उपासना सफल और सार्थक कैसे बने?

January 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मंत्र उपासना के पीछे एक बहुत बड़ा मनोविज्ञान काम करता है। आज लोग उस विज्ञान को न समझ पाने के कारण ही उसकी उपेक्षा करते हैं अथवा सतही व्यक्ति की तरह उपासना पद्धति बदलने या एक मंत्र छोड़कर दूसरे को अपना लेने में विश्वास रखते हैं। जिन लोगों में इस प्रकार की प्रवृत्ति पायी जाती है, उनके संबंध में इतना ही कहना पर्याप्त है कि सिद्धान्तों को न समझ पाने की स्थिति में औंधे-सीधे कर्मकाँडों की विडम्बना रच कर फल की आशा करना दुराशा मात्र ही है ऐसे ही लोग सर्वथा खाली हाथ रहते और मंत्रों को मिथ्या-झूठा कह कर इन्हें भोले-भावुकों के मन का भ्रम बताने का प्रपंच करते हैं।

जिन्हें मनोविज्ञान का तनिक भी ज्ञान है, वे जानते हैं कि मन का शरीर पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। मन जिस प्रकार के भावों और विचारों में संलग्न रहता है, शरीर पर वैसे ही परिणाम थोड़े ही दिनों में परिलक्षित होने लगते हैं, आरोग्य शास्त्र के मनःकायिक रोग इसी सिद्धान्त पर आधारित हैं। सर्वविदित तथ्य यह भी है कि इन्द्रियों में ‘मन’ सर्वाधिक चलायमान है। वह कभी स्थिर नहीं रहता। अभी यहाँ तो दूसरे ही पल वहाँ हिरनों जैसी कुलांचे भरता रहता है। इसीलिए उसे ग्यारहवीं इन्द्रिय का नाम दिया गया है। उसकी गति को रोक पाना संभव नहीं। जिस प्रकार साइकिल सवार अपनी साइकिल को किसी एक स्थान पर बिल्कुल रोके रह कर गतिहीनता की स्थिति नहीं प्राप्त कर सकता, उसी प्रकार मन को पूर्णतः गतिशून्य नहीं बनाया जा सकता, किन्तु साइकिल को दूसरी दिशा में मोड़ कर उसकी गति को बनाये रखा जा सकता है, वैसे ही मन की दिशा मोड़ देना सर्वथा असंभव नहीं है। उपासना उपक्रमों द्वारा इसी कार्य की लक्ष्य-सिद्धि की जाती है। उसे अनावश्यक और अनुपयोगी धींगामुश्ती से हटा कर किसी उपयोगी कार्य में व्यस्त कर दिया जाता है। इस क्रिया को किसी मंत्र का अवलम्बन ले कर उपासना के माध्यम से सम्पन्न किया जाता है। इससे साधक का शरीर-मन न सिर्फ भावना के अनुरूप बनने ढलने लगता है, वरन् उसकी आत्मिक उन्नति भी सहज संभव हो जाती है। इसी बात का समर्थन करते हुए प्राकृतिक चिकित्सा के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. हेनरी लिंडलहर अपनी पुस्तक “प्रैक्टिस ऑफ नेचुरल थेराप्यूटिक्स” में लिखते हैं कि मनोभावों में इतनी सामर्थ्य है कि उनके द्वारा कोई रोगी स्वयं को पूर्ण स्वस्थ बना सकता है, एवं कोई स्वस्थ व्यक्ति विकृत विचार आरोपण व निषेधात्मक चिन्तन द्वारा अपने को अशक्त असमर्थ तथा रुग्ण बना लेता है। वे कहते हैं कि यह सब चिन्तन व दृष्टिकोण के भले-बुरे प्रभाव की क्षमता है। इसी संदर्भ में वे आगे लिखते हैं कि संभवतः इसी कारण से भारतीय संस्कृति में प्रतीकोपासना पद्धति का विधान बनाया गया है और उसके माध्यम से श्रेष्ठ व उत्कृष्ट चिन्तन द्वारा न सिर्फ शारीरिक-मानसिक बीमारियों से मुक्ति पायी जाती है, वरन् उस काल में साधक की भावना इष्टदेव में समाये गुणों के अनुरूप उच्चस्तरीय होने के कारण उसमें कालान्तर में वैसे ही लक्षण उभरने और मूर्तिमान होने लगते हैं।

इस बात को न सिर्फ आधुनिक मनोविज्ञान स्वीकारता है, अपितु हमारे धार्मिक और आर्षग्रन्थों में भी यत्र-यत्र इसकी पुष्टि की गई है कि भावनाओं का प्रभाव सुनिश्चित है। इस संबंध में गीताकार का कथन है-

श्रद्धामयोऽयं पुरुषों या यच्छ्रद्ध स एव एः (17/3) अर्थात् जो जैसे श्रद्धा करता है, वैसा ही बनता चला जाता है। अन्यत्र उल्लेख मिलता है-

‘यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी’ अर्थात् जैसी जिसकी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि होती है।

रामायण की उक्ति है

‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी’

भावनाओं के अनुरूप अनुभूति होने के अनेकानेक उदाहरण भी देखे जाते हैं। थूलेस ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ “साइकोलॉजी ऑफ रिलीजन” में इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण व रोचक उदाहरण प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं कि सेण्ट कैथेराइन एक विशेष अवसर पर, जबकि प्रभु ईशु को क्रास पर कीलों से जकड़ा गया था, बिल्कुल उसी प्रकार की पीड़ा की अनुभूति करती थी, जिस प्रकार शरीर में कील ठोकने से होती है। इस अवधि में उनकी देख-भाल के लिए सदा एक चिकित्सक उपस्थित रहता था। उसका कहना था कि कैथेराइन की पीड़ा बिल्कुल वास्तविक थी। उसमें बनावटीपन लेश मात्र भी नहीं था। मीरा जब कृष्णा प्रेम में डूब जाती थी, तो वह इष्ट रूप ही बन जाती थी और सर्वत्र श्रीकृष्ण नजर आने लगते थे। रामकृष्ण परमहंस के बारे में कहा जाता है कि दक्षिणेश्वर में गंगा में नाव पर सवार नाविकों में आपस में जब लड़ाई हो गई और एक ने दूसरे के गाल पर जोर का थप्पड़ मारा तो उसकी अनुभूति न सिर्फ उस नाविक तक सीमित रही, वरन् रामकृष्ण ने भी उस पीड़ा को अनुभव किया और एकबारगी तिलमिला उठे। इतना ही नहीं, गाल पर थप्पड़ के स्पष्ट निशान उभर आये।

यह सब भावना के अनुरूप अनुभूति के उद्धरण हैं। इसमें मन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह जैसा चिन्तन करता है, शरीर को वैसा आभास होने लगता है। यह एक मनोवैज्ञानिक सच्चाई है। इसी कारण से आज के तथाकथित सुखी-सम्पन्न लोग ऊपरी तौर पर सुविधा-साधनों से युक्त और सुखी जान पड़ने पर भी वास्तव में उनका आन्तरिक जीवन अत्यन्त क्लेशमय होता है। दिन का चैन और रात की नींद एकदम गायब होती है। इसका एकमात्र कारण मन का असंतोष व भटकाव है। यदि बात ऐसी नहीं होती तो नितान्त साधनहीन स्थिति में पहाड़-पर्वतों कन्दराओं-गुफाओं जैसे निर्जन स्थलों में रहने वाले योगी-यती ही सबसे अधिक दुःखी दिखाई पड़ते, पर व्यावहारिक जीवन में ऐसा होता कहाँ दीखता है? यह इस बात का प्रमाण है कि मन ही वह तत्व है, जो हमें सम्पन्नता में भी विपन्न और साधनहीनता में सम्पन्न होने का एहसास करता है। यदि उसकी अनगढ़ता को सुगढ़ बना लिया जाय, तो कोई कारण नहीं कि हम सर्वथा साधनहीन स्थिति में बने रह कर भी सुख की प्रतीति न कर सकें। इसी मत का समर्थन करते हुए बरट्रैण्ड रसेल अपनी कृति “काँक्वेस्ट ऑफ हैपीनेस” में लिखते हैं कि अड़ियल घोड़े की तरह मन को यदि साधा और सुधार लिया जाय, तो हर व्यक्ति सुखी बन सकता है, पर दुर्भाग्य यह है कि वर्तमान सभ्यता और संस्कृति ने उसे अनगढ़ ही बनाया है, फलस्वरूप साधन-सुविधाओं की भरमार के बावजूद आज सर्वत्र दुःख-दर्द ही दिखाई पड़ते हैं और मनुष्य इनकी विकल वेदना से तड़फड़ाता नजर आता है। इसी बात की डॉ. राधाकमल मुकर्जी ने अपनी रचना “सिकनेस ऑफ सिविलाइजेशन” में और विस्तारपूर्वक व्याख्या की है। वे लिखते हैं कि वर्तमान बुद्धिवाद ने जहाँ मनुष्य को चतुर-चालाक बनाया, भौतिक सम्पन्नता से ओत-प्रोत किया है, वहीं उसे आध्यात्मिक दृष्टि से खोखला एवं आन्तरिक रूप से बौना बना दिया है। इसी का परिणाम आज अशान्ति और असंतोष के रूप में चहुं-ओर दृष्टिगोचर हो रहा है। उनका कथन है कि मूर्धन्य मनोविज्ञानी फ्रायड ने मनुष्य को इस दुर्गति से उबरने का कोई उपाय-उपचार तो सुझाया नहीं, उल्टे उसे विकसित सभ्यता की परिणति और मनुष्य की नियति बता कर संतोष कर लिया। वे लिखते हैं कि निश्चय ही समाज की वर्तमान दुरवस्था भौतिकवाद की देन है, पर साथ ही फ्रायड की निराशावादी मान्यता का खंडन करते हुए कहते हैं कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि प्रस्तुत विपत्ति से उबरने का कोई मार्ग ही न हो। वे स्वयं सगुण ब्रह्म के अच्छे उपासक रहे हैं। इस नाते उपासना-साधना को वर्तमान दलदल से सुरक्षित बच निकलने का सर्वोत्तम और सर्वोपरि हल बताते हैं। उनके अनुसार हर व्यक्ति में वह तत्व विद्यमान है, जिसे यदि प्रयासपूर्वक उभारा जा सके, तो न सिर्फ कर्ता आनन्द की गंगोत्री में अहर्निशि निमज्जन करता रह सकेगा, वरन् संपर्क में आने वाले अन्य अनेकों को इससे लाभान्वित कर सकेगा।

वैसे तो मनोविज्ञान मन से संबंधित विज्ञान होने के नाते सुख की खोज कहाँ और कैसे की जाय, इसका अनुसंधान करने की इसमें पूरी-पूरी गुंजाइश है, पर अब तक ऐसे कम ही मनोवैज्ञानिक हुए हैं, जिनने इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार किया और कुछ सारगर्भित तथ्य दिया हो। इन्हीं में एक हैं-विलियम जेम्स। इनने आनन्द की प्राप्ति व्यक्तिगत जीवन में कैसे की जाय, इस संबंध में एक मौलिक बात कही है, जो निश्चय ही विचारणीय है। अपनी बात को सूत्र के माध्यम से उन्होंने निम्न रूप में अभिव्यक्त किया है-

आनन्द = लाभ / तृष्णा

उपरोक्त सूत्र के अनुसार यदि किसी व्यक्ति का किसी क्षेत्र में लाभ अधिक हो और आशा (तृष्णा) कम हो, तो उसे आनन्द की अधिक अनुभूति होगी। इसी प्रकार उसकी तृष्णा अधिक और लाभ कम हो तो आनन्द भी कम मिलेगा। हम सुख की वृद्धि आशा को घटा कर अथवा लाभ को बढ़ा कर कर सकते हैं। यदि लाभ को इतना कम किया जा सके कि उसका मान शून्य जितना हो जाय, तो हमारी सुखानुभूति शून्य हो जायेगी, किन्तु यदि लाभ को यथावत् रखते हुए तृष्णा को शून्य कर दिया जाय, तो हमारा आनन्द अक्षुण्ण - अपरिमित ब्रह्मानन्द बन जायेगा। यद्यपि विलियम जेम्स महोदय स्वयं उपरोक्त निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके, किन्तु उनके द्वारा बताये गये मनोवैज्ञानिक सूत्र में गणित विज्ञान का पुट देते हुए हम इस निर्णय पर आसानी से पहुँच सकते हैं कि तृष्णा को घटा मिटा कर ही असंतोष का आत्यन्तिक हल ‘आनन्द’ प्राप्त किया जा सकता है। इस संबंध में गीता का भी यही कथन है-”संतुष्टो येन केनचित्” अर्थात् जो कुछ मिल जाय, उसी में संतोष कर लेने से ही अक्षय सुख की प्राप्ति संभव है।

यहाँ प्रश्न यह उठ खड़ा होता है कि तृष्णा को शून्य में कैसे परिवर्तित किया जाय अथवा स्वल्प में संतुष्टि कैसे मिले? उत्तर एक ही दिया जा सकता है-अभ्यास। इसके द्वारा तृष्णा की शून्यता प्राप्त करना संभव है। उपासना-विज्ञान के पीछे यही रहस्य छिपा है। इसके माध्यम से मन को किसी एक मंत्र के पीछे लगा कर उसे साधने और शोधने का प्रयास किया जाता है। सवाल पुनः प्रश्नचिह्न बन कर सामने आता है कि क्या ऐसा संभव है? जवाब सर्वथा “हाँ” में दिया जा सकता है। गीता भी यही कहती है-

“अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहयते।”

शंका एकबार पुनः सिर उठाती और पूछती है कि अभ्यास के उपरोक्त आध्यात्मिक सत्य का कोई मनोवैज्ञानिक आधार भी है? इस संबंध में यही कहा जा सकता है कि जब शेर जैसे हिंस्र और जंगली जन्तु को अभ्यास द्वारा अहिंसक व हाथी को पालतू बनाया जा सकता है, तो कोई कारण नहीं कि सुख-दुःख के कारणभूत चंचल मन को अभ्यास द्वारा नियमित-नियंत्रित नहीं किया जा सके। देखा जा सके। देखा गया है कि वर्षों से पिंजड़े में बन्द पक्षी का दरवाजा खोज देने पर भी वह उसी में रहना पसंद करता है, उससे भागता नहीं। वह कैद में ही आनन्द अनुभव करने लगता है? जंगल में रहने वाले आदिवासी-वनवासियों को कभी यह भय नहीं सताता कि उन पर किसी हिंसक जन्तु का आक्रमण होने वाला है। मौत के बीच जीने वाले वायुयान चालकों व जीवित ज्वालामुखियों के आस-पास रहने वाले लोगों में भी ऐसी ही निर्भयता दिखाई पड़ती है। वे कभी इस बात की कोई चिन्ता नहीं करते कि उनका जीवन कब समाप्त हो जायेगा, यह सब अभ्यास से सीखा जाता है।

योगीजन कठिन अभ्यास द्वारा अपने मन को ऐसा बना लेते हैं कि निन्दा-स्तुति, भाव-अभाव में सदा समस्वर बने रहते हैं। उन पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । अभ्यास द्वारा वे अपने कुसंस्कारी मन को सुसंस्कारी बना लेते हैं, तभी तो सिद्धावस्था को प्राप्त होते हैं। स्वामी रामतीर्थ के बारे में कहा जाता है कि उन्हें सेब बहुत पसंद थे। जब भी वे मन को ध्यान में लगाने की चेष्टा करते, तो ध्यान में भी उन्हें सेब ही दिखाई पड़ते । वे बहुत दुःखी थे। अचानक उन्हें एक युक्ति सूझी। एक दिन वे ढेर सारे सेब बाजार से खरीद लाये और ध्यान वाले कमरे में सामने रख दिया। वे ध्यान करने लगे। उनका मन बार-बार सेब की ओर आकृष्ट हो जाता। वे बार-बार उसे प्रयासपूर्वक खींच कर अपने इष्टदेव में लगाते। इस प्रकार सात दिन तक यह संघर्ष चलता रहा। जब सेब सड़ गये, तो उन्होंने फेंक दिया। पुनः कुछ सेब खरीद लाये और इसी प्रकार का अभ्यास करने लगे। अन्त में सेब के सड़ने पर उन्हें फेंक देते। इस प्रकार कई मास के प्रयास के बाद उनका मन शान्त हो गया। फिर कभी ध्यान में मन सेब की ओर नहीं गया। रामकृष्ण परमहंस ऐश्वर्य-लिप्सा को मन से मिटाने के लिए एक हाथ में पैसा और एक हाथ में मिट्टी लेकर “टाटा माटी” “माटी टाका” का समय-समय पर अभ्यास करते और फिर दोनों को फेंक देते। यूनान में एक प्रसिद्ध सन्त हुए है-डायोजिनीज। एक बार एक युवक ने उन्हें पत्थर की प्रतिमा के आगे भीख माँगते देखा। युवक को आश्चर्य हुआ, सोचा कितना मूर्ख है? कहीं पत्थर की मूर्ति भी भिक्षा दे सकती है! उसने सन्त को सम्बोधित किया और कहा “राहगीर देखेंगे तो समझेंगे कि सन्त पागल हो गया। आखिर यह क्या कौतुक कर रहे हैं आप? डायोजिनीज ने तनिक मुसकराते हुए उत्तर दिया-”मैं इस पाषाण-खण्ड से भीख माँग कर किसी के भीख न देने पर सर्वथा शांतचित्त, निर्विकार और निर्विकल्प रहने का अभ्यास कर रहा हूँ।

मंत्र उपासना के पीछे भी प्रयासपूर्वक उच्छृंखल मन को वशवर्ती बनाने का यही मनोविज्ञान निहित है। जो भलीभाँति इस विज्ञान को समझ कर निष्ठ और तन्मयतापूर्वक इसमें संलग्न रहते हैं, वे चतुर किसान की तरह बीज बोने और फसल पकने का उत्सुकतापूर्वक इन्तजार करते और धन-धान्यों से अपने कोठार भरते हैं, किन्तु जो उतावली मचाते और फल की आशा हथेली में सरसों जमाने की तरह तुरंत करने लगते हैं, वे इसके पीछे की प्रक्रिया और सिद्धान्त से नितान्त अनभिज्ञ होते हैं। ऐसे ही लोग उस व्यक्ति की तरह बिल्कुल छूँछ रह जाते हैं, जो छोटे-छोटे गड्ढे खोद कर पानी न निकलने पर बार-बार कुआं का स्थान परिवर्तित करने की अधीरता और नादानी बरतता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles