ध्यान करें, तो किसका व कैसे?

January 1992

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ध्यान योग की साधना में अंतःकरण को प्रबल बनाना पड़ता है। वह मन पर अनुशासन स्थापित करने के लिये तत्पर होता है। उसके अनगढ़पन को- अल्हड़पन को उच्छृंखलता छोड़ने और व्यवस्था के अंतर्गत रहने के लिये सधाता है । यह कार्य लगभग वैसा ही है जैसा कि सरकस के लिये हिंस्र पशुओं को साधने सिखाने के लिये रिंग मास्टर द्वारा किया जाता है । ध्यान में न केवल मन की अनियंत्रित भाग-दौड़ को रोक कर किसी सीमित परिधि में चिन्तन करने के लिये विवश किया जाता है वरन् उसे सदुद्देश्य अपना कर उपयोगी मार्ग पर चलने के लिये भी सहमत किया जाता है । मानसिक क्षेत्र पर विवेकशील सुव्यवस्था का शासन स्थापित करने के लिये ध्यान योग का विज्ञान विनिर्मित किया गया है ।

ध्यान योग का प्रथम चरण यह है कि विचारों की एक विशेष परिधि में ही दौड़ने का अभ्यास कराया जाय। यह कार्य उपासना क्षेत्र में धर्म परायण साधकों द्वारा इष्टदेव की छवि का ध्यान करने के रूप में किया जाता है । इसके लिये किसी प्रतिमा को आधार बनाया जाता है । अवतारों की, देवताओं की छवियाँ, मूर्तियाँ एवं तस्वीरों के रूप में सामने रहती हैं । आरम्भ में उन्हें खुली आँखें बन्द करके सूक्ष्म नेत्रों में निहारने का अभ्यास किया जाता है । इन छवियों में देवताओं को विस्तृत कलेवर धारण किये हुए चित्रित किया जाता है । उन्हें चित्र विचित्र वस्त्र, आभूषण, शस्त्र वाहन, प्रिय पदार्थ आदि सहित सुसज्जित रखा जाता है ताकि मन को भगदड़ के लिये कितनी ही तरह की वस्तुएँ मिल सकें । देर तक एक जगह टिकने की आदत को इस प्रकार समाधान मिल जाता है कि इष्टदेव की छवि के साथ जिस सरंजाम को जुटाया गया है उन पर वह आसानी से उछलकूद करता रहे। यह प्रथम अभ्यास है, कहीं भी भाग दौड़ने की आदत को इस उपाय से एक सीमित परिधि में उछलकूद करते रहने का अवसर मिलता है। इस प्रकार मनोनिग्रह का प्रथम चरण सीमित भगदड़ का उद्देश्य कुछ समय में पूरा होने लगता है।

इस साकार उपासना में मन को अधिक रुचिपूर्वक लगाये रहने के लिए इष्टदेव की सामर्थ्य का माहात्म्य पहले से ही मन को समझा दिया जाता है। उनके अनुग्रह से क्या-क्या लाभ वरदान मिल सकते हैं, यह कल्पना पहले से ही रहती है। इसके अतिरिक्त इष्टदेव के प्रति गुरुजनों जैसी सघन श्रद्धा का भी आरोपण रखा जाता है। किसी घनिष्ठ सम्बन्धी के रूप में उन पर आत्मीयता का आरोपण करना आवश्यक होता है। भगवान को, इष्टदेव को किस रिश्ते में बाँध कर उनके साथ भावभरी आत्मीयता उत्पन्न की जाय यह साधक की अपनी इच्छा पर निर्भर है। इसके लिये रुचिपूर्वक चयन करने की पूरी छूट दी गई है। भगवान को “त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव भ्राता च सखा त्वमेव” आदि स्तवनों में माता पिता, गुरु जैसे पूज्य स्तर में भ्राता, सखा जैसे समान स्तर में से किस स्थापना को अपनाया जाय, यह साधक की अपनी इच्छा पर निर्भर है। स्त्रियाँ उन्हें पति रूप में भी रख सकती हैं। मीरा ने उन्हें इसी संबंध सूत्र में बाँधा था। अन्य साधक “पितु मातु, सहायक स्वामि, सखा तुम्हीं एक नाथ हमारे हो” के अनुसार चयन करते रहते हैं रिश्तेदारों के प्रति सहज आत्मीयता रहती है, इसलिये ध्यान योग के प्रथम चरण में इस प्रकार के लौकिक सम्बन्धों की स्थापना को मन को आकर्षित किये रहने के लिये आवश्यक माना गया है।

इमारतें बनाने से पूर्व नक्शे एवं मण्डल बनाये जाते हैं। उन्हीं को देख देखकर इमारत बनती है। साँचे पहले बनते हैं। पीछे खिलौने, आभूषण, पुर्जे आदि ढलते चले जाते हैं। इष्टदेव का निर्धारण एवं चयन एक साँचा है जिसमें साधक अपने व्यक्तित्व को ढालने का प्रयत्न करता है। ध्यान प्रतिमाएँ ऐसी ही होनी चाहियें। अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो सकता है। यदि इष्टदेव पशु-पक्षी, मद्दयपायी क्रूरकर्मा, व्यभिचारी, छली, दंभी स्तर के चुने गये हों तो निश्चित ही भक्ति भावना के कारण उन दुर्गुणों को साधक की अंतः चेतना अपनाने लग जायगी। ऐसे ध्यान हानिकारक ही सिद्ध होते हैं। तंत्र साधनाओं के अंतर्गत प्रायः इष्टदेव की क्रूरकर्मा छवियों का आश्रय लिया जाता है।

इससे दुस्साहस तो जग सकता है पर चरित्र की दृष्टि से निकृष्टताएँ ही पल्ले बँधती है। वाम मार्गी साधकों की प्रकृति में क्रूरता की अभिवृद्धि किस तेजी से होती है इसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

सौम्य इष्टदेवों का चयन ही ध्यान योग की साकार कक्षाओं में चुना जाता चाहिए। उदाहरण के लिये शिव मस्तिष्क में प्रवाहित होने वाली सद्विचारों की ज्ञान गंगा, मस्तिष्क पर धारण किया हुआ संतुलन रूपी चन्द्रमा, विवेकशील दूरदर्शिता का प्रतिनिधि तृतीय नेत्र विश्व कल्याण के लिये गरल पान का बलिदानी नील कंठ सर्प जैसे दुष्टों को भी गले लगाकर सुधार प्रयास, गले में मुण्ड माला, मरण की स्मृति हृदयंगम किये रहने, कटि प्रदेश में व्याघ्र चर्म, सिंह जैसा पराक्रम, डमरू उद्बोधन, भूत प्रेतों की सेना, पिछड़े लोगों का उत्थान, इस प्रकार की अनेकों सत्प्रेरणा शिव की छवि में उभरती हैं। गंगावतरण में सहयोग जैसे अनेकों दिव्य चरित्रों में ध्यान कर्ता के लिये एक से एक बढ़ी चढ़ी प्रेरणाएँ विद्यमान हैं। किन्हीं ने कुछ अवाँछनीय तत्व इस चित्रण में जोड़ दिये हों तो उन्हें विवेक बुद्धि से उपेक्षित कर जोड़ दिये हों तो उन्हें विवेक बुद्धि से उपेक्षित कर देना, अमान्य ठहरा देना ही उचित है।

आत्मिक प्रगति की साधनाओं में ध्यान को प्रधानता दी गई है। इसके बिना इस क्षेत्र में बढ़ सकना संभव ही नहीं हो सकता। जिनकी अति चंचल प्रकृति है, जिन्हें अध्यात्म क्षेत्र का कुछ भी अनुभव नहीं है, उन्हें चिंतन को इस प्रयोजन के लिये एकाग्र करने तथा गहराई में उतरने के लिये आकर्षक उपचार खड़े करने पड़ते हैं। देव पूजा के लिये प्रतिमाओं का आधार बनाया जाता है और उनकी अर्चना के लिये कतिपय कर्मकाण्डों के विधान बनाये जाते हैं। देव प्रतिमाओं की आकृति यौवन से उत्फुल्ल नख-शिख तक आकर्षक होती है। उन पर वस्त्र आभूषणों की सुसज्जा की जाती है, सुगन्ध लेपन, पुष्प, उपकरण, चंवर, छत्र, वाहन आयुध आदि से प्रतिमा का समीपवर्ती क्षेत्र ऐसा बनाया जाता है जिससे आँखों का समुचित आकर्षण तथा देखने के लिये सुन्दर उपकरण मिल सकें। यह विश्रृंखलित ध्यान को उस प्रतिमा पर केन्द्रित एकाग्र करने की परिचर्या कही जा सकती है। आचमन, पाद्य, अर्घ्य, अक्षत, नैवेद्य-धूप, आरती जैसे उपचारों में भी नवीनता रहने में मन लगता है। मन्दिर की किवाड़ें छतें, फर्श आदि को भी सुन्दर रखने का विधान है। देवता की गरिमा का गुण गान होने से उसके महत्व को, प्रताप को, अनुग्रह को समझने और तद्नुरूप आत्मभाव उत्पन्न करने की प्रेरणा मिलती है। देव दर्शन एवं देव पूजन के जहाँ अन्य आध्यात्मिक लाभ हैं, वहाँ ध्यान एकाग्रता का अभ्यास भी बहुत हद तक पूरा होता है। देव पूजा की प्रक्रिया के दिव्य लाभ तो हैं ही साथ ही ध्यान रखने से उत्पन्न होने वाली मानसिक प्रखरता भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

देव पूजन, धर्मानुष्ठान, एवं शास्त्र पाठ, कीर्तन, जैसे धर्मोपचारों का वर्णित माहात्म्य अपनी जगह पर सही होने के अतिरिक्त एकाग्रता का अभ्यास भी कम महत्वपूर्ण नहीं है धर्मानुष्ठान के विविध प्रयोग बनाते समय तत्त्वदर्शियों ने जन साधारण का ध्यान धारण का अभ्यास कराने की बात को भी ध्यान में रखा है।

ध्यान योग से दो प्रयोजनों की पूर्ति होती है एक एकाग्रता दूसरी सतर्क गंभीरता। बिखरे विचारों को एक केन्द्र पर केन्द्रित कर सकने की कला यदि किसी को हस्तगत हो जाय तो वही अपनी प्रचण्ड मनःक्षमता को अभीष्ट प्रयोजन में लगाकर आशातीत सफलता प्राप्त कर सकता है। असफलताएँ प्रायः अन्यमनस्कता का ही दुष्परिणाम होती हैं। उपेक्षा की स्थिति में समुचित मनोयोग जुट नहीं पाता और हाथ में लिये हुए काम

आधे अधूरे रहकर असफलता का ही निमित्त बनते हैं।

यह कभी गंभीर दृष्टि का विकास होने से ही पूरी हो सकती है। ध्यान साधना में एकाग्रता का तथा मनोयोगपूर्वक गंभीर चिंतन का अभ्यास होता है। इसमें जिसे जितनी सफलता मिलेगी उसकी मानसिक प्रखरता उतनी ही तीक्ष्ण होती चली जायेगी। कहना न होगा कि इस उपलब्धि के कारण न केवल आत्मिक क्षेत्र में वरन् भौतिक क्षेत्र में विचित्र प्रकार की सफलताएँ प्राप्त होती हैं। ध्यान-धारणा के सहारे उपलब्ध होने वाली मानसिक प्रखरता जीवन के हर क्षेत्र में सहयोगी बनकर सफलताओं का द्वार खोलती है। आत्मिक प्रगति का उद्देश्य तो पूरा होता ही है।


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