शब्द ब्रह्म की साधना के दो प्रमुख आधार

January 1992

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जीभ और हृदय का कोई सीधा तारतम्य शरीर शास्त्र की दृष्टि से नहीं मालूम पड़ता। यों तो सभी अंग एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। मस्तिष्क सभी अंगों में चेतना देता है, फेफड़े वायु और आमाशय रस, इस प्रकार ये सभी संस्थान अपने आप में महत्वपूर्ण हैं। इनमें आपस में पारस्परिक सम्बन्ध भी है। पर जहाँ तक अति निकटता और घनिष्ठता का सम्बन्ध है जीभ हृदय के बीच कोई असाधारण और अतिरिक्त घनिष्ठता नहीं, दिखाई देती।

पर मन्त्र विज्ञान की दृष्टि से इनमें अत्यधिक सघन सम्बन्ध है। शब्द विज्ञान की गहन शक्ति इन दोनों के समन्वय से ही पैदा होती है। यों जीभ स्वादेन्द्रिय है और शब्दोच्चारण का प्रयोजन भी पूरा करती है, पर उसमें एक विशेष क्षमता है शब्दों के साथ जुड़े हुए असामान्य प्रभाव की। यदि यह तत्व न हो तो फिर वह ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह केवल जानकारी देने का ही काम कर सकती है। उससे किसी व्यक्ति को अथवा व्यापक अन्तरिक्षीय वातावरण को प्रभावित नहीं किया जा सकता।

शरीर विज्ञान से यदि जीभ का परिचय पूछें तो वह उसे लम्ब पेशियाँ, जीनियों ग्लोसस पेशियाँ, जिव्हा ग्रन्थि, जिव्हावरण, लेपेक्स, तन्त्रिकाएँ स्वाद कलिकाएँ स्वाद, कोशिकाएँ स्पिन्डल कोशिकाओं का मिला-जुला रूप भर कहेगा। बात सही भी है इन्हीं सबका सहयोग इसे अपना काम ठीक तरह करते रह सकने लायक बनाता है।

जीभ का यह भौतिक परिचय हुआ। इस मोटी माँसल परिभाषा के अलावा तत्ववेत्ता उसका आत्मिक परिचय भगवती सरस्वती के प्रतीक के रूप में देते हैं। ऋग्वेद के दशम मण्डल के 16 वे सूक्त के 8 वें मन्त्र में कहा गया है “यावद् ब्रह्म विशिष्टतम् तावती वाक्” इस मन्त्र में वाक् को ब्रह्म की तरह विशिष्ट कहा गया है क्योंकि यह उसी परम चेतना का स्वतः स्फुट प्रकाश है। सही भी है जिव्हा शब्दोच्चारण करती है और उस उच्चारण के पीछे मनुष्य के मस्तिष्क और अन्तःकरण को ही नहीं शरीर को भी प्रभावित करने की सामर्थ्य रहती है। इससे भी आगे बढ़कर वह शक्ति वस्तुओं को प्रभावित करती है। इसी रहस्य शक्ति को चमत्कारी ढंग से प्रयुक्त करने के विधान का नाम मन्त्रशास्त्र है। सामान्य जानकारी का आदान-प्रदान तो वाणी से होता ही रहता है। पर जब वह एकाग्र समग्र और शब्द शास्त्र के अनुसार विशेष शब्दों का विशेष स्वर साधना के साथ उच्चारण करती है तो उस शब्द समूह को ‘मन्त्र’ कहते हैं। मन्त्रों की चमत्कारी शक्ति से अध्यात्म विज्ञान का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है। जप के बिना किसी धर्म सम्प्रदाय की कोई साधना नहीं हो सकती। इसे आत्मशक्ति सम्वर्धन का मूल स्रोत कहा गया है।

मन्त्र विद्या के पश्चिमी साधक जान वुडरफ के ग्रन्थ “गारलैण्ड आँव लेटर्स” के अनुसार जहाँ तक मन्त्रोच्चारण का सम्बन्ध है यह कह सकते हैं कि जिव्हा तन्तुओं का सम्बन्ध जिन चक्रों, उपत्यिकाओं, मातृकाओं से है वे इस उच्चारण के साथ वैसे ही प्रभावित होती है। जैसे टाइप राइटर की कुँजियाँ दबाने से उससे सम्बन्धित तीलियाँ उछलती हैं और कागज पर अक्षर छप जाते हैं । शरीर के विभिन्न स्थानों पर विभिन्न सूक्ष्म शक्तियों के भण्डार दबे पड़े हैं । वाणी का प्रभाव बाहर ही निकलता भीतर भी चलता है । मन्त्रोच्चारण के साथ जिव्हा की नस नाड़ियाँ और ध्वनि लहरियाँ उन प्रसुप्त स्थानों को जाग्रत करती हैं । क्रम विशेष सितार के तारों को बजाने से उनमें से विभिन्न स्वर लहरियाँ निकलती हैं, इसी प्रकार शब्दों का उच्चारण तथा स्वर क्रम मिलकर ऐसी गूँज उत्पन्न करते हैं जिससे शरीरगत सूक्ष्म संस्थान में हलचल मच जाती है । जो मन्त्र जिस प्रयोजन के लिए निर्धारित है उसके अनुकूल ध्वनि कम्पनों का ऊर्जा तरंगों का निर्माण होता है ।

इस तरह मन्त्र शक्ति अपना काम करती है । मंत्रोच्चारण के अवसर पर सारा संस्थान एक शक्ति स्रोत के रूप में बदल जाता है और अपने भीतर लक्ष्य किए हुए मनुष्य या देवता के ऊपर अनन्त आकाश में एक प्रभाव उत्पन्न करता है जिससे शास्त्रोक्त परिणाम उत्पन्न होने की सम्भावना बन जाय

लेकिन इतना भर काफी नहीं । इस मन्त्रोच्चार की शब्द शृंखला के पीछे हृदयगत ऊर्जा की प्रचण्ड शक्ति धाराओं का समावेश भी होना जरूरी है । हृदय का अर्थ दो प्रकार का होता है जिव्हा की तरह वह भी दो प्रयोजन पूरे करता है । एक तो रक्ताभिषरण का केन्द्र बिन्दु होने से वहाँ उत्पन्न होने वाली ऊर्जा का वह भण्डार होता है । दूसरे उसे भाव संस्थान का केन्द्र बिन्दु भी माना गया है । धड़कन से उत्पन्न ऊर्जा और श्रद्धा , निष्ठ, भक्ति एवं विश्वास की भाव-गरिमा । इन दोनों का समन्वय ही मन्त्र का प्राण है । उच्चारण को मन्त्र का काय-कलेवर और भावनाओं को प्राण समझना चाहिए । इस प्रकार जहाँ तक आत्म साधना का प्रश्न है जिव्हा और हृदय दोनों का सहयोगात्मक समन्वय अनिवार्य है ।

शरीर विज्ञान हृदय का परिचय-शरीर नगर की जल व्यवस्था को भली प्रकार व्यवस्थित रखने वाले ‘पम्पिंग स्टेशन’ के रूप में देता है । हृदय का फेंका हुआ रक्त सभी अंग-प्रत्यंगों में भ्रमण करता है । वायु पोषण से उन अंगों को पुष्ट करता हुआ वहाँ की विकृतियों को अपने साथ समेटता लाता है । फेफड़े उस इकट्ठा किए कूड़े-कचरे को साँस द्वारा बाहर फेंक कर उसमें प्राण वायु घोल देते हैं । सिलसिला फिर चल पड़ता है ।

इसे चलाए रखने के लिए उसे एक मिनट में 76 बार धड़कना पड़ता है । यों कहें साल में 3 करोड़ 70 लाख बार । यदि व्यक्ति 60 साल जीवित रहे तो उसका हृदय दो सौ बीस करोड़ बार धड़क चुका होगा । 18000 टन रक्त बहा चुका होगा । 62000 मील रक्त नलिकाओं की पगडण्डियों पर चल चुका होगा । यह लम्बाई सारी धरती की परिक्रमा से ढाई गुनी ज्यादा है । इस कार्य में उसे इतनी शक्ति खर्च करनी पड़ जाती है जितने से संसार के सबसे बड़े भारी जंगी जहाज को धरती से पाँच गज ऊँचा उठाकर अधर में लटकाया जा सके ।

साढ़े तीन इंच चौड़ी पाँच इंच लम्बी छोटी सी थैली के लिए यह काम नहीं है । पर जब उसमें समाई यह ऊर्जा मन्त्र शक्ति से मिल जाती है , तो परिणाम करोड़ों गुना चमत्कारी होती हैं । आकाशवाणी से बोले गए शब्द इसीलिए प्रखर हो उठते हैं क्योंकि उनमें विद्युत शक्ति का सम्मिश्रण किया जाता है । इसी के अभाव में हमारी आवाज को कोई हजार गज पर भी नहीं सुन पाता जब कि रेडियो की आवाज सारा संसार सुनता है । ठीक मन्त्रोच्चारण को प्रखर और व्यापक बनाने के लिए हृदय की विद्युत धारा का उपयोग करना पड़ता है । साथ ही श्रद्धा विश्वास और भक्ति का समन्वय करके उसकी जप शब्दावली को इतरा प्रखर बनाना पड़ता है कि वह साधारण उच्चारण न रहकर एक शक्ति प्रवाह के रूप में प्रादुर्भूत हो अपना प्रयोजन सिद्ध कर सके ।

आत्मवेत्ता हृदय का सूक्ष्म अर्थ सहृदयता लेते हैं । निष्ठुर प्रकृति के दुराचारियों को हृदययता कहा जाता है । इसका मतलब खून फेंकने वाली थैली का होना न होना नहीं है । वरन् यह है कि उच्चस्तरीय संयम सदाचार, निर्मलता निष्कपटता जैसी सद्भावनाओं का उद्गम केन्द्र है या नहीं । यदि वह परिप्लावित हो तो आत्मिक शक्तियाँ भी उगेंगी , फलेंगी । यदि श्मशान जैसी निष्ठुरता और प्रेत-पिशाचों की दुष्टता भर रही होगी तो उस मरघट की जली भूमि पर किसी आत्मिक विभूति के पल्लवित होने की कोई सम्भावना नहीं । इसके अतिरिक्त उच्च सत्त पर आत्मा की महत्ता तथा साधन प्रक्रिया और परिणाम पर गहन श्रद्धा-विश्वास का होना भी हृदयवान होने का चिह्न है । इन विशेषताओं से जो सम्पन्न हो उनकी हृदयगत भाव शक्ति जिव्हागत स्वर विनिर्मित करती है जिसे आश्चर्य और अद्भुत कहा जा सके ।

जप सूत्रम् नाम लोक विश्रुत बंगला ग्रन्थावली के रचनाकार प्रख्यात मन्त्रक्ता स्वामी प्रत्यगात्मानन्द के अनुसार हृदय “शिव” और जिव्हा “शक्ति” है । मन्त्रशास्त्रों ने हृदय को अग्नि और जिव्हा को सोम भी कहा है । दोनों का समन्वय धन और ऋण विद्युत वही मन्त्र के चमत्कार के रूप में प्रत्यक्ष होता है ।

जप साधक के रूप में हमने अपने शरीर मन्दिर में वाक् देवी और हृदय देवता की प्रतिष्ठा किस रूप में की है ? , मन्त्र साधना उसी रूप में अपने परिणाम प्रस्तुत करेगी । वाणी के संयम और भावों के परिशोधन के बिना जा मन्त्र जप की उपलब्धियाँ बटोरना चाहते हैं उन्हें निराश होना स्वाभाविक है । यदि सत्य प्रिय हितकारक वचनों के रूप में वाक् देवी की अर्चना की जा सके आत्मीयता, उदारता, गहन श्रद्धा आदि अनेकानेक सद्भावों के पुष्प हृदय देवता पर चढ़ाए जा सके सभी मन्त्र विद्या के महान विज्ञान की प्राप्ति के हम अधिकारी बन सकते हैं । ऐसी स्थिति में शब्द ब्रह्म की भावनापूर्वक साधना की जा सके तो अदृश्य और अप्रत्यक्ष विभूतियाँ हमारे जीवन में दृश्य और प्रत्यक्ष हो सकती हैं ।


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