विस्फोट की स्थिति आने ही क्यों दे?

January 1992

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गुब्बारे की झिल्ली एक सीमा तक ही हवा का दबाव सहन कर सकती है। जब उसे अति मात्रा में फुलाया जाता है तो निश्चित परिणाम फट जाना ही होता है। स्टोव फटने, सिलेण्डर फटने, बायलर फटने जैसी दुर्घटनाओं को समाचार आये दिन सुनने को मिलते रहते हैं। इन सब में एक ही कारण होता है कि कलेवर में जितना धारण करने की क्षमता है उससे कहीं अधिक भर जाता है। भीतर का पदार्थ जब बाहर निकालने के लिए जोर लगाता है और खोल में उसे दबाये रहने की क्षमता नहीं होती, जब परिणाम वही होता है जो होना चाहिए।विस्फोट इसी स्थिति का नाम है।

मानव जीवन में अनेक बार ऐसा होता है कि गाड़ी चलते-चलते रुक जाती, वरन् उलटती,टकराती भी देखी गई है। सीमा से बाहर का दबाव सदा वैसी ही विकृत विभीषिकाएँ खड़ी करता है।

आहार-विहार में घुसी हुई असंयमशीलता बहुमूल्य अंग-अवयवों में विषाक्तता उत्पन्न करती रहती है। यह संचय धीरे-धीरे बढ़ता है और गहराई में उतरता जाता है। वह अवांछनीय बढ़ोत्तरी आरम्भ में तो सामान्य मालूम पड़ती,काम चलता रहता है, पर जब संग्रह असाधारण मात्रा में हो जाता है तो ऐसी परिणति उभरती है जो संभाले नहीं सँभलती। गले हुए अवयव इतने जर्जर हो जाते हैं तब भीतर से उफनने वाले उबाल को सहन नहीं कर पाते, फलतः कैन्सर,अल्सर, क्षय,रक्तचाप जैसे ऐसे रोग उबल पड़ते हैं जो दवा-दारु की रोकथाम स्वीकार नहीं करते और जो कुछ बचा-खुचा होता है उसे भी समेट ले जाते हैं। यह लूट-खसोट एक प्रकार का विस्फोट ही है। यह उस गलती का परिणाम है जिससे औचित्य की मर्यादा का ध्यान नहीं रखा जाता और अतिवाद अपनाया जाता है।

बुद्ध ने आरंभिक दिनों तपश्चर्या में अतिवाद अपनाया था। आशंका होने लगी थी कि कहीं शिरायें बिखर न जायँ तब देवी चेतना ने उन्हें सुझाया कि मध्य मार्ग अपनाने में हित है। अति सदा विग्रह खड़ी करती है, भले तप जैसा उच्च प्रयोजन ही क्यों न हो? औचित्य और मर्यादा का मध्य मार्ग ही उपयुक्त है। दूरदर्शिता ने उन्हें भूल सुधार लेने के लिए बाधित किया। फलस्वरूप वे आत्मकल्याण और लोक कल्याण के दोनों पक्ष साध कसने में समर्थ हुए।

सादगी में बुद्धिमता और दूरदर्शिता का समावेश है। औसत नागरिक का स्तर अपनाने में ही भलाई है। अतिवादी उछलकर चोटी पर जा पहुँचने की आतुरता दिखलाते हैं। फलतः वे लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने वाले उद्धव कर्म करते हैं। राजमार्ग को छोड़कर खाई-खंदकों को लाँघते हैं। अतिवादी कृत्य करते और ऐसे खतरे उठाते हैं जिनसे बचा जा सकता है। अतिवादी, महत्वाकाँक्षी सफलता तो एक सीमा तक ही पाते है, पर भर्त्सना व्यंग्य और उपहास असाधारण रूप से सहते हैं।

सामान्यजनों की तुलना में अधिक धनी,अधिक प्रख्यात, अधिक बलिष्ठ बनने की आतुरता जिन पर छाई रहती है, उन पर अधिकाधिक प्रगति का भूत छाया रहता है। वे सर्वोपरि, सर्वमान्य, सर्व समर्थ बनना चाहते हैं । यह उद्विग्नता सृष्टि व्यवस्था के प्रतिकूल है । मनुष्य समुदाय की समाज संरचना इस प्रकार हुई है जिसमें सभी साथी सहयोगी और सामान्य स्तर पर निर्वाह करते रहें । कोई न ऊँचा उठे न नीचा गिरे । मध्यवर्ती व्यवस्था-क्रम अपनाये रहने में ही सबकी भलाई है, किन्तु जो साधारण चाल नहीं चलते, कुदकते हैं, उन्हें छलाँगें लगाने में अक्सर ठोकर लगती , चोट पहुंचती और ऐसी मुसीबत आती है जो सँभाले नहीं सँभलती । समृद्धियाँ जितनी भी प्रकार की हैं उनका अपना-अपना नशा होता है। वह एक सीमित मात्रा में ही सहन हो सकता है । यदि वे असाधारण मात्रा में किसी पर चढ़ दौड़ें तो समझना चाहिए कि विकास नहीं विनाश का ही उपक्रम है ।

अधिक धनी बने व्यक्ति पगलाये, बौराये जैसे बनकर रहते हैं । उन्हें अनेकानेक दुर्व्यसन घेर लेते हैं । उद्धत अहंकार बढ़ता है । असाधारण सुन्दर नर-नारी अपनी साज-सज्जा को और भी अधिक बढ़ाते तथा मनचलों को आकर्षित करके उन्हें पतन के गर्त में गिराते हैं । सिद्धि, चमत्कार जिनको हस्तगत होते हैं वे उनका प्रदर्शन करके कितनों को ही लुभाते और उनको चंगुल में फँसाकर उलटे उस्तरे से हजामत बनाते हैं । कइयों को मारण , मोहन, वशीकरण, उच्चाटन आदि आक्रामक प्रहार करते देखा गया है । यह सब प्रकार का अपच है जो असामान्य क्षमताएँ हस्तगत होने पर संतुलित नहीं रह पाता । कुमार्ग एवं अनर्थ का मार्ग अपनाता है ।

उच्च पद एवं अधिकार प्राप्त अफसर अपनी सहज शालीनता गँवा कर उद्धत बनते, दर्प जताते और अकारण लोगों को हैरान करके अपनी शक्तिमत्ता को अभ्यास , अनुभव कराते हैं । यों वे अनुग्रह, सहयोग और न्याय करके सम्बद्ध व्यक्तियों का अधिक हित साधन भी कर सकते हैं, पर ऐसा करते कोई विरले ही देखे गये हैं । अधिक मात्रा में खा लेने पर जिस तरह पेट फूलता और दर्द करता है, उसी प्रकार पचा सकने की सामर्थ्य से अधिक उपलब्ध कर लेने वाले भी स्वयं हैरान होते तथा दूसरों को हैरान करते हैं ।

जिन्हें अधिक संचय की,अधिक बड़े उत्कर्ष की आकाँक्षा है उनके लिए यही उचित है कि अपना खोल मजबूत करें । इतना मजबूत कि जो भरा हुआ है वह उबलने उछलने न पाये । तेजाब अधिक मोटाई की बोतलों में मजबूत ढक्कन लगाते हुए भरा जाता है। अणु भट्टियों की दीवारों बहुत चौड़ी और मजबूत बनाई जाती हैं । समुद्र मन्थन के समय निकले विष को पीने, ले जाने की हिम्मत किसी भी उपस्थित पराक्रमी की नहीं पड़ी, उसे शिव ने गले में धारण किया । सम्पदा और विपदा दोनोँ की ही बढ़ी-चढ़ी मात्रा मनुष्य को विषम परिस्थितियों में धकेल देती हैं । इस विपन्नता से बचने के लिए तीन ही उपाय हैं । एक यह है कि निर्वाह के उपयुक्त सीमित साधन ही जुटाये जायँ । उन्हें कमाने में ईमानदारी तथा उपयोग में विनम्रता, उदारता भरी समझदारी का समावेश किया जाय । दूसरा यह है कि यदि अधिक वैभव अर्जित करने की महत्वाकाँक्षाएँ हैं तो उन्हें इस हाथ कमाते हुए दूसरे हाथ से सदुपयोग प्रयोजन के लिए खर्च करते रहा जाय । आहार उपलब्धि के साथ-साथ मल-मूत्र के त्याग का सिलसिला भी चलते रहना चाहिए। बादल

समुद्र से जल उठाते हैं, पर उसे अपने पास जमा नहीं रहने देते। जहाँ-तहाँ घूमकर, धरातल पर बरसते और हरीतिमा उगाने का निमित्त कारण बनते हैं। तीसरी स्थिति वह है जिसमें किसी महत्वपूर्ण प्रयोजन के लिए बड़ी मात्रा में साधन संग्रहित करने पड़ते हैं। इस संभावना के लिए समुद्यत होने के पूर्व यह आवश्यक है कि अपने कलेवर-आच्छादन को मजबूत तिजोरी जैसा बनाया जाय जिसका तात्पर्य होता है तपस्वियों, महामानवों जैसा व्यक्तित्व विकसित करना। विभूतियों की सुरक्षा और उपयोगिता इसी प्रकार बनती है।


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