निष्ठ की विजय

January 1992

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“मैं जलसेना के महासेनापति की कठिनाई समझता हूँ।” एक वृद्ध हाथी दाँत के आसन पर शान्त बैठे थे। उनका शरीर दुर्बल था। झुर्रियाँ पड़ गई थी। सिर के बाल ही नहीं शरीर के रोएँ तक श्वेत हो चुके थे। लेकिन भुजाओं के पुट्ठे मजबूत थे और आँखों में एक अद्भुत चमक थी। अपने सफेद कपड़ों में महाशिल्पी सोमकेतु किसी ऋषि के समान लग रहे थे। उनका गोरा रंग इतना उजला था मानो कला और प्रतिभा की हृदयस्थ अधिष्ठात्री का प्रकाश बाहर फूट पड़ा हो। उनके भाल पर न चिन्ता थी और न व्यग्रता। स्थिर शान्त मुद्रा में सामने खड़े जल सेनापति को वे समझा रहे थे “लेकिन महासेनापति को मेरी विवशता अनुभव करना चाहिए। सच्चे कलाकार का एकमेव उद्देश्य है दूर-दूर तक फैले अधिकतम लोगों के मनों में दिव्य भावों को उमगाना। इसकी उपेक्षा में नहीं कर सकता। किसी भी भय के वशीभूत होकर तो कदापि नहीं।”

“यदि दो दिन मुझे और दिए जाते। मैंने युद्ध पोतों को आज्ञा दे दी है।” सेनापति के माथे पर पसीने की बूंदें छलछला आयीं। वे अपनी व्यग्रता और चिन्ता छिपा नहीं पा रहे थे। ‘भाई सुवीर मुझ से सहमत है।’ सेनापति ने पीछे की ओर देखा। उनसे कुछ कम अवस्था का तरुण सैनिक पीछे से समीप आ गया।

“महासेनापति ठीक कह रहे हैं और यदि वायु ने बाधा न दी तो हम दो दिन बाद चलकर भी ठीक समय पहुँच सकेंगे।” सुवीर ने एक साथ बात पूरी कर ली और तब महाशिल्पी के मुख की ओर इस प्रकार देखने लगा जैसे आदेश की प्रतीक्षा हो।

“शिल्पी-तनिक हँसे। एक क्षण में ही उनकी आंखों में गम्भीरता आ गई। उन्होंने कहा, “आप मुझे क्षमा करें। प्रश्न मुहूर्त का है, मैंने अपनी कला को प्रभु सेवा का माध्यम माना है। जाने का निश्चय करके सोमकेतु भय के कारण यात्रा में विलम्ब करे तो कायर होगा सुवीर !” शिल्पी ने सेनापति की ओर शान्त दृष्टि से देखते हुए सुवीर से आदेश के स्वर में कहा-”राजहंस प्रस्थान करेगा। अवरोधक उठाने का आदेश दें और भगवान पर विश्वास करें।”

“जय सोमनाथ।” सेनापति ने मस्तक झुकाया। मस्तक झुकाए ही वे पोत के प्रधान कक्ष से बाहर हुए। महाशिल्पी के उज्ज्वल पोत ‘राजहंस’ ने लंगर उठाए और वह समुद्र की लहरों पर धीरे-धीरे बढ़ने लगा।

स्तम्बतीर्थ (खम्भात) का बन्दरगाह एक छोटे से जन समूह से भरा हुआ था। तट के लोगों ने जहाज को उच्च जयनाद से विदा दी ‘जय सोमनाथ’ पोत पर से जयनाद गूँजा ‘जय महाकाल’।

उन दिनों स्तम्बतीर्थ जलीय व्यापार का केन्द्र था। ढाका का मलमल, उज्जयिनी की कला के पात्र, पाट के वस्त्र काष्ठ की कलापूर्ण पेटिकाएँ, स्वर्ण आभूषण आदि यहीं से पश्चिमी देशों को जाते थे और उधर से पारस की उज्ज्वल मोती मूँगे आदि यहाँ उतरते। यहाँ का बन्दरगाह हमेशा जलयानों से भरा रहता।

उज्जयिनी का वैभव समाप्त हो गया था। शिल्पी सोमकेतु अपनी जन्म भूमि से यहाँ आ बसे थे और सौराष्ट्र ने उस महान कलाकार का हृदय से सत्कार किया था। यह सत्कार कला के प्रति एक निष्ठ साधक का सम्मान था। उन्हें कभी किसी क्षण में अपनी इस महान साधना से विरत नहीं देखा गया। आज वे ही मोहमयी (आज की बम्बई) के सम्मुख किसी सागरस्थ उपत्यिका तक जा रहे थे।

“क्यों सुवीर?” यान के कक्ष में सहसा यान के अध्यक्ष को आतुरता पूर्वक आते देख शिल्पी उठ खड़े हुए।

‘श्रीमान क्या कुछ क्षणों के लिए बाहर पधारेंगे? अध्यक्ष के स्वर में व्यग्रता थी। शिल्पी अध्यक्ष के सुपुष्ट कन्धे पर हाथ रख डेक पर पहुँच गए।

‘लगभग बीस नौकाएँ तेजी से पोत को चारों ओर से घेर रही थीं।’ शिल्पी ने गहरी श्वाँस ली। इतनी देर में नावें और नजदीक आ गई।

“ओह सोमकेतु। खुदा की मेहरबानी। हम लोग तुम्हें कोई तकलीफ नहीं देंगे।” दस्युओं का क्रूर सरदार महाशिल्पी के सम्मुख दैत्य के समान लगता था। उसके लाल रंग के केश ऐसे लगते थे, जैसे वह सचमुच खून पीने वाले पिशाच के हृदय को व्यक्त करते हों। अधिकाँश डाकू ऊपर आ गए थे। पोत के समस्त नाविक बन्दी हो गए। दस्यु सरदार बड़ा प्रसन्न था। शिल्पी सोमकेतु की ख्याति वह सुन चुका था।” तुम हमारे बादशाह के लिए हरम खास बना सकोगे उसके बाद बादशाह तुम्हें आजाद कर देंगे। हरम ऐसा बनाना, बस।” दस्यु सरगना की अश्लील हरकत पर शिल्पी को इस कठिन परिस्थिति में भी हँसी आ गई।

मैं कलाकार हूँ, विलासिता, अश्लीलता और कुत्सा भड़काने के लिए कला का उपयोग करना पड़े इससे मृत्यु का वरण कहीं अधिक श्रेष्ठ है।

“सोच लो सोमकेतु दस्यु सरदार की आंखों में क्रूरता और कुटिलता एक साथ चमक उठी। हम तुम्हें इज्जत देंगे। तुम्हें दौलत देंगे और तुम अपने मुल्क को लौटने के लिए आजाद कर दिये जाओगे। एक तरफ मौत है दूसरी ओर वह सब कुछ बल्कि उससे कहीं अधिक जो इंसान इस जिन्दगी में पाने की चाहत रखता है।”

“मैं बालक नहीं हूँ।” शिल्पी हँसा।

“तब इन काफिरों के साथ तुम भी जहन्नुम में जाओ।” क्रोध से होंठ काटता हुआ वह लौट पड़ा। द्वारा बन्द हो गया।

डाकुओं ने देख लिया था कि हवा की तेजी बढ़ती जा रही है। सागर अपनी उत्तम लहरों से प्रलयंकर स्वरूप धारण करता जा रहा है। छोटी नावों के देर तक रुकने का मतलब था जल समाधि लेना। एक-एक क्षण कीमती था। दस्यु सरकार को अपनी भूल पर पश्चाताप था, जो शिल्पी को सबके साथ बन्दी करके उसने की। अब इतना अवसर नहीं था कि बलात् शिल्पी को लाया जा सके। पोत की तली में से एक काष्ठ हटा कर उनने अपनी नावें दौड़ा दीं। सारा सामान तो वे पहले ही लूट चुके थे।

“सुवीर बाहर कोई गति नहीं जान पड़ती।” शिल्पी ने कहा “क्या द्वार टूट सकेगा?” अविलम्ब कक्षद्वार पर प्रहार होने लगे। वह टूट गया। सबने बाहर देखा-दस्यु नौकाओं का पता नहीं है। समुद्र में तूफान है। सुवीर ने जल्दी से जहाज का निरीक्षण किया। तल में काफी जल आ चुका था। इतने पर भी संतोष की बात थी कि जल अब बढ़ नहीं रहा था। जल निकालने की अपेक्षा इस अंधड़ में जहाज ले चलना ज्यादा ठीक था। नाविकों ने पतवार सम्भाल ली।

“महाशिल्पी को साधारणतया कल आ जाना चाहिए। उन्होंने मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया था और अब तक स्वीकार करके अनुपस्थित होने का प्रमाद उन्हें स्पर्श नहीं कर सका है।” इधर मोहमयी राज्य के अधिपति का मन अनेक आशंकाओं से आकुल था।

“नियति के अज्ञात हाथों का खेल कौन समझ सकता है।” आचार्य जैसे स्वयं से कह रहे हों। वास्तु पूजन, नवग्रह पूजन हो चुका था कभी का। कर्मान्त तक के लिए स्थापित दीपक निष्कम्प था। यज्ञकुण्ड में हव्यवाह ऊर्ध्वमुख प्रज्वलित होकर आहुतियाँ स्वीकार कर रहे थे। ऐसी दशा में यह महाविघ्न क्यों उपस्थित हो रहा है, यह समझ पाना आचार्य के लिए अतिकठिन था।

“मुहूर्त तो महाशिल्पी के हाथों से ही होगा।” महाराज ने अपना निश्चय प्रकट किया। आप यज्ञ को पूर्ण कर लें। यदि पूर्णाहुति तक भी वे न पधारें तो हम सागर में अवमृत स्नान कर लेंगे। मंत्रोच्चारण हो रहा था। आहुतियाँ पड़ रही थीं, सुगन्धित धुँआ अनंत कुण्डलियाँ भी बना रहा था। शंख और घण्टे भी बजते थे। लेकिन इतने पर भी लग रहा था जैसे वह स्थान जनहीन हो। निस्पन्द उदासीनता सबको घेरे थी।

‘आप पूर्णाहुति दें, समय हो गया’। आचार्य ने महाराज

के हाथों में घी से भरा नारियल दिया और स्वयं होता ने कुण्ड में घी की धारा छोड़नी प्रारम्भ की। नारियल की आहुति देकर सबने भूमि पर माथा टेका।

“जय महाकाल!” एक क्षीण कण्ठ ध्वनि के साथ कुछ पुष्ट पर थकी ध्वनियों ने प्रतिध्वनि सी की। जैसे साक्षात् यज्ञ पुरुष कह रहे हों ‘परं ब्रूहि’ महाराज में नवीन प्राण आ गए। समुद्र के खारे जल से सिर से पैर तक भीगे शिल्पी यज्ञ देव को प्रणाम कर रहे थे। उनके पीछे वैसे ही अन्य भीगे व्यक्ति थे। झपट कर महाराज ने शिल्पी को उठाकर गले से लगा लिया। यज्ञ परिषद में जैसे जीवन का संचार हो गया हो

‘सुवीर कहते हैं कि दस्यु पोत से एक काष्ठ हटा गए थे, जल के साथ कोई बहुत बड़ी मछली जहाज तल में प्रविष्ट हो गई और उसके शरीर से छिद्र अवरुद्ध हो गया। जब पोत उथले तट में प्रविष्ट हुआ तो मीनराज को जल का घनत्व कम अनुभव हुआ और वे बाहर निकल गए। हमारा पोत डूब गया।’ महाशिल्पी ने मार्ग

की सारी कहानी धीरे-धीरे कह सुनाई और वहाँ से हम

सभी तैर कर तट तक आ गए। सभी के मस्तक कलाकार की निष्ठ के सामने झुक गए। महाशिल्पी कह रहे थे “लोभ और भय के सामने अडिग रहते हुए यदि कोई अपनी साधना को निरालस्य अप्रमत्त भाव से करता रहे तो प्राकृतिक शक्तियों को भी विवश होकर उसकी मदद करनी पड़ती है। सभी विघ्नों के बावजूद अन्तिम परिणाम है, निष्ठ की विजय।”

आज उस कलापूर्ण मन्दिर को लोग एलिफैन्टा कहते हैं। सम्पूर्ण पर्वत को काटकर मूर्तियाँ, स्तम्भ, तोरण द्वार प्रकोष्ठ, प्रांगण सब एक ही पर्वत में बने हैं। महाशिल्पी की निष्ठ काल के ऊपर भी विजयिनी होकर आसीन है। उस अपार जल राशि में स्थित उपत्यिका के तटों पर विशाल तरंगों से ताल देते वरुण देव निरन्तर उद्घोष किया करते हैं। परिवर्तनों और नश्वरता से भरे संसार से घिरी रहने पर भी निष्ठ शाश्वत है और अपरिवर्तनीय। यह स्वयं में साधन है और सिद्धि भी।


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