मन जड़ है व शरीर कलेवर

January 1992

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शरीर मन का आज्ञाकारी सेवक है । दोनों आपस में अविच्छिन्न रूप से गूँथे हुए हैं । शरीर रोगी होता है तो मस्तिष्क बेचैन, अशान्त पाया जाता है । नींद नहीं आती और सिर पर भारीपन छा जाता है । यही बात पन पर विपत्ति आने पर शरीर की दुर्दशा होने के सम्बन्ध में है । क्रोध में आँखें लाल हो जाती हैं । होंठ काँपने लगते हैं । शरीर आवेश से भर जाता है । भय की स्थिति में गला सूखता है, पैर काँपते हैं । भय की स्थिति में गला सूखता है, पैर काँपते हैं, रोएँ खड़े हो जाते हैं और गहरी साँसें चलने लगती हैं ।

कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है । यह कथन आरोग्य का महत्व समझाने की दृष्टि से कहा गया है पर वास्तविकता इससे भिन्न है । विशेषज्ञ कहते हैं कि मन के स्वस्थ रहने पर ही शरीर स्वस्थ रह सकता है ।

शरीर का सामान्य कार्य भोजन से चलता दीखता है, पर उसके साथ यह शर्त जुड़ी हुई है कि वह पच सके तो, अन्यथा अपच रहने की स्थिति में खाया हुआ भोजन विष तुल्य हो जाता है । वह सड़ता है । गैसें बनाता है और वे रक्त में मिलकर समूचे शरीर में घूमती हैं और जहाँ कहीं भी उन्हें अवसर दीखता है वहाँ रुक कर रोग खड़ा कर देती हैं ।

अपच का एक कारण अधिक मात्रा में अभक्ष्य भोजन करना है । किन्तु कारण है-मुख आमाशय , जिगर , आँत आदि से उचित स्तर का, उचित मात्रा में पाचक रसों का स्राव न होना। इस स्थिति में सात्विक और स्वल्प मात्रा में खाया हुआ भोजन भी नहीं पचता । अपच का कोई भी कारण क्यों न हो वह दुर्बलता और रुग्णता का निमित्त कारण बनता है । यह स्राव मानसिक स्थिति अस्त-व्यस्त होने की दशा में, मात्रा में स्वल्प और स्तर के हिसाब से घटिया निकलते हैं । इनके कारण आहार पोषक न रहकर शोषक बन जाता है ।

शरीर पोषण में शुद्ध रक्त की जितनी भूमिका है उससे भी अधिक उस विद्युत प्रवाह की है जो नाड़ी तन्तुओं में निरन्तर दौड़ता रहता है । जिसका उद्गम केन्द्र मस्तिष्क है । यह नाड़ी तन्तु जीव कोशिकाओं को गति भी देते हैं और पोषण भी । इसमें कमी पड़ जाने से भीतर अवयवों की गतिशीलता शिथिल पड़ जाती है । भीतर खोखलापन बाहर भी आता है । शरीर की क्रियाशक्ति घट जाती है और स्वास्थ्य संतुलन लड़खड़ाने लगता है । इतने पर भी काम तो करना ही पड़ता है । नित्यकर्म से निपटने, भोजन करने आदि तक में श्रम पड़ता है । न्यूनाधिक मात्रा में चलना फिरना तो पड़ता ही है । हाथ भी चलते ही हैं । श्रम के बिना शरीर की पाचन और मल विसर्जन प्रक्रिया काम कैसे करें ? यह तो सामान्य दिनचर्या की बात हुई । काम इतने से भी नहीं चलाता । आजीविका उपार्जन के लिए भी काम करना पड़ता है और उसमें शारीरिक एवं मानसिक क्षमता लगती है । इस खर्च का संतुलन यदि उत्पादन के साथ न बैठे तो शरीर गलता और घिसता जायेगा । फलतः रोग दबोच लेंगे और अकाल मृत्यु असमय ही आ धमकेगी ।

रक्त पेट में भोजन पचने पर पैदा होता है । गुर्दों, आँतों और फेफड़ों द्वारा उसका परिशोधन होता है । हृदय द्वारा नाड़ियों के माध्यम से उसे अंग-अवयवों तक पहुँचाया जाता है । हृदय देखने भर में स्वसंचालित प्रतीत होता है । पर वास्तविकता यह है कि अन्य अवयवों की भाँति हृदय को भी जिस क्षमता की आवश्यकता होती है वह मस्तिष्क रूपी बिजलीघर में उत्पन्न होती है एवं मेरुदंड के साथ जुड़े हुए अनेक नाड़ी तन्तुओं और मुच्छकों द्वारा पहुँचती है ।

यह विद्युत प्रभाव कितना अद्भुत और आश्चर्यजनक है । इसकी जानकारी अंतःस्रावी ग्रंथियों और उनके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले हारमोनों का निरीक्षण-परीक्षण करने पर पता चलता है ।प्रजनन माध्यम से वंशवृद्धि और तात्कालिक सरस संवेदनाओं में जिन ‘जीन्स’ का हस्तक्षेप होता है उनकी संरचना एवं क्रियापद्धति और भी अद्भुत है । इन्हें अपने प्रयोजन के अनुरूप जो मस्तिष्क द्वारा प्रेरित होती है । जिस प्रकार मशीन के पुर्जों को द्वारा जलने-घिसने से बचाने के लिए उनमें मोबिलआइल की चिकनाई डालते रहना पड़ता है । उसी प्रकार रक्त, माँस मज्जा आदि द्वारा एक सामान्य प्रयोजन की पूर्ति भर होती है । कारखानों में लगी मशीनों में चलाने के लिए जिस शक्ति की आवश्यकता होती है वह तो जनरेटर या इंजन से प्राप्त होती है ।यह जनरेटर मस्तिष्क ही है । वही है जो सोचने-विचारने के अतिरिक्त विद्युत उत्पादन का भी केन्द्र है । यह ऊर्जा उसे ब्रह्मांड व्यापी ऊर्जा से प्राप्त होती रहती है । इसीलिए मस्तिष्क को ब्रह्माण्डीय शक्ति खींचते रहने वाले पृथ्वी के ध्रुव केन्द्र के समतुल्य माना जाता है ।

बात पुरानी हो गयी जब रोगों का कारण वात, पित्त, कफ से, आदी , बादी , खादी , से , लवणों या रसायनों के कम पड़ जाने से तथा विषाणुओं के आक्रमण पर निर्भर माना जाता था और तद्नुसार उपचार साधनों के रूप में औषधियों का निर्माण और उपयोग किया जाता था । नवीनतम वैज्ञानिक खोजों ने यह माना है कि रोगों की जड़ मनोविकारों में है । मानसिक असंतुलन ही चित्र-विचित्र आकार प्रकार वाली बीमारियों का प्रमुख कारण है अन्य कारण तो सहायक मात्र है । मानसिक तनाव या विक्षेप ही रोगों के मूल उत्पादक हैं । इसलिए आधुनिक चिकित्सक आहार विहार की सामान्य खामियों के अतिरिक्त रोगी की मनोदशा का विवेचन-विश्लेषण करते हैं और उस क्षेत्र की विकृतियों को सुधारने पर ध्यान केन्द्रित करते हैं । आवश्यक नहीं कि रोगी होने से पूर्व मनुष्य पागल ही हो जाता हो । पागलपन की हलकी-फुलकी इतनी शाखा-प्रशाखाएँ हैं जिनसे पूरी तरह विरले ही बच पाते हैं । चिन्ता , भय , निराश, क्रोध , घृणा , आवेश, उद्विग्नता जैसी सनकें भी विक्षिप्तता की ही छोटी बहिनें या सहेलियाँ हैं । अनैतिक चिन्तन या आचरण मनःक्षेत्र को मथ डालते हैं । आत्मिक प्रेरणा उनसे दूर रहने की प्रेरणा देती है, किन्तु उद्धत चिन्तन अनाचार ही नहीं दुराचार और अत्याचार करने तक पर उतारू हो जाता है । फलतः अंतराल में अंतर्द्वंद्व उठ खड़े होते हैं । दुहरा व्यक्तित्व उभरता है । इस असंतुलन के कारण अविवेकी व्यक्ति की मनःस्थिति सनकी एवं उद्धत , अभिमानी जैसी हो जाती है उस आवेश से सारा शरीर तन जाता है । यह तनाव जिस भी अंग-अवयव का दुर्बल पाता है उसी के ऊपर अपना अधिकार जमा लेता है । उत्तेजित तनावों की भाँति हीनता, दीनता , भीरुता, आशंका आदि का भी ऐसा प्रभाव होता है जिसे अवसाद कह सकते हैं । मानसिक स्थिति में किसी पर आवेश छाये रहते हैं किन्हीं पर अवसाद । इन्हीं ज्वार-भाटों से अस्थिरता उत्पन्न होती है और रोग उभरने की भूमिका बन जाती है ।

बात पुरानी हो गयी जब रोगों का कारण वात, पित्त, कफ से, आदी , बादी , खादी , से , लवणों या रसायनों के कम पड़ जाने से तथा विषाणुओं के आक्रमण पर निर्भर माना जाता था और तद्नुसार उपचार साधनों के रूप में औषधियों का निर्माण और उपयोग किया जाता था । नवीनतम वैज्ञानिक खोजों ने यह माना है कि रोगों की जड़ मनोविकारों में है । मानसिक असंतुलन ही चित्र-विचित्र आकार प्रकार वाली बीमारियों का प्रमुख कारण है अन्य कारण तो सहायक मात्र है । मानसिक तनाव या विक्षेप ही रोगों के मूल उत्पादक हैं । इसलिए आधुनिक चिकित्सक आहार विहार की सामान्य खामियों के अतिरिक्त रोगी की मनोदशा का विवेचन-विश्लेषण करते हैं और उस क्षेत्र की विकृतियों को सुधारने पर ध्यान केन्द्रित करते हैं । आवश्यक नहीं कि रोगी होने से पूर्व मनुष्य पागल ही हो जाता हो । पागलपन की हलकी-फुलकी इतनी शाखा-प्रशाखाएँ हैं जिनसे पूरी तरह विरले ही बच पाते हैं । चिन्ता , भय , निराश, क्रोध , घृणा , आवेश, उद्विग्नता जैसी सनकें भी विक्षिप्तता की ही छोटी बहिनें या सहेलियाँ हैं । अनैतिक चिन्तन या आचरण मनःक्षेत्र को मथ डालते हैं । आत्मिक प्रेरणा उनसे दूर रहने की प्रेरणा देती है, किन्तु उद्धत चिन्तन अनाचार ही नहीं दुराचार और अत्याचार करने तक पर उतारू हो जाता है । फलतः अंतराल में अंतर्द्वंद्व उठ खड़े होते हैं । दुहरा व्यक्तित्व उभरता है । इस असंतुलन के कारण अविवेकी व्यक्ति की मनःस्थिति सनकी एवं उद्धत , अभिमानी जैसी हो जाती है उस आवेश से सारा शरीर तन जाता है । यह तनाव जिस भी अंग-अवयव का दुर्बल पाता है उसी के ऊपर अपना अधिकार जमा लेता है । उत्तेजित तनावों की भाँति हीनता, दीनता , भीरुता, आशंका आदि का भी ऐसा प्रभाव होता है जिसे अवसाद कह सकते हैं । मानसिक स्थिति में किसी पर आवेश छाये रहते हैं किन्हीं पर अवसाद । इन्हीं ज्वार-भाटों से अस्थिरता उत्पन्न होती है और रोग उभरने की भूमिका बन जाती है ।


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