाना चाहिए और समारोह में गये। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा कि उस दिन मुझे लगा कि आज वास्तविक संन्यास का जन्म हुआ है। क्योंकि वेश्या को देखकर मेरे मन में कोई आकर्षण, विकर्षण नहीं था। मेरा करुणाभाव ही जाग्रत हुआ उसे देखकर। बुरा पाप होता है, पापी नहीं।