उपासना ही नहीं, साधना भी

January 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

उपासना और साधना आध्यात्मिक प्रगति के दो अविच्छिन्न पहलू हैं । जितना महत्व उपासना का है उतना ही साधना का भी है । हमें उपासना पर ही नहीं साधना पर भी ध्यान और जोर देना चाहिए । जीवन को पवित्र और परिष्कृत, संयत और संतुलित, उत्कृष्ट और आदर्श बनाने के लिए अपने गुण, कर्म, स्वभाव को उच्चस्तरीय बनाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए । इस प्रयत्न का नाम ही जीवन-साधना अथवा साधना है । उपासना-पूजा को निर्धारित समय का क्रियाकलाप पूरा कर लेने पर समाप्त हो जाती है, पर साधना चौबीसों घंटे करनी पड़ती है । अपने हर विचार और कार्य पर एक चौकीदार की तरह कड़ी नजर रखनी पड़ती है कि कहीं कुछ अनुचित, अनुपयुक्त तो नहीं हो रहा है । जहाँ भूल दिखाई दी कि उसे तुरन्त सुधारा, जहाँ विकार पाया वहाँ तुरन्त उसकी चिकित्सा की, जहाँ अनीति देखी, तुरन्त उससे लड़ पड़े। यही साधना है ।

जिस प्रकार सीमा रक्षक प्रहरियों को हर घड़ी शत्रु की चालों और बातों का-गतिविधियों का पता लगाने और उनसे जूझने के लिए लैस रहना पड़ता है , वैसे ही जीवन संग्राम के हर मोर्चे पर साधक को सतर्क और तत्पर रहने की आवश्यकता पड़ती है । यही तत्परता साधना है । जबकि उपासना मनोभूमि में उगने वाला बीज है, जिसके फलने-फूलने की आशा तभी की जा सकती है जब मनोभूमि का उसी प्रकार परिष्कार किया जाय जिस प्रकार कृषक अपने खेतों का करता है । खेत में बीज डालने से पूर्व वह पहले उसे पानी से भर कर उसकी अच्छी तरह जुताई करता है । कूड़ा कचरा निकालता है । खाद डालता है तब भूमि इस योग्य हो पाती है कि उसमें बीज डालने और उसके उगने की संभावनायें सुनिश्चित होती हैं । इसी प्रकार मनोभूमि को शुद्ध किये बिना डाला गया उपासना का बीज झाड़-झंखाड़ युक्त खेत में पड़े बीज की तरह होगा, जो या तो स्वयं सड़गल कर नष्ट हो जाता है या जिसे चूहे, चिड़िया और जंगली जीव चुन ले जाते हैं

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश , में कहा है कि जिस प्रकार ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं , वैसे ही अपने को बनाया तथा ईश्वर को सर्वव्यापी और अपने को व्याप्त जानकर उसके अधिकाधिक

सन्निकट पहुँचना ही उपासना कहलाती है । पर प्रायः लोग इस तथ्य की उपेक्षा-अवहेलना करते ओर यह मानते हैं कि भजन करने मात्र से पाप कट जायेंगे, अतएव जीवन को शुद्ध बनाने अर्थात् कुमार्गगामिता से अपने को बचाने की आवश्यकता नहीं । वस्तुतः इसी भ्रमपूर्ण मान्यता ने मनुष्य को अध्यात्म के लाभों से वंचित रखा है । यह भ्रम जितना शीघ्र हो सके दूर हटाना चाहिए । भारतीय अध्यात्म के तत्वज्ञान एवं ऋषि अनुभवों के आधार पर यही निष्कर्ष अपनाना चाहिए कि उपासना और साधना दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । आध्यात्मिक प्रगति के लिए दोनों अवलम्बनों को साथ-साथ लेकर चलना अनिवार्य है । अन्यथा एक के बिना दूसरा अपूर्ण है । जिस तरह अन्न और जल, रात और दिन, शीत और ग्रीष्म, स्त्री और पुरुष का जोड़ा है उसी प्रकार उपासना और साधना भी अन्योन्याश्रित हैं । एक के बिना दूसरा अकेला असहाय एवं अपूर्ण ही बना रहेगा । इसलिए दोनों को साथ लेकर अध्यात्ममार्ग पर प्रगतिशील होना ही उचित और आवश्यक है ।

गायत्री सद्बुद्धि की प्रज्ञा की अधिष्ठात्री है, अतः उसके उपासक का जीवनक्रम तो उत्कृष्ट आदर्शवादी एवं परिष्कृत होना ही चाहिए । नशा पीने पर मस्ती आनी ही चाहिए । भक्ति का प्रभाव सज्जनता और प्रगतिशीलता के रूप में दीखना ही चाहिए । इसलिए हमारा उपासनाक्रम साँगोपाँग होना चाहिए और उसमें आत्म निरीक्षण, आत्मसुधार , आत्मनिर्माण , एवं आत्मविकास की परिपूर्ण प्रक्रिया जुड़ी ही रहनी चाहिए । उपासना और साधना परस्पर गुँथे हुए है । दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है एवं एक को कर लेने से दूसरे की पूर्ति हो जायगी, यह सोचना उचित नहीं ।

आत्मोत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ने के लिए पूजा उपासना के साथ जीवन साधना भी अनिवार्य है । गायत्री की भावनात्मक पूजा की तरह ही सद्आचरण द्वारा भी उपासना की जा सकती है । हम निष्पाप बनें इतना ही पर्याप्त नहीं, वरन् यह भी आवश्यक है कि अपने गुण , कर्म , एवं स्वभाव में सात्विकता का , पवित्रता प्रखरता का समुचित विकास करके जीवन को दिव्य बनावें और उसके द्वारा अपना और समस्त समाज का कल्याण करें । अभिन्न रूप से जुड़े उपासना-साधना के द्विविध मार्ग को अपनाकर व्यक्तित्व को परिष्कृत और विकसित करते हुए ही आत्मिक प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ा जा सकता है । पूर्णता प्राप्त करने ऋद्धि-सिद्धियों से भरापूरा सफल जीवन जीने का यही राजमार्ग है ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118